Saturday 29 April 2023

जाने क्या चीज़ इंसान को इतना "पेचीदा" बना देती है... "साथ" भी रहता है...."ईर्ष्या" भी करता है.... "रिश्ते" भी रखता है...."दुश्मनी" भी रखता है.... सामने "तारीफ" करता है.... पीठ पीछे "बदनामी" भी करता है....🤔


: शुभ प्रभात
*नित्य स्वाध्याय से  लाभ* 
नियमित स्वाध्याय साधारण मनुष्य के मन में सुसंस्कारों एवं सुविचारों का परिष्करण कर उसे महानता के पथ पर अग्रसर करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।स्वाध्याय का एक रूप सत्संग भी है। किन्हीं कारणों से जिन्हें विद्या अध्ययन का अवसर नहीं मिल सका, जो स्वयं ही ग्रंथों का पठन-पाठन नहीं कर सकते, उन्हें चाहिए कि वे अध्ययनशील व्यक्तियों का सत्संग करें महात्माओं एवं व्याख्यान दाताओं से संपर्क स्थापित करें और एकाग्रतापूर्वक आँखों के स्थान पर कानों से स्वाध्याय करें। ऐसा करते रहने से उन्हें भी कालांतर में वह सब लाभ होंगे जो एक स्वअध्ययनशील को हुआ करते हैं।शरीर को स्वस्थ और सुदृढ़ बनाए रखने के लिए जिस प्रकार पौष्टिक आहार की आवश्यकता है, उसी प्रकार मन एवं बुद्धि को स्वस्थ एवं स्वच्छ बनाए रखने के लिए उत्तमोत्तम ग्रंथों का अध्ययन अनिवार्य है। अध्ययन एवं स्वाध्याय के लिए निम्न कोटि का साहित्य, हानिकर होगा। सच्चा स्वाध्याय वही है, जिसके द्वारा हमारा मन बाह्य विषयों से अलिप्त रह कर आत्मा के अनुसंधान में प्रवृत्त हो, हमारी मानसिक दुर्भावनाओं, दुर्बलताओं तथा दूषित मनोविकारों का दमन हो सके और हमारा मन एक अनिर्वचनीय अलौकिक आनंद से परिप्लावित हो सके।स्मरण रखिए पुस्तकें जागृत देवता है। उनके अध्ययन मनन चिंतन के द्वारा पूजा करने पर तत्काल ही वरदान पाया जा सकता है। हमें नियमित रूप से सद्ग्रंथों का अवलोकन करना चाहिए। उत्तम पुस्तकों का स्वाध्याय जीवन का आवश्यक कर्तव्य बना लेना चाहिए।ज्ञानवान अथवा विवेकशील बनने के लिए मनुष्य को अपने मन मस्तिष्क को साफ सुथरा बनाना होगा। ज्ञान पाने के लिए एवं विवेक जागृत करने के लिए आवश्यक है कि पहले हम अपने विचारों एवं संस्कारों को परिष्कृत करें। विचारों एवं संस्कारों के परिष्करण के अभाव में ज्ञान के लिए की गई साधना असफल चली जाती है।मनुष्य के लिए विचार परिष्कार एवं ज्ञानोपार्जन के लिए यदि कोई मार्ग रह जाता है तो वह अध्ययन ही है। जीवन का अंधकार दूर करना और प्रकाशपूर्ण स्थिति पाकर निर्द्वंद्व एवं निर्भय रहना यदि वांछित है तो समयानुसार अध्ययन में निमग्न रहना भी नितांत आवश्यक है। अध्ययन के बिना विचार परिष्कार नहीं, विचार परिष्कार के बिना विवेक और विवेक के बिना ज्ञान नहीं।विचारों का विकास एवं उनकी निर्विकारिता दो बातों पर निर्भर है -सत्संग एवं स्वाध्याय। विचार बड़े ही संक्रामक, संवेदनशील तथा प्रभाव ग्राही होते हैं। जिस प्रकार के व्यक्तियों के संसर्ग में रहा जाता है, मनुष्य विचार उसी प्रकार के बन जाते हैं। चरित्रवान तथा सदात्माओं का सत्संग करने से मनुष्य के विचार महान एवं सदाशयता पूर्ण बनते है


: ✍  जाने क्या चीज़ इंसान को इतना "पेचीदा" बना देती है...  "साथ" भी रहता है...."ईर्ष्या" भी करता  है.... "रिश्ते" भी रखता है...."दुश्मनी" भी रखता है.... सामने "तारीफ" करता है.... पीठ पीछे "बदनामी" भी करता है....🤔
                 सुप्रभात

 सिर्फ उतना ही विनम्र बनो
           जितना जरूरी हो

         बेवजह की विनम्रता
                दूसरों के
    "अहम" को बढ़ावा देती है।

: सूर्य के उदय और अस्त होने के साथ-साथ प्रतिदिन आयु भी घटती जा रही है और इसी प्रकार दिन, सप्ताह, पक्ष, मास और वर्ष पर वर्ष बीतते जा रहे हैं। यह जीवन समाप्त होता जा रहा है। घटता जा रहा है। मनुष्य की आयु सामान्यतः सौ वर्ष की मानी गई है। इन सौ वर्षों में से नित्य दिन घटते जा रहे हैं। कम होते जा रहे हैं। किन्तु सांसारिक कार्यों में निमग्न मनुष्य को समय के व्यतीत होने का कोई भी ज्ञान नहीं हो रहा है। 

       प्रत्येक मनुष्य अपने सांसारिक कार्यों में, गृहस्थी के कार्यों में, सन्तानोत्पत्ति एवं पालन-पोषण में, व्यापार के कार्यों में, धन कमाने के कार्यों में, लोकेषणा के कार्यों में, अथवा छल, कपट, चोरी, लूट आदि कार्यों में इतना व्यस्त है कि उसका इस ओर ध्यान ही नहीं हो पा रहा है। नित्य प्रति हम जन्म और मृत्यु को देख रहे हैं। बुढ़ापा और रोग को देख रहे हैं। किन्तु फिर भी इन भयंकर दुखों को देखकर कोई भय उत्पन्न नहीं हो रहा है। ऐसा प्रतीत होता है कि यह सारा संसार (प्राणी जगत) मोह और अज्ञान रूपी मदिरा को पीकर मतवाला हो रहा है। 
         सब कुछ देख सुनकर भी जीवन के लक्ष्य के प्रति सावधान नहीं है और पुरुषार्थ हीन बना हुआ है। अर्थात उसे अपने जीवन के लक्ष्य का पता ही नहीं है। यह मनुष्य जीवन किस लिए मिला हुआ है ? यह मनुष्य जीवन एक बहुत बड़े लक्ष्य की प्राप्ति करने के लिए हमें मिला हुआ है। और यदि उस लक्ष्य को हम प्राप्त नहीं कर पाते हैं तो जीवन की निरर्थकता है।
: सन् 1880 के बाद जातियों के मध्य एक बड़ा आंदोलन शुरू हुआ। इसी आंदोलन का प्रतिफल रहा कि इकट्ठा विभिन्न जातिय महासभाओं ने जन्म लिया। इन महासभाओं में अखिल भारतीय जाटव महासभा, अखिल भारतीय कुर्मी क्षत्रिय महासभा, अखिल भारतीय यादव महासभा आदि प्रमुख रहीं। 
इन महासभा के पदाधिकारियों ने अपने अपने को क्षत्रिय क्लेम किया। तमाम अन्य जातियों जैसे जाट, गुज्जर, जायसवाल, गढ़मंडला की तमाम जातियाँ, मराठा क्षत्रप की अधिकांश जातियाँ, यादव, जाटव सभी ने एक साथ ख़ुद को क्षत्रिय बताना शुरू किया।
तब क्षत्रिय एवं ब्राह्मण समझे जाने वाले लोगों ने इनका खूब मज़ा किया, मजाक बनाया और इनके क्लेम को झूठा बताया। 

समय बदल गया बमुश्किल सवा सौ साल बीता, यह जातियाँ ख़ुद को शूद्र बताने पर आमादा हैं और अब ब्राह्मण क्षत्रिय समझे जाने वाले लोग उनके जातियों का इतिहास खोज खोजकर लिख रहे हैं और कह रहे हैं कि यह देखो तुम्हारे वंशजों ने यहाँ शासन किया है, वहाँ शासन किया है, भला तुम लोग शूद्र कैसे हुए?
तुम लोग आरक्षण के लालच में झूठ बोल रहे हो, तुम लोग तो राजा रहे हो। हम तुम्हें शूद्र क़तई नहीं मानेंगे। 

सोचिए जरा, अगले पचास साल में क्या होगा??
समझदार आदमी दो पीढ़ी आगे का देखता है, अतः अपनी बोली भाषा उसी के अनुसार रखता है। पर मूर्खों को उसकी बात ही समझ नहीं आती। वह उसको गाली देते हैं, उसे भगाना चाहते हैं। 

देखिए ज़रा कि आदि शंकर का हिंसात्मक स्तर पर किसी ने विरोध नहीं किया, लेकिन जब उनके माँ की मृत्यु हुई और उनका अंतिम संस्कार उन्होंने करना चाहा तो उन्हीं के समाज के लोगों ने कहा कि भले लाश सड़ जाय पर हम शंकर के हाथों उनका अंतिम संस्कार नहीं होने देंगे। चार आदमी न मिला कंधा देने को। कैसी दुर्गति उस महान संन्यासी की…. अंत में अपने घर के सामने चिता जलाकर अंतिम संस्कार कर दिया। 
मानस को सबसे पहले मानस स्तर पर किसने जलाया, क्या किसी राजा या खेतिहर ने जलाया?? जलाने वाले तो उसी बनारस पंडा गिरोह के लोग थे, जो आज भी अविमुक्तेश्वरानंद के रूप विराजमान हैं।
स्वामी दयानंद को गालियाँ किसने दी, शास्त्रार्थ के नाम पर उनके ऊपर कंकड़ पत्थर मारकर माँ बहन की गालियाँ कौन देता था?? क्या कोई बाहरी लोग थे? वहीं थे जिनको लगता था कि हमारी ठेकेदारी जाएगी।
भविष्य की तैयारी वर्तमान में की जाती है लेकिन मूर्खता से उत्पन्न अहंकार के कारण सभी लोगों को स्पष्ट दिख रहा भविष्य उन लोगों को दिखना बंद हो जाता है।
[
 जो दूसरों के दोष पर ध्यान देता है वह अपने दोषों के प्रति अंधा हो जाता है। ध्यान तुम या तो अपने दोषों की तरफ दे सकते हो या दूसरों के दोषों की तरफ दे सकते हो, दोनों एक साथ न चलेगा। क्योंकि जिसकी नजर दूसरों के दोष देखने लगती है, वह अपनी ही नजर की ओट में पड़ जाता है। जब तुम दूसरे पर ध्यान देते हो, तो तुम अपने को भूल जाते हो। तुम छाया में पड़ जाते हो।
    और एक समझ लेने की बात है, कि जब तुम दूसरों के दोष देखोगे तो दूसरों के दोष को बड़ा करके देखने की मन की आकांक्षा होती है। इससे ज्यादा रस और कुछ भी नहीं मिलता कि दूसरे तुमसे ज्यादा पापी हैं, तुमसे ज्यादा बुरे हैं, तुमसे ज्यादा अंधकारपूर्ण हैं। इससे अहंकार को बड़ी तृप्ति मिलती है कि मैं बिलकुल ठीक हूं दूसरे गलत हैं। 
        बिना ठीक हुए अगर तुम ठीक होने का मजा लेना चाहते हो, तो दूसरों के दोष गिनना। और जब तुम दूसरों के दोष गिनोगे तो तुम स्वभावत: उन्हें बड़ा करके गिनोगे। तुम एक यंत्र बन जाते हो, जिससे हर चीज दूसरे की बड़ी होकर दिखाई पड़ने लगती ह

: पंडित जी की पंडिताई खतरे में, पंडित जी ने किया क्या कुछ नहीं , लेकिन तोहमत लगी है कि  पंडित जी ने जाति बनाई हैं , पंडित जी ने जातिवाद बनाकर गलत कर दिया।

 पंडित जी हमेशा गलत ही होते हैं,
 क्या करें पंडित जो ठहरे।

कोई आज तक बता नहीं पाया जाति कब बनी।
किस पंडित ने बनाई।

तुलसीदास दुबे थे इससे यह पता चलता है कि जाति पहले बन गई थी।
संत रविदास चर्मकार जाति से थे जो तुलसी दास के पहले हुए यानि जाति बन चुकी थी।

मनु स्मृति वर्ण व्यवस्था पर प्रकाश डालती है लेकिन जाति बनने का कोई इशारा नहीं करती।

 *मनु स्मृति लिखने वाले मनु क्षत्रिय थे इसका मतलब जाति बन चुकी थी।*

जीजस क्राइस्ट से सात सौ वर्ष पूर्व सनातन धर्म की पुनः स्थापना करने वाले मंडन मिश्र उनके गुरु कुमारिल भट्ट के नाम से पता चलता है कि जाति पहले बन चुकी थी।

आज चमडे़ का काम मुसलमान बड़े चाव से कर रहे हैं।
सब्जी बेचने का काम मुसलमान बड़े चाव से कर रहे हैं।
लोहार का काम मुसलमान बड़े चाव से कर रहे हैं।
मांस बेचने का काम मुसलमान बड़े चाव से कर रहे हैं।
बढई का काम मुसलमान बड़े चाव से कर रहे हैं।
बंगलादेशी मुसलमान सफाई वाले का काम बड़े चाव से कर रहे।
नाई का काम मुसलमान बड़े चाव से कर रहे हैं।
उनको कोई कष्ट नहीं, वह अछूत भी नहीं होते, वह काम के आधार पर वर्ण व्यवस्था में नहीं घुसते।
उन्हें काम चाहिए।

हिन्दुओं में वर्ण व्यवस्था अब सिर्फ कागजों पर है।
सड़क पर गोल गप्पे,आलू टिक्की, चाऊमीन कौन बना रहा है कौन बेच रहा है इससे कोई मतलब नहीं।
सब शौक से खा रहे हैं।

पंडित जी गरियाये जा रहे जबकि गोलगप्पे का मजा पंडित जी भी ले रहे हैं बिना जाति पूछे।

त्रेतायुग में निषादराज ने भगवान राम के बराबर बैठने से इंकार कर दिया था। 
इसका मतलब जाति बन चुकी थी।

सतयुग में राजा हरिश्चंद्र जो क्षत्रिय कहे गये काशी में डोम को बिक गए थे।

यानि जाति बन चुकी थी।

जाति किसने बनाई आज ऐलान हुआ है।
जाति पंडित जी ने बनाई!!!!!???
ऐसी बनाई खत्म होने का नाम नहीं ले रही है!!!??

सरकारी कागजों में चिपक गई है।
जाति व्यवस्था अमर हो गई है।

 राधे - राधे -आज का भगवद् चिंतन
               29 - 04 - 2023 
              *"प्रकृति की सीख"* 

        ☯️       त्याग और नाश ये एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। स्वयं की इच्छा से किसी वस्तु अथवा पदार्थ को छोड़ना त्याग तथा स्वयं की इच्छा न होते हुए किसी वस्तु अथवा पदार्थ का छूट जाना नाश कहलाता है। प्रकृति का अपना एक शाश्वत नियम है और वो ये कि मान, पद, प्रतिष्ठा, वैभव कुछ भी और कभी भी यहाँ शाश्वत नहीं रहता। 

         ☯️      सूर्य सुबह अपने पूर्ण प्रकाश के साथ उदय होता है और शाम होते-होते उसका प्रकाश क्षीण होने लगता है और दिन में प्रचंड प्रकाश फैलाने वाला वही सूर्य अस्ताचल में कहीं अपनी रश्मियों को छुपा लेता है। रात्रि को चंद्रमा अपनी शीतला बिखेरता है मगर वो भी सुबह होते-होते कहीं प्रकृति के उस विराट आंचल में छुप सा जाता है। सदा कुछ भी नहीं रहने वाला इसलिए बाँटना सीखो! चाहे प्रेम हो, सम्मान हो, समय हो, खुशी हो, धन हो अथवा अन्य कोई भी वस्तु।

    ☯️         जिन फलों को वृक्ष द्वारा बाँटा नहीं जाता एक समय उन फलों में अपने आप सड़न आने लगती है और वो सड़कर वृक्ष को भी दुर्गंधयुक्त कर देते हैं। इसी प्रकार समय आने पर प्रकृति द्वारा सब कुछ स्वतः ले लिया जायेगा,अब ये आप पर निर्भर करता है कि आप बाँटकर अपने यश और कीर्ति की सुगंधी को बिखेरना चाहते हैं या संभालकर, संग्रह और आसक्ति की दुर्गंध को रखना चाहते हैं।
शनिदेव 🙏

जल की बूंद यदि जलते तवे पर गिरे तो भाप बनकर उड़ जाती है परन्तु यही बूंद कमल के पुष्प पर गिरे तो प्रकाश में मोती की भांति चमकती है यदि किसी मृत व्यक्ति के मुख में गिरे तो गंगाजल बनकर मोक्षदायिनी बन जाती है परन्तु किसी सर्प के मुख में गिरे तो बिष में घुलकर स्वयं बिष बन जाती है प्रत्येक स्थिति में जलतत्व एक ही है अन्तर है तो केवल संगति का संगति जब जल की बूंदों की नियति बदल सकती है तो मनुष्य की क्यों नहीं इसलिए सदा उचित संगति का चुनाव करें क्योंकि यदि सर्प की संगति करोगे तो या तो डसे जाओगे या स्वयं विष बन जाओगे संगति ही हमारी नियति निर्धारित करती है...!

आचार्य_चाणक्य

💦गाँव का...🫧*

आँधी  में  उड़  गया  था छप्पर  वो गाँव का
भूला  नहीं हूँ  आज तक मंजर  वो  गाँव का  !!

आती  थी   मीठी  नींद  सरेशाम  सो  जाता
कितना नरम  पुआल का बिस्तर वो गाँव का  !!

मिलते   ही   नमस्कार, हाल   चाल  पूँछना
छोटे   बड़े   सभी   का, आदर  वो  गाँव  का  !!

कोल्हू   से  पेरते  रस, चढ़ते  कड़ाह  गुड़  के
कितने लजीज स्वाद का, शक़्कर वो गाँव का  !!

दादी  की  कहानियों  में,  परियों  की  सगाई
सुनते  थे  रात  भर हम, अकसर वो गाँव का  !!

भूलूँगा  भला   कैसे, प्राइमरी   के गुरू को
जिसने  हमें   पढ़ाया, मास्टर   वो   गाँव  का  !!

खेतों  के   बीचोबीच  में, छोटी  सी  तलइया
हम   थे  जहाँ  नहाते, समंदर  वो  गाँव  का  !!

कच्ची  डगर पगडंडियां, मूजों के वो झुरमुट
गर्दा   उड़ाते   घूमते,   दुपहर   वो  गाँव  का  !!

चूल्हे  की  सोंधी  रोटी, अरहर की देसी दाल
मट्ठा  दही  घी  दूध   का, लंगर  वो गाँव का  !!

दुवारे  पे  खड़े  पेड़  पर, चिड़ियों के बसेरे
चीं  चीं से गूँजता था, पूरा  घर  वो गाँव का  !!

लालटेन ढ़िबरियों की रोशनी से जगमगाता
अम्मा की सँझा बाती, पूजा घर वो गाँव का  !!

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