Wednesday 31 May 2023

डॉक्यूमेंट्री फ़िल्मों की निरपेक्षता तब और बढ़ जाती है जब सूत्रधार कोई पत्रकार या एंकर नहीं होता है

Wild Wild Country - Documentary Film on Netflix (प्रशांत विप्लवी)
डॉक्यूमेंट्री फ़िल्मों की निरपेक्षता तब और बढ़ जाती है जब सूत्रधार कोई पत्रकार या एंकर नहीं होता है। ऐसी ही एक डॉक्यूमेंट्री सीरीज ओशो के अमेरिका में विवादित प्रवास और पलायन के ऊपर बनी है - वाइल्ड वाइल्ड कंट्री। ये सीरीज़ वैसे तो 16 मार्च 2018 में ही रिलीज़ हो चुकी थी लेकिन इसे सबसे ज्यादा तब देखा गया जब ओशो के सबसे नज़दीकी सहयोगी माँ आनंद शीला ने करण जौहर को अपना इंटरव्यू दिया। 
डाक्यूमेंट्री इसलिए भी रोचक बन पाई क्योंकि आज से लगभग तीस साल पहले के वीडियो फुटेज मौजूद थे। डाक्यूमेंट्री के एडिटिंग टीम की काबिलियत के कारण आप इसे खत्म किये बगैर नहीं रह सकते। पुराने घटनाक्रम के साथ-साथ वर्तमान में उन्हीं किरदारों को स्वायत्ता से अपनी-अपनी सफाई देने के लिए कहा गया है। इस डाक्यूमेंट्री में कई पक्ष हैं और हरेक पक्ष के लोगों ने अपने-अपने ढ़ंग से अपनी बात रखी है। अगर सूत्रधार का सहारा लिया गया होता तो शायद ये किसी एक पक्ष की तरफ झुककर दूसरे पक्ष का नुकसान कर सकता था। यहाँ सबकुछ स्पष्ट है-दर्शकों के कटघरे में कभी रजनीश हैं तो कभी माँ आनंद शीला हैं, तो कभी एंटलोप की बुजुर्ग जनता हैं तो कभी अमेरिकी राजनेता हैं या कभी राष्ट्रवादी स्थानीय अधिकारी हैं। सबों को सिर्फ अपना पक्ष रखने दिया गया । यही इस डाक्यूमेंट्री को अद्भुत बनाता है। 
मैं एक दर्शक हूँ और इस सीरीज़ को देखने के बाद इस पर लिखने में मैं उतना ईमानदार नहीं रह सकता जितनी ईमानदारी फ़िल्म बनाने वालों ने दिखाई है। एक दर्शक किसी घटनाक्रम को जब देखता है तो मन ही मन एक निष्कर्ष पर भी पहुंचता है और दरअसल यही निष्कर्ष उसका पक्ष भी खड़ा करता है। मैकलेन वे और चैपमेन वे के निर्देशन में बनी जुलियाना लेम्बी के परिकल्पना की फ़िल्म है। इस फ़िल्म के दृश्य संयोजन पर इतनी मेहनत की गई है जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती है। 
जब नब्बे के शुरुआती दौर में रजनीश एक अफ़ीम की तरह विदेशों में भी प्रसारित और प्रचारित हो रहे थे तब उनके पास विदेशों से भारी संख्या में अनुयायी भागे-भागे पुणे के उनके आश्रम में आ रहे थे । खाये-अघाये और सम्पन्न लोगों में व्याप्त वितृष्णा रोग का निवारण रजनीश के पुणे आश्रम के उन्मुक्त वातावरण में आसानी से हासिल था। रजनीश की खासियत ही रही कि उन्होंने रोगियों के रोग का निवारण रोगियों के जरिए ही पूरा कर दिया। उनमें संसाधन पैदा करने की असीम प्रवृति थी और इसी चाहत ने उनके वर्चस्व को नष्ट भी किया। देश और विदेश के अमीरों ने रजनीश के मेडिटेशन से लेकर नये शैली की आत्म-जागृति वाले वक्तृता में अपनी मुक्ति की राह चुन ली थी । अनुयायियों के लिए पैसा तुच्छ था किन्तु रजनीश के लिए पैसा एक साधन था जिससे वे अपने अनुयायियों के साथ एक नयी दुनिया बसा सकते थे। रजनीश अपने दर्शन और सम्मोहन में बेशक़ दक्ष थे लेकिन उनकी कल्पना को साकार रुप देने के लिए एक दृढ़ और महत्वाकांक्षी व्यक्ति की जरूरत थी जो उनके मुहिम को बेहतर रुप दे सकते। एक दिन रजनीश का एक अनुयायी अपनी बेटी को लेकर रजनीश के पास आए। लड़की विलक्षण थी और उसे रजनीश की जादुई आँखों में प्रेम का अथाह समुद्र दिख गया। विदेश से पढ़कर आई उस लड़की में अद्भुत लीडरशीप क्वालिटी थी और इसे रजनीश अच्छी तरह भांप गए थे। पुणे का आश्रम इतनी तादाद में आने वाले भक्तों को संभाल नहीं पाती और रजनीश जिस देश में रहकर अपने अध्यात्म और दर्शन से लोगों को आकृष्ट कर रहे थे उसमें देह की उन्मुक्ति सबसे ज़रूरी क्रिया थी और देह की उन्मुक्ति का शाब्दिक नाम भारत के लिए ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण विश्व के लिए सेक्स था। सेक्स उस समय इतना सहज शब्द नहीं था। परम्परा और मर्यादा की मुनादी करने वाले देश में सेक्स को बंद कमरे में उपभोग की जाने वाली एक प्रजनन क्रिया से अधिक नहीं देखा गया इसलिए इसका सार्वजनिक हो जाना खतरनाक था। 
ये डाक्यूमेंट्री अमेरिका के ऑरेगान के ऐन्टलोप में 80000 एकड़ ज़मीन पर राजनीशपुरम के निर्माण और विनाश की ही कहानी है। ऐन्टलोप एक बेहद कम आबादी वाली जगह थी जिसका निर्माण एक पूर्व सैनिक और एथीलिट ने रिटायर्ड लोगों के लिए बसाया था। उनकी कल्पना में एक वीरान शहर जहाँ बुजुर्ग अपने जीवन का अंतिम समय शांति से बीता सकें। अचानक जब राजनीशपुरम के निर्माण के लिए बड़े-बड़े मशीन और रजनीश अनुयायियों निर्माण दल बनकर आने लगे तो वहाँ के मूल निवासियों में एक दहशत-सी पैदा हो गई। ये सीरीज़ चंद ऐन्टलोप बुजुर्ग वासियों और रजनीश के लगभग पचास हज़ार अनुयायियों के बीच का संघर्ष भी दिखाता है। हालांकि राजनीशपुरम ऐन्टलोप शहर से पंद्रह मील की दूरी पर था लेकिन ऐन्टलोप के निवासियों की खेती उसी आसपास में होती थी और निर्माण कार्य के कारण सामान ऐन्टलोप से होकर ही गुजरती और उन्मुक्त भक्त सरेआम प्रेम आलिंगन और चुंबन करते हुए गुजरते। ऐन्टलोप के लोग असहज होकर बेचैन हो उठे और उन्होंने उनके अनजान पड़ोसी का विरोध करना शुरू किया। उनकी तादाद और ताकत रजनीश के अनुयायियों से बेशक़ कम थी लेकिन उनमें लड़ने का जज़्बा था। हालांकि यहाँ ये बताना ज़रूरी है कि रजनीश के अनुयायियों ने बेहद शांत तरीके से अपना निर्माण कार्य ज़ारी रखा और बगैर बाहरी मदद के उन्होंने अद्भुत शहर बसाया। उनके सृजनात्मकता की जितनी भी तारीफ़ की जाए वो बहुत कम है। उन्होंने चार-चार शिफ्टों में काम किया लेकिन उनके चेहरे पर भरपूर हँसी थी। वे बेहद जोश और खुशी में निर्माण कार्य में जुटे रहे। उन्होंने वो सबकुछ बनाया जो एक अदद शहर में होना चाहिए। उनके और ऐन्टलोप के निवासियों के बीच कोई तालमेल नहीं बन रहा था। ऐन्टलोप के निवासी उन्हें कभी दिल से स्वीकार नहीं कर पाए। रजनीश के लोगों को वहाँ आने से पहले वहाँ के मूल निवासियों से सहज रिश्ता बनाना चाहिए था। उनके बीच के असहज रिश्तों के कारण कई घटनाएं और दुर्घटनाएं घटित हुए। सच्ची घटनाओं के संरक्षित वीडियो टेप का संयोजन इतना मारक है कि उभय पक्ष की क्रूरता और कुटिलता साफ-साफ दिखाई पड़ती है। अपने कथित भगवान के प्रति अनुयायियों की आस्था जहाँ उन्हें उनके विवेक से विमुख करती है वहीं स्थानीय बुजुर्ग निवासियों के मन में गेरुआधारी मत्त अनुयायियों के लिए बसे अकारण भय ने उनके प्रति हिंसात्मक प्रतिक्रिया के लिए मजबूर करती है। इस पूरे सीरीज़ में राजनीशपुरम का निर्माण अद्भुत अनुभूति दिलाती है और सोचने पर विवश भी करती है कि क्या इतना निर्लोभ और इतनी समझ वाली जिम्मेदारी से किसी दुरूह काम को अंजाम दिया जा सकता है। इस पूरे प्रकरण में माँ आनंद शीला की भागीदारी इतनी अहम हो उठती है कि एक सवाल ज़ेहन में बार-बार उठता है कि रजनीश क्या बगैर शीला के अपने इस परिकल्पना को मूर्त रुप दे पाते। उन्होंने वहाँ अपने जिस समाज की निर्मिति की अवधारणा में मुक्ति की बात सोची थी उसे बचाये रख पाने में वे विफल रहे। माँ आनंद शीला अपनी महत्वाकांक्षा में स्थानीय बुजुर्गों के अस्तित्व को ही ज़मीनदोज़ कर देना चाहती थी और उनकी इसी एक भूल ने कथित अध्यात्म के शहर को तबाह कर दिया। स्थानीय, राजकीय और देश के प्रशासन से लेकर मीडिया तक उनके तल्ख तेवर स्थानीय निवासियों की मांग को और भी पुख्ता कर रहे थे। रजनीश इन तमाम घटनाओं से अवश्य अवगत होंगे किन्तु शीला की प्रतिक्रिया उनके निर्देशों के अनुरुप ही हो रहा था ये मानना कठिन लग रहा था। शीला ताकतवर महिला बन चुकी थीं  , उन्हें पता था कि अपने दुश्मन को कैसे बर्बाद किया जा सकता है किन्तु शीला के साथ सिर्फ उनके लोग थे। अमेरिका इस ढ़ंग के उलझे हुए मामलों से पहली बार निबट रहा था। उन्होंने शीला के कुटिल चालों का बदला लेने के लिए संविधान में फेर-बदलकर करना शुरू किया। उस समय अमेरिका की मीडिया इस प्रकरण को बेहद तूल दिए हुए थी। इससे रजनीश को बहुत फ़ायदा और उतना ही नुकसान पहुंचा। फ़ायदे की बात ये रही कि रजनीश को जानने के लिए रजनीश की खूब किताबें बिकी लेकिन एक बड़े तादाद में लोगों की सहानुभूति उन बुजुर्ग स्थानीय निवासियों के प्रति बढ़ा और इस कारण सरकार पर इसका दवाब दिनानुदिन बढ़ता ही गया। दरअसल लोग गुयाना के जोन्स शहर के नौ सौ लोगों के आत्महत्या वाले घटना भूल नहीं पाए थे। जोन्स नामक एक पादरी ने भी इसी तरह अपना एक अलग समुदाय बनाया था जिसमें ज्यादातर अश्वेत लोग थे। जोन्सटाउन जैसी घटना की पुनरावृति न हो इसी से बचने के लिए प्रशासन और सरकार सचेत थे।   
पहले निर्माण के लिए जज़्बों से भरे लोग आए, उन्होंने बंजर ज़मीन पर फसल उगाए, बड़ी-बड़ी इमारतें बनाई, रोड बनाया, स्कूल बनाया, प्रार्थना घर बनाए यहाँ तक कि उन्होंने हवाई पट्टी तक बनाई। इन कार्यों में उन्हें आत्मिक सुख मिला। विवाद के बाद बंदूकें आई, गोला-बारूद आए, फिर अपनी जिद को पूरा करने के लिए छल-बल के प्रयोग से षड्यंत्र रचे गए। जैसे कुछ बच्चों ने रेत के घरौंदों को बनाकर खुद ही उसे ध्वस्त करने का इंतजाम कर लिया। 
सबसे बुरा हुआ जब उनके बनाए होटल पर बम फोड़ा गया, वे हिंसक हो उठे। अभी तक ये हिंसक रुप उनके अनुयायियों और शीला के व्यवहार में नज़र आया, रजनीश अब भी इस पूरे परिदृश्य में गौण थे। प्रेस वार्ता से लेकर टी वी शोज में शीला ही प्रतिनिधित्व कर रहीं थीं। एक और अहम भूमिका निभा रहे व्यक्ति थे – फिलिप टोएलकेस (स्वामी प्रेम निरेन)। इतनी बड़ी लड़ाई का लीगल स्वामी प्रेम निरेन ही देख रहे थे। हालांकि उनकी आस्था आज भी रजनीश के प्रति वैसी ही बनी हुई है। रजनीश ने अपनी इच्छा जताई थी कि वे एक किताब लिखें और उनके प्रति उभरे तमाम दुराग्रहों को वे दूर करें। फ़िलहाल स्वामी प्रेम निरेन अपनी उसी पुस्तक पर काम कर रहे हैं। 
जो सबसे बुरा हुआ वो था राजनीशपुरम को बचाने के लिए लिया गया आत्मघाती फ़ैसला – वास्को कन्ट्री पर राजनैतिक कब्ज़ा जमाने के लिए उन लोगों ने अमेरिका के विभिन्न शहरों से होमलेस लोगों को रजनीशपुरम में जगह दी ताकि वास्को कन्ट्री पर वोटिंग के ज़रिए अपना वर्चस्व बना पाए। अमेरिका के कानून बेहद मानवीय और लोकतान्त्रिक रहे होंगे जिस कारण महज़ बीस दिन पुराने बाशिंदे को भी वोटिंग का अधिकार देता था। अंतिम समय में  उन्होंने अपना  कानून बदल दिया जो बेहद अलोकतांत्रिक फ़ैसला था।   

ऐन्टलोप में अचानक से फैली एक बीमारी का आरोप राजनीशपुरम के लोगों पर लगता है। शीला अचानक से अपने कुछ सहयोगियों के संग जर्मनी भाग जाती है। रजनीश अपना मौन तोड़ते हैं। रजनीश को पर्दे पर शीला के प्रति अपना गुस्सा जाहीर करते हुए देखना बड़ा अजीब लगता है। एक भ्रम-सा टूटता है जैसे किसी लंबे समय से चले आ रहे रहस्य से बेहद सामान्य-सा  भेद खुलता है। हाँ, ये सच है कि रजनीश ने अपने को भगवान नहीं माना और इसलिए उन्हें ओशो नाम से भी पुकारा जाने लगा किन्तु उनके सम्मोहित कर देने वाली आँखों में घृणा देखकर बहुत क्षोभ महसूस हुआ। हाथों में हथकड़ी और जेल सबकुछ उथल-पुथल हो गया। एक सुंदर सपने के  भरभराकर गिर जाने को महज़ छह एपिसोड में समेट लेना भी काबिल-ए-तारीफ़ है।  
इतना सबकुछ कह देने के बावजूद भी रोमांचित होने के लिए बहुत कुछ बचा हुआ है इस डाक्यूमेंट्री सीरीज़ में । मस्ट वाच वाले नोड पर छोड़ रहा हूँ। उम्मीद है जिन्होंने नहीं देखा है netflix पर उपलब्ध इस बेहतरीन सीरीज़ को ज़रूर देखिए।

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