Sunday 21 May 2023

राजा सुहेलदेव और गाजीमियाँ

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राष्ट्वीर, धर्मरक्षक राजा सुहेलदेव का विजय अभियान (वैशाख शुक्ल अष्टमी श्रीसंवत् १०३४)

🚩🚩 ।।राजा सुहेलदेव और गाजीमियाँ।। 🚩🚩

सैय्यद सालार मसूद गाजी (गाजी मियाँ) का जन्म सन् १००० ई० के लगभग माना जाता है। इसके पिता का नाम सालार शाह गाजी था। गाजीमियाँ असंख्यों हिन्दुओं के हत्यारे मूर्तिभंजक तथा सोमनाथ मन्दिर को १७ बार लूटकर ध्वस्त करने वाले खूंखार आतंकी महमूद गजनवी का सगा भांजा था। महमूद गजनवी ने मरने से पहले गाजीमियाँ को भारत के मंदिरों में अकूत संपदा होने की बात बताई और मन्दिरों को लूटने की सलाह दी। महमूद गजनवी की मृत्यु के पश्चात अपने पिता सालार शाह गाजी के साथ एक बड़ी जेहादी सेना लेकर गाजी मियाँ भारत की ओर बढ़ा। दिल्ली, कन्नौज को लूटता हुआ गाजीमियाँ बाराबंकी पहुंचा। बाराबंकी स्थित सप्तऋषि आश्रम (गुरूकुल) उस समय शिक्षा का बहुत बड़ा केन्द्र था। गाजीमियाँ ने वहाँ पहुंचकर संतों, ऋषियों तथा गुरुकुल के छात्रों की नृशंस हत्या कर सप्तऋषि आश्रम पर अधिकार कर लिया और उसे अपनी सैन्य छावनी बनाया। गाजीमियाँ ने काशी विश्वनाथ के वैभव और संपदा की कहानियाँ पहले ही सुन रखी थी। अतः १०३४ ई० में अपने डेढ़ लाख की जेहादी सेना में से लगभग आधी सेना लेकर काशी की ओर चल पड़ा। गाजीमियाँ और उसकी क्रूर सेना रास्ते में पड़ने वाले गाँवों को लूटते हुए आगे बढ़ रही थी। गाजीमियाँ के रास्ते में पड़ने वाले हिन्दुओं को मार दिया जाता था तथा महिलाएँ उस जेहादी सेना की हवश का शिकार बनती थी। ये जेहादी उन महिलाओं के साथ तब तक बलात्कार करते थे जब तक कि वे मर नहीं जाती थी। इन म्लेच्छों ने हिन्दुओं की चार-चार साल की बेटियों को भी नहीं छोड़ा। जेहादियों का कहना था कि काफिरों की लड़कियों का बलात्कार इस्लाम में जायज है। इस तरह भीषण नरसंहार, बलात्कार करता तथा गाँवों को जलाता हुआ गाजीमियाँ काशी की ओर बढ़ रहा था। वह जिस गाँव से गुजरता उस गांव में कोई भी हिन्दू शेष न बचता रास्ते में जहाँ रात हो जाती थी, उसकी सेना वहीं तम्बू गाड़ देती थी। उसके तम्बू के आस-पास गाँव के सारे हिन्दू मार दिये जाते थे या इस्लाम कबूल करने की शर्त पर ही जिन्दा बचते थे। उस गाँव की सभी महिलाएँ रातभर इन म्लेच्छों के तम्बू में उस विशाल जेहादी सेना की हवस पूर्ति का साधन बनती थी। इसके अतिरिक्त उस गाँव के गाय, भैंस तथा अन्य पशु उस राक्षसी सेना का आहार बनते थे। बाराबंकी से अयोध्या के रास्ते गाजी की सेना लगातार काशी की ओर बढ़ रही थी। काशी से लगभग ३० कोस उत्तर में ही रात हो जाने के कारण गाजीमियाँ ने वहीं अपना तम्बू गाड़ दिया। जिस स्थान पर गाजीमियाँ ने अपना तम्बू गाड़ा  वहाँ पर शिवजी का एक भव्य मंदिर था। कहा जाता है उस स्थान पर भक्तों की हर मनोकामना पूरी होती थी। मन की इच्छा पूर्ति होने के कारण ही उस शिवालय का नाम (मन+इच्छा) मनेच्छा महादेव पड़ा था। गाजीमियाँ ने वहाँ पहुँचकर सबसे पहले शिवजी के मंदिर को ध्वस्त किया और फिर उसके आस-पास के हिन्दुओं को जबरन मुसलमान बनाकर पशुओं को मारकर रात्रि विश्राम किया। संयोगकी बात है कि भारशिवि वंश के महान शिवभक्त श्रावस्ती नरेश राजा सुहेलदेव जो प्रत्येक वर्ष गंगा सप्तमी (वैशाख शुक्ल सप्तमी) को गंगा जी के जल से काशी विश्वनाथ का अभिषेक किया करते थे, अपनी छोटी सी सेना के साथ काशी से पूजन-अर्चन कर लौट रहे थे। काशी से २० कोस उत्तर में महर्षि जमदग्नि आश्रम के पास गोमती के तट पर उन्होंने सायंकाल अपना डेरा डाल दिया था, यह सोचकर कि प्रातः काल गोमती नदी पार की जायेगी। राजा सुहेलदेव ने आगे रास्ते में मे सुरक्षा की दृष्टि से अपने गुप्तचरों को गोमती के उस पार उत्तर की ओर भेज दिया। राजा सुहेलदेव और उनकी सेना रात्रि भोजन की तैयारी में जुट गये। अचानक गुप्तचरों ने आकर सूचना दी कि गोमती के १० कोस उत्तर में गाजीमियाँ नाम के खूंखार आतंकी ने अपना तम्बू गाड़ रखा है। उसके पास बहुत बड़ी जेहादी सेना है। इतना सुनते ही राजा सुहेलदेव ने तत्काल अपनी सेना को गोमती पार करने का आदेश दिया। राजा सुहेलदेव जानते थे कि सुबह होने पर गाजी को उसकी विशाल सेना के साथ हरा पाना सम्भव नहीं है।
इधर गाजी की सेना मनेच्छा के तम्बू में सो रही थी और उधर राजा सुहेलदेव अपनी सेना के साथ तेजी से बढ़े आरहे थे। गाजी को किसी अनिष्ट की आशंका नहीं थी, अतः वह अपनी सेना के साथ निश्चिंत होकर सो रहा था। राजा सुहेलदेव की सेना ने हरहर महादेव कहते हुए गाजी की सोयी हुयी सेना को गाजर-मूली की तरह काटना शुरू कर दिया। रात को अचानक हुए इस हमले मे गाजी की आधी सेना नष्ट हो गयी। मनेच्छा की इसी लड़ाई मे गाजी का बाप सालार शाह मारा गया। बाकी की बची सेना के साथ गाजी अपनी जान बचाकर उत्तर की ओर भागा। सुबह हो चुकी थी। मनेच्छा के उत्तर (वर्तमान में खेतासराय) में गाजी की भागती हुई सेना को राजा सुहेलदेव के वीर सैनिकों ने कुछ स्थानीय (अगल-बगल के गाँवों के) हिन्दू वीरों की सहायता से एकबार फिर चारों ओर से घेर लिया। अपनी जान बचाने के लिए गाजी की सेना ने भी पूरी ताकत से युद्ध किया, लेकिन राजा सुहेलदेव को तो स्थानीय हिन्दुओं का समर्थन मिल चुका था। जिस स्थान पर ये लड़ायी हुयी वह स्थान तुर्कों की लाशों से पट गया। अनेकों हिंदू वीर भी वीरगति को प्राप्त हुए। कहा जाता है कि धर्म और अधर्म के इस युद्ध मे उस समय "मानीकलाँ निवासी पंडित टूटेवीर उपाध्याय" भी राजा सुहेलदेव की ओर से लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए। लड़ाई का वह मैदान योद्धाओं के रक्त से लाल हो गया। धर्म और अधर्म के इस युद्ध की तुलना लोगों ने कुरुक्षेत्र (महाभारत) के युद्ध से की। तब से यह स्थान करूक्षेत्र के नाम से विख्यात हो गया। वर्तमान मे गुरखेत नाम इसी कुरूक्षेत्र का ही तद्भव रूप है। यहाँ से किसी तरह जान बचाकर गाजी अपनी शेष सेना के साथ उत्तर की ओर भागा, वह बाराबंकी स्थित अपनी सतरिख सैन्य छावनी तक पहुँचना चाहता था लेकिन राजा सुहेलदेव उसे श्रावस्ती की ओर ले जाना चाहते थे। अतः भागते-भागते गाजी बहराइच पहुँचा। सूचना पाकर गाजी की सेना ने बाराबंकी से बहराइच पहुँचकर गाजी की सहायता की। अब तो गाजी के पास राजा सुहेलदेव की अपेक्षा बहुत बड़ी जेहादी सेना थी। राजा सुहेलदेव ने भी आस-पास के हिन्दू राजाओं से धर्म के नाम पर सहायता माँगी। सभी हिन्दू राजाओं ने एक मत होकर राजा सुहेलदेव के नेतृत्व में गाजी की सेना से युद्ध किया। धर्म की जीत हुयी। अपनी सम्पूर्ण जेहादी सेना के साथ गाजी भी मारा गया। धर्म की विजय हुई थी, अतः वहाँ पर विजय उत्सव मनाया गया। उस समय हिन्दुओं की एकता को देखकर १५० वर्षों तक किसी मुस्लिम आक्रांता ने भारत की ओर आँख उठाकर देखने का भी दुस्साहस नहीं किया। कालान्तर में पुनः भारत पर तुर्कों का आक्रमण हुआ। इन तुर्कों ने राजा सुहेलदेव के विजय उत्सव को गाजी के विवाह उत्सव मे परिवर्तित कर दिया और बड़ी ही चालाकी से गाजी को देवता के रूप में प्रचारित करना प्रारम्भ कर दिया। साथ ही साथ यह भी अन्धविश्वास फैलाया कि गाजी की मजार पर आने वालों की सभी इच्छायें पूरी होती हैं। अन्धे, लूले-लंगड़े, कोढ़ी आदि ठीक हो जाते हैं। बाँझों को पुत्र मिल जाता है। इस प्रकार एक हत्यारा, बलात्कारी, कुकर्मी गाजी, गाजीबाबा के नाम से पूजा जाने लगा। गाजी की पूजा देखकर दुःखी तुलसीदास हिन्दुओं को समझाने का प्रयास करते हुए दोहावली में लिखते हैं--
लही आँख कब आन्हरो, बाँझपूत कब पाय।
कब कोढ़ी काया लही, जग बहराइच जाय।।

अब आप ही बतायें कि हमें क्या करना चाहिए, हमारी अपनी ही माँ-बहनों के बलात्कारी गाजीमियाँ की पूजा या हिन्दू हृदय सम्राट, राष्ट्रवीर, धर्मरक्षक राजा सुहेलदेव की जय-जयकार??
                                     --डॉ दिलीप कुमार सिंह/भास्कर तिवारी
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आलोक- कृपया इस सन्देश को अधिकाधिक साझा करके सभी हिन्दु भाईयों तक पहुँचाने मे अपना योगदान दें।

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