Sunday 21 May 2023

ई मोहम्मद तुगलक-टू न कहो मेरे...!**(व्यंग्य : राजेन्द्र शर्मा)*

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: (अच्छा लगे, तो मीडिया के साथी *राजेन्द्र शर्मा* का यह व्यंग्य ले सकते हैं। सूचित करेंगे, तो खुशी होगी।)

*ई मोहम्मद तुगलक-टू न कहो मेरे...!*
*(व्यंग्य : राजेन्द्र शर्मा)*

सुनी-सुनी, मोदीजी के लिए विपक्ष वालों की 92वीं गाली सुनी। बताइए, मोहम्मद तुगलक कह रहे हैं, मोहम्मद तुगलक! हिंदू हृदय सम्राट को मोहम्मद कहना...यह अगर गाली नहीं है, तो और क्या है? माना कि मोहम्मद तुगलक भी कोई ऐरा-गैरा नहीं था, बाकायदा सुल्तान था। मोदी जी की तरह, उसका भी राज चलता था। और राज भी कोई छोटा-मोटा नहीं था, अच्छा खासा लंबा चौड़ा था। राज मामूली होता, तो बंदे को राजधानी दिल्ली से दौलताबाद ले जाने की क्योंकर सूझती। पर प्लीज ये मत समझिएगा कि हम तुगलक की किसी भी तरह से मोदी से बराबरी कर रहे हैं। उल्टे हम तो इतिहास की किताबों से तुगलक वंश को भी हटाए जाने तक की हिमायत करने को तैयार हैं। न रहेगा तुगलक वंश और न उठेगा मोदी की मोहम्मद तुगलक से, किसी भी तरह की बराबरी करने का सवाल। हां! हमें यह जरूर लगता है कि मोहम्मद तुगलक को इतिहास से पूरी तरह से गायब करने के बजाए शायद उसके शेखचिल्ली वाले सत्यानाशी कारनामों को बच्चों का याद दिलाते रहने से हम ज्यादा एडवांटेज ले सकते हैं। बल्कि जैसा कि हरियाणा का एक स्कूल मास्टर पढ़ाता था, हम तो यह पढ़ाकर डबल-डबल एडवांटेज ले सकते हैं कि मोहम्मद तुगलक एक पढ़ा-लिखा मूर्ख बादशाह था। तुगलक भी मूर्ख और पढ़ा लिखा भी मूर्ख -- एक तीर से दो-दो शिकार! खैर! मोहम्मद तुगलक को इतिहास में रहने देना है या उड़ा ही देना, उसका संघ का फैसला अपनी जगह, मोदी जी को मोहम्मद तुगलक कहना, बेशक 92वीं गाली है। जब से मोदी जी की ‘मन की बात’ की जरा धूम-धाम से सेंचुरी मनायी गयी है, विरोधियों ने न जाने क्यों यह मान लिया है कि अब बस मोदी जी के लिए गालियों की सेंचुरी का ही सेलिब्रेशन होना बाकी है। तभी तो गुजरात के चुनाव प्रचार में मोदी जी के 91 गालियां हो जाने का एनाउंसमेंट करने के बाद मुश्किल पंद्रह दिन भी नहीं गुजरे हैं, कर्नाटक में सरकार का शपथग्रहण तक नहीं हुआ है, पर भाई लोगों ने गालियों का स्कोर, आठ कम सैकड़ा पर पहुंचा भी दिया!

और मोदी जी को मोहम्मद तुगलक की गाली दी क्यों जा रही है? सिर्फ इसलिए कि मोदी जी ने एक बार फिर नोटबंदी करने का एलान किया है। और वह भी तब, जबकि इस बार तो मोदी जी ने खुद एलान तक नहीं किया है। जब रिजर्व बैंक के आला अफसर दिल्ली में नोटबंदी-टू का एलान कर रहे थे, तब मोदी जी तो जापान में भारतीयों की मोदी-मोदी की पुकार सीधे अपने कानों से सुनकर और आंखों से देखकर, गदगद होकर दिखा रहे थे। आठ बजे के राष्ट्र के नाम संबोधन में, चार घंटे बाद नोटों के चलन से बाहर हो जाने के एलान के बिना, नोटबंदी भी कोई नोटबंदी है, लल्लू! वैसे भी इस बार सिर्फ दो हजार के नोटों की छुट्टी की जा रही है। ऊपर से नोट बदलवाने के लिए महीनों की मोहलत और एक बार में दस-दस नोटों का छुट्टा कराने की इजाजत। बैंकों के बाहर पब्लिक की मामूली लाइनें तक नहीं। फिर भी दुनिया के सबसे लोकप्रिय नेता को तुगलक की गाली दी जा रही है। दुनिया भर की जनता जनमत पोल में और भारत की जनता अगले सभी चुनावों में, अपनी शान बढ़ाने वाले पीएम को दी गयी इस गाली का जरूर जवाब देगी। कर्नाटक वालों ने जो गलती की है, उसे भला बाकी देश-विदेश की पब्लिक क्यों दोहराएगी? बल्कि हमें तो लगता है कि एक बार गलती कर के कर्नाटक वाले भी अब पछताएंगे और 2024 के चुनाव में जरूर बाकी सब छोडक़र, मोदी जी को मिली गालियों का जवाब देने के लिए मोर्चा जमाएंगे।

खैर! फिर से नोटबंदी करने के फैसले में लॉजिक नहीं होने की बात कम से कम वे एंटी-नेशनल और एंटी-हिंदू नहीं ही करें, जो इस फैसले के लिए मोदी जी को मोहम्मद तुकलक-टू वगैरह, कह रहे हैं। मोदी जी की नोटबंदी के तो दर्जनों लॉजिक हैं, पर क्या उनके मोदी जी को तुगलक कहने का कोई लॉजिक है। माना कि मोहम्मद तुगलक ने भी नोटबंदी करायी थी। लेकिन, तुगलक की नोटबंदी से, मोदी जी की नोटबंदी से तुलना ही कैसे की जा सकती है? सुनते हैं कि तुगलक ने सोने-चांदी के सिक्के बंद करवा कर, तांबें के सिक्के चलवाए थे। पर बेचारे मोदी जी को तो बंद करवाने और चलवाने, दोनों के लिए कागज के ही नोट मिले थे। सो पहले पांच सौ और हजार के नोट बंद कराए और पांच सौ और दो हजार के नोट चलवाए। और अब दूसरी पारी में दो हजार का भी नोट बंद करा रहे हैं और बाकी क्या चलवाएंगे या नहीं चलवाएंगे अभी पता नहीं, पर 100 रूपये का मन की बात का सिक्का जरूर चलवा रहे हैं। यानी मोदी जी बाकी सब मामलों में ही नहीं, करेंसी के मामले में भी भारत को दो-चार सौ साल प्राचीनता की ओर ही ले जा रहे हैं। उनकी किसी सुल्तान तुगलक से कैसी तुलना।

वैसे भी क्या सिर्फ एक लक्षण मिलाकर कि तुगलक ने भी नोटबंदी की थी और मोदी जी ने भी नोटबंदी की है, दोनों को एक जैसा बता दिया जाएगा! अब इसे दूसरा लक्षण कहना तो सरासर खींच-खाच ही माना जाएगा कि जैसे तुगलक ने दिल्ली से राजधानी का तबादला किया था, वैसे ही मोदी जी ने भी राजधानी का तबादला किया है। मोदी जी ने पुराने सेंट्रल विस्टा को, नये सेंट्रल विस्टा से बदलवाया है, कुछ नाम वगैरह बदलवाए हैं, पर इसे राजधानी बदलना नहीं कह सकते। एक और लक्षण यह मिलाने की कोशिश की जा रही है कि मोदी जी भी अपने मन की ही करते हैं, ऐसे ही तुगलक भी अपने मन की ही करता था। पर इसका तो कोई सबूत नहीं है। दोनों ने अपने फैसलेे अचानक जनता पर थोपे जरूर थे और उनसे भारी तबाही भी हुई, लेकिन इसका कोई उल्लेख बदले जाने वाले से पहले के इतिहास में नहीं मिलता है कि तुगलक बिना किसी से पूछे-ताछे, अपने मन से फैसले लेता था।

और रही तुगलक के सत्यानाशी फैसले लेकर उन्हें बाद में वापस लेने की कोशिश में और तबाही करने की बात, तो उसका तो मोदी जी से दूर-दूर तक कोई मेल नहीं बैठता है। मोदी जी फैसला लेने के बाद, उसे वापस कभी नहीं लेते हैं। 56 इंच की छाती वाले, फैसले गलत साबित हों तब भी, उन्हें वापस नहीं लेते हैं। तुगलक राजधानी को दिल्ली से दक्षिण में ले गया और बाद में दक्षिण से दिल्ली वापस लाया, इससे नोटबंदी के बाद अब नोटबंदी-टू आने को जबर्दस्ती क्यों मिलाया जा रहा है। नोटबंदी-2, नोटबंदी-1 की गलती का वापस लिया जाना किसी भी तरह नहीं है। उल्टे यह तो नोटबंदी की वापसी है, नये नोट के साथ। मोदी जी अगर 2024 में फिर लौट आए, तो नोटबंदी-3 का भी आना पक्का समझना चाहिए।

*(इस व्यंग्य लेख के लेखक वरिष्ठ पत्रकार और 'लोकलहर' के संपादक हैं।)*
: (अच्छा लगे, तो मीडिया के साथी *राजेन्द्र शर्मा* का यह व्यंग्य ले सकते हैं। सूचित करेंगे, तो खुशी होगी।)

*वही आएगा... ब्रेक के बाद!*
*(व्यंग्य : राजेन्द्र शर्मा)*

हो लें एंटीनेशनल कर्नाटक के नतीजे पर खुश। और अब तो इनके सीएम का भी फैसला हो गया। न कोई टूटा, न कोई फूटा। हो लें, इस पर भी खुश। बल्कि किसी बड़ी-सी जगह पर पब्लिक और सारे एंटीनेशनल नेताओं की खूब भीड़ जुटाकर, मना लें जीत की खुशी। पर हम से लिखाकर ले लो, ये जीत की खुशी बस चार दिन की है। पर बस चार दिन। अंत में आएगा तो मोदी ही!

ठीक है इस बार कर्नाटक की पब्लिक ने एंटीनेशनलों को भर-भर कर सीटें दी हैं। यह भी ठीक है कि कर्नाटक वालों को भी इस बार बाकी दक्षिणवालों वाली हवा लग गयी और लगे रंग बदलने, जैसे खरबूजे को देखकर खरबूजा बदलता है। बेचारे देशभक्तों को सीटें देने में इतनी कंजूसी कर दी कि देशभक्तों की सीटें, एंटीनेशनलों से आधी से भी कम कर दीं। ठीक है कि पब्लिक ने अपनी तरफ से एंटीनेशनलों को इतनी सीटें दे दी हैं कि पांच साल सरकार की गाड़ी आराम चल सकती है। पर चलेगी नहीं। चल तो पिछली बार भी सकती थी; पर चली क्या? फिर इस बार ही ऐसा क्या हो जाएगा! अब भी ईडी, सीबीआइ हैं कि नहीं। अब भी ऑपरेशन लोटस चलता है या नहीं? अब भी चुनावी बांड के गुप्त धन का पनाला चल रहा है कि नहीं? अब भी गवर्नर आज्ञाकारी हैं कि नहीं? अब भी असम से लेकर मुंबई तक, देशभक्तों वाले भारत में रिसॉर्ट खुले हैं कि नहीं? मीडिया गोदीसवार है कि नहीं? फिर पब्लिक के ज्यादा सीटें देने से ही कैसे चल जाएगी? ज्यादा सीटें भी ऐसी क्या ज्यादा हैं कि देशभक्तों की सीटों से कम हो ही नहीं सकती हैं? जहां चाणक्य की चाह है, वहां राह जरूर है। आखिर में, आएगा तो मोदी ही।

और प्लीज, विरोधियों की इस अफवाह पर कोई यकीन न करे कि कर्नाटक की पब्लिक ने एंटीनेशनलों को इतनी सीटें इसीलिए दी हैं कि अंत में, मोदी न आ जाए। यह एकदम गलत है। इसमें लॉजिक ही नहीं है। पब्लिक ने एंटीनेशनलों को ज्यादा सीटें इसलिए दी हैं, जिससे देशभक्तों को ज्यादा सीटें खरीदनी पड़ें। ज्यादा सीटें, यानी ज्यादा रेट। ज्यादा सीटें यानी ज्यादा लोगों की खुशहाली। बड़े चंट निकले कन्नडिगा। पर अंत में डबल इंजन आएगा, तभी न इतनी खुशहाली  लाएगा। 

*(व्यंग्यकार वरिष्ठ पत्रकार और साप्ताहिक 'लोकलहर' के संपादक हैं।)*

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