Friday 26 July 2024

तोपों की भी अपनी कहानी होती है। तोप कहाँ से चले, कहाँ पहुंचे, इसे देखते ही युद्धों के चलने-पलटने का बहुत कुछ पता चलता है। जो प्रसिद्ध सा शेर बहादुर शाह जफर को सुनाने के लिए याद किया जाता है – “दमदमे में दम नहीं...”

तोपों की भी अपनी कहानी होती है। तोप कहाँ से चले, कहाँ पहुंचे, इसे देखते ही युद्धों के चलने-पलटने का बहुत कुछ पता चलता है। जो प्रसिद्ध सा शेर बहादुर शाह जफर को सुनाने के लिए याद किया जाता है – “दमदमे में दम नहीं...” उसमें जो दमदमा होता है, वो मुगल तोप होती थी। ऐसी ही एक प्रसिद्ध तोप थी “बसीलिक”। इस तोप का किस्सा तब शुरू होता है, जब तोपों का दौर शुरू ही हुआ था। कांस्टेंटीनोपोल पर उस समय कांस्टेंटीन (ग्यारहवें) का शासन था और ओर्बन (या अर्बन) नाम का एक अभियंता (लोहार) कांस्टेंटीन के पास पहुंचा। वो बहुत सी तोपों का नक्शा साथ लेकर आया था और उन तोपों को कांस्टेंटीन के लिए बनाना चाहता था। समस्या ये थी कि तोपें उस समय नयी चीज थी, और कांस्टेंटीन को समझ नहीं आया कि इस विचित्र नए हथियार का उसके लिए क्या उपयोग है?

ये 1452 का दौर था और तीर-तलवार लिए सेनाएं उस समय में आमने सामने लड़ती थीं। ये काफी कुछ भारत के ही जैसी समझ थी, जिसमें वीरतापूर्वक शत्रु से आमने सामने लड़ेंगे, इतनी दूर से ही दुश्मन को मार गिराने में क्या बहादुरी है, वाली सोच आती थी। नहीं लेना नया हथियार वाली सोच में कांस्टेंटीन बिलकुल भारतीय लोगों जैसे ही थे, बस उनका कारण ये था कि इतना महंगा हथियार क्यों लें? एक लोहार को इतने-इतने पैसे भला क्यों दिए जाएँ? फिर कांस्टेंटीन को ये भी लगता था कि कांस्टेंटीनोपोल की दीवारें इतनी मोटी हैं कि कोई सेना उसे भेद नहीं सकती। कांस्टेंटीन (ग्यारहवें) के पास से निराश होकर ओर्बन महमद द्वित्तीय के पास गया। उथमान (ऑट्टोमन) सल्तनत का महमद द्वित्तीय उस समय कांस्टेंटीनोपोल पर ही हमले की तैयारी कर रहा था।

महमद द्वित्तीय ने ओर्बन को मुंहमांगी रकम दी और तोपें तैयार करने कहा। दूसरी छोटी तोपों के साथ एक बड़ी तोप बसीलिक इस तरह बनकर तैयार हुई। इस तोप को बनाने में ओर्बन को केवल तीन महीने लगे थे। पुराने दौर की तोप थी, दागते ही गर्म हो जाती थी, इसलिए इसे दिन में तीन बार ही चलाया जा सकता था। ठंडा करने के लिए इसपर तेल इत्यादि डालते थे। इस 24 फीट लम्बी तोप को खींचकर यहाँ-वहाँ ले जाने के लिए 60-90 बैल और सैंकड़ों लोग लगते थे। ये तोप करीब 550 किलो का गोला, डेढ़ किलोमीटर दूर, निशाने पर दाग सकती थी। पांच-पांच सौ किलो के गोले जिस दिवार पर दागे जा रहे हों, वो कितनी देर टिकेगी, इसका अनुमान लगाना कठिन नहीं है। अगले वर्ष यानी 29 मई 1453 में कांस्टेंटीनोपोल से बायजेंटीन साम्राज्य का अंत हो गया। करीब 53 दिनों की लड़ाई के बाद कांस्टेंटीन (ग्यारह) युद्ध हारकर, संधि में अपना सबकुछ उथमान साम्राज्य को सौंपकर रवाना हुआ।

युद्ध है तो हथियार बदलते हैं। हथियार बनाने-चलाने वाले मुफ्त में भी नहीं आते। फोर्थ जनरेशन वॉरफेयर में सुचना क्रांति का युद्ध होता है। इसमें नैरेटिव बिलकुल तोपों की तरह ही काम करता है। न नैरेटिव बनाना सस्ता काम होता है, न उसे चलाना। कांवड़ यात्रा में दुकानों पर नाम लिखना हो या बिहार के विशेष राज्य के दार्जे की मांग, सब नैरेटिव की लड़ाइयाँ हैं। तोपें बनाने-चलाने वाले आपकी तरफ होंगे या विपक्षी की तरफ, ये तो आपको ही तय करना है!

#Cannon #Narrative
#FourthGenerationWarfare

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