कलि प्रथम चरण में विलुप्त हो रहे एवं विकृतावस्था प्राप्त हो रहे वैदिक विज्ञान को शुद्ध कर वैदिक वांगमय को अपनी असाधारण मेधा से पुन: समृद्ध कर अविकृतावस्था में स्थापित करने वाले। चतुष्पीठ संस्थापक भगवान् शंकराचार्य के रूप मे भर्ग नाम से कहे जाने वाले शिव स्वयं स्वयं अवतरित हुए।
सर्गे प्राथमिके प्रयाति विरतिं मार्गे स्थिते दौर्गते
स्वर्गे दुर्गमतामुपेयुषि भृशं दुर्गेऽपवर्गे सति।
वर्गे देहभृतां निसर्ग मलिने जातोपसर्गेऽखिले
सर्गे विश्वसृजस्तदीयवपुषा भर्गोऽवतीर्णो भुवि। ।
सनकादि महर्षियों का प्राथमिक सर्ग जब उपरति को प्राप्त हो गया वैदिक सन्मार्ग की दुर्गति होने से स्वर्ग दुर्गम होने एवं अपवर्ग अगम होने पर इस भूतल पर भगवान भर्ग (शिव) शंकर रूप से अवतीर्ण हुऐ।
निन्दन्ति वेदविद्यांच द्विजा: कर्माणि वै कलौ।
कलौ देवो महादेव: शंकरो नीललोहित:। ।
प्रकाशते प्रतिष्ठार्थं धर्मस्य विकृताकृति:।
ये तं विप्रा निषेवन्ते येन केनापि शंकरम्। ।
कलिदोषान्विनिर्जित्य प्रयान्ति परमं पदम्।
--- लिंगपुराण
कलि में ब्राह्मण वेदविद्या और वैदिक कर्मों की जब निन्दा करने लगते हैं, रुद्र संज्ञक विकटरुप नीललोहित महादेव धर्म की प्रतिष्ठा के लिये अवतीर्ण होते हैं। जो ब्राह्मणादि जिस किसी उपाय से उनका आस्था सहित अनुसरण सेवन करते हैं। वे परमगति को प्राप्त होते हैं।
भविष्योत्तर में कलि के दो सहस्र वर्ष बीतने पर शिव का शंकरावतार उनके चार शिष्यों के साथ होने का वर्णन् है।
कल्यब्दे द्विसहस्रान्ते लोकानुग्रह काम्यया ।
चतुर्भिः सह शिष्यैस्तु शङ्करोऽवतरिष्यति ।।
भगवान् भाष्यकार का अवतरण वैशाख शुक्ल पंचमी को अभिजित् मुहूर्त में मध्याह्नकाल में नन्दन नामक सम्वत्सर में युधिष्ठिर सम्वत् २६३१ , ईसापूर्व ५०७ वर्ष, कलिसम्वत् २५९५ को केरल के कालटी नामक स्थान में हुआ था। इनके पिताहम का नाम श्रीविद्याधिराज एवं पिता का ना श्रीशिवगुरु था। जो कि भैदवदत्त के नाम से भी कहे जाते हैं। इनकी माता का राम सती आर्याम्बा था। इनके माता पिता ने वृद्धावस्था में पुत्ररत्न प्राप्ति हेतु शिवशक्ति की अराधान की थी। फलस्वरूप शिवभगवान ने स्वयं अल्पायु पुत्र के रूप में अवतीर्ण होने का वर दिया था। शिवानुग्रह सुलभ होने से इनका नाम शंकर रखा गया।
भगवान् का अवतरण होने पर भगवान् पद्मनाभ विष्णु स्वयं विमल नामक ब्राह्मण के यहां अवतीर्ण हुए जिनका नाम कालान्तर में पद्मपाद हुआ। आचार्य के प्रिय शिष्यों में से एक पद्मपाद ने भेदवादियों के सारे वादों को अपनी विलक्षण मेधा से निरस्त कर पंचपादिका ग्रन्थकार के रूप में विमल यश अर्जित किया।
वायुदेव याज्ञिक प्रभाकर के पुत्र हो हस्तामलक नाम से प्रसिद्ध आचार्य के शिष्य हुए।
वायुदेव ही अपने अंश से विद्वान बा्रह्मण के यहां तोटक नाम से प्रसिद्ध आचार्य के शिष्य हुए।
नन्दी उदंक नाम से अवतरित हुए।
देवगुरु बृहस्पति स्वयं आनन्दगिरि नाम से अवतरित हुए जिन्होंनं भगवान् भाष्यकार के भाष्यों पर अत्यन्त विद्वतापूर्ण टीकायें लिखि। वरुण स्वयं चित्सुख नाम से अवतरित हुए एवं चित्सुखी की रचना की।
ब्रह्माजी मण्डनमिश्र नाम से अवतरित हो कालान्तर में आचार्य का शिष्यत्व ग्रहण कर सुरेश्वरचार्य नाम से विख्यात हुए। जिनकी ख्याति भाष्यवार्तिक के कारण आज भी अक्षुण्ण है।
भगवती सरस्वती स्वयं उभयभारती नाम से अवतरित हो मण्डनमिश्र की अर्धांगिनि हुई।
देवराज इन्द्र स्वयं सार्वभौम सुधन्वा राजा हुए। विविध देववृन्द भारत में भगवान् शंकर के सहयोग हेतु ब्राह्मणकुलों में अवतीर्ण हुए।
वायु एवं सौरपुराण में स्पष्ट वर्णन है कि
चतुर्भि: सह शिष्यैस्तु शंकरोवतरिष्यति।
व्याकुर्वन् व्याससूत्राणि श्रुतेरर्थं यथोचितम्।।
कलिकाल में भगवान् शिव व्यासूत्र एवं श्रुतियों के यथोचित अर्थ उद्भासित करने के लिए स्वयं अपने चार शिष्यों के साथ अवतरित होंगे।
व्याकुर्वन् व्याससूत्रार्थं श्रुतेरर्थं यथोचिवान्।
श्रुतेर्न्याय: स एवार्थ: शंकर: सवितानन:। ।
--- शिवपुराण-रुद्रखण्ड
सूर्यसदृश प्रतापी श्री शिवावतार आचार्य शंकर श्री बादरायण वेदव्यासविरचित ब्रह्मसूत्रों पर श्रुतिसम्मत युक्तियुक्त भाष्य संरचना करते हैं।
भगवान् भाष्यकार ने अत्यल्प काल में ही ब्रह्मसूत्र, श्रुतियों एवं भगवद्गीता पर भाष्यकर भेदवादियों द्वारा तिरस्कृत कर दिये गये श्रुतियों के मूलसार अद्वैत को, दिग्विजय कर सारे वादियों को स्तम्भित कर, पुनर्सिहांसानारूढ कर श्रुतियों की महिमा चतुर्दिक्ष फैलायी। आठ वर्ष की आयु में चारों वेदों में निष्णात हो गए, बारह वर्ष की आयु में सभी शास्त्रों में पारंगत, सोलह वर्ष की आयु में भाष्य पूर्ण किये ३२ वर्ष तक दिग्विजय कर सभी को शास्त्रार्थ कर परास्त किया।
कलिकल्मष को विनष्ट करने वाले सभी भाष्यों को ३२ वर्ष की अवस्था में पूर्ण कर, अद्वैत को श्रुतिसार रूप में पुन: स्थापित कर अपने अवतार का प्रयोजन पूर्ण केदारक्षेत्र पधारे। ये जान कि उनके अवतार का प्रयोजन पूर्ण उन्हें लेने के लिए रम्य कैलाशशिखर पर स्वयं श्रीविष्णु, ब्रह्मा, इन्द्र, अग्नि, वायु आदि देवगण सिद्धों सहित इकट्ठे हुए। देवताओं के दिव्य वाहनों से आच्छादित नभोमण्ड अत्यन्त सुरम्य दृष्टिगोचर हुआ। सभी ने यतिरूप भगवान् शंकर की पारिजात पुष्पों से पूजा अर्चना की एवं स्वधामगमन के लिए प्रार्थना की। उनकी स्तुति से प्रसन्न हो भगवान् शंकर ने स्वधामगमन की इच्छा की तो उसी समय शैलादि प्रमथगणों से सुसज्जित नन्दी भगवान् समुख उपस्थित हो गया। ब्रह्मा जी के कन्धे का सहार ले भगवान् शंकर नन्दी पर सवार हो युधिष्ठिरशक २६६२ को अपना लीलासंवरण कर स्वधाम चले गये
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