Wednesday 29 March 2023

महाभारत_और_इतिहास_6#द्वारका_श्री_कृष्ण_की_समुंद्र_में_डूबी_नगरी_6🚩द्वारका अर्थात् कई द्वारों का शहर… संस्कृत में इसे ‘द्वारवती’ कहा गया। इसी कारण इसका नाम द्वारका पड़ा। यह भगवान कृष्ण की राजधानी थी,

#महाभारत_और_इतिहास_6
#द्वारका_श्री_कृष्ण_की_समुंद्र_में_डूबी_नगरी_6
🚩द्वारका अर्थात् कई द्वारों का शहर… संस्कृत में इसे ‘द्वारवती’ कहा गया। इसी कारण इसका नाम द्वारका पड़ा। यह भगवान कृष्ण की राजधानी थी, जिसकी स्थापना मथुरा से पलायन के बाद की थी। इस शहर के चारों तरफ ऊंची-ऊंची दीवारें थी, जिनमें कई सौ दरवाजे थे। द्वारका को द्वारावती, कुशस्थली, आनर्तक, ओखा-मंडल, गोमती द्वारका, चक्रतीर्थ, अंतरद्वीप, वारिदुर्ग, उदधिमध्यस्थान के नाम से भी जाना जाता है। गुजरात के दक्षिण-पश्चिम कोने में स्थित समुद्र किनारे चार धामों में से एक धाम और 7 पवित्र पुरियों (द्वारका, मथुरा, काशी, हरिद्वार, अवंतिका, कांची और अयोध्या) में से एक पुरी है। वर्तमान में दो द्वारका हैं, एक गोमती द्वारका, दसूरी बेट द्वारका। गोमती द्वारका ‘धाम ‘है, जबकि बेट द्वारका ‘पुरी’ है। बेट द्वारका समुद्र के बीच एक टापू पर स्थित है। 
👉प्राचीन द्वारका एक पूर्ण नियोजित शहर था- कहा जाता है कि शहर को छह सेक्टरों में विभाजित किया गया था, जिसमें आवासीय और वाणिज्यिक क्षेत्र, चौड़ी सड़कें, बड़े-बड़े चौक, 7,00,000 महल जो सोने, चांदी और कीमती पत्थरों से बने थे, साथ ही कई सार्वजनिक सुविधाएं शामिल थीं। इसके अलावा वनस्पति उद्यान और झील भी थी। द्वारका में एक बड़ा हॉल जिसे सुधर्मा सभा कहा जाता था, यह वह स्थान था जहाँ सार्वजनिक सभाएं होती थीं। द्वारका में विशालकाय सभा मंडप था। शहर पानी से घिरे होने के कारण पुलों और बंदरगाहों के माध्यम से मुख्य भूमि से जुड़ा था।
महाभारत सभापर्व में द्वारका का विस्तृत वर्णन है जिसका कुछ अंश इस प्रकार है-- 
द्वारका के मुख्य द्वार का नाम वर्धमान था वर्धमानपुरद्वारमाससाद पुरोत्तमम्'
पद्यषंडाकुलाभिश्च हंससेवितवारिभि:
गंगासिंधुप्रकाशाभि: परिखाभिरंलंकृता।
प्राकारेणार्कवर्णेन पांडरेण विराजिता, 
वियन् मूर्घिनिविष्टेन द्योरिवाभ्रपरिच्छदा'
रम्यसनुर्महाजिर:, भाति रैवतक: शैलो
 पूर्वस्यां दिशिरम्यायां द्वारकायां विभूषणम्' महापुरी द्वारवतीं पंचाशद्भिर्मुखै र्युताम्
तीक्ष्णयन्त्रशतघ्नीभिर्यन्त्रजालै: समन्वितां आयसैश्च महाचक्रैर्ददर्श।।
अष्ट योजन विस्तीर्णामचलां द्वादशायताम् द्विगुणोपनिवेशांच ददर्श द्वारकांपुरीम्।
अष्टमार्गां महाकक्ष्यां महाषोडशचत्वराम् एव मार्गपरिक्षिप्तां साक्षादुशनसाकृताम्।।
साक्षाद् भगवतों वेश्म विहिंत विश्वकर्मणा, ददृशुर्देवदेवस्य-चतुर्योजनमायतम्, तावदेव च विस्तीर्णमप्रेमयं महाधनै:, प्रासादवरसंपन्नं युक्तं जगति पर्वतै:।
अर्थात्, द्वारका नगरी के सब ओर सुंदर उद्यानों में रमणीय वृक्ष शोभायमान थे, जिनमें नाना प्रकार के फलफूल लगे थे। यहां के विशाल भवन सूर्य और चंद्रमा के समान प्रकाशवान् तथा मेरु के समान उच्च थे। नगरी के चतुर्दिक चौड़ी खाइयाँ थी जो गंगा और सिंधु के समान जान पड़ती थी और जिनके जल में कमल के फूल खिले थे तथा हंस आदि पक्षी क्रीड़ा करते थे। सूर्य के समान प्रकाशित होने वाला एक परकोटा नगरी को सुशोभित करता था जिससे वह श्वेत मेघों से घिरे हुए आकाश के समान दिखाई देती थी , रमणीय द्वारकापुरी की पूर्वदिशा में महाकाय रैवतक नामक पर्वत (वर्तमान गिरनार) उसके आभूषण के समान अपने शिखरों सहित सुशोभित है।नगरी के दक्षिण में लतावेष्ट, पश्चिम में सुकक्ष और उत्तर में वेष्णुमंत पर्वत स्थित थे और इन पर्वतों के चतुर्दिक अनेक उद्यान थे। महानगरी द्वारका के पचास प्रवेश द्वार थे। शायद इन्हीं बहुसंख्यक द्वारों के कारण पुरी का नाम द्वारका या द्वारवती था। पुरी चारों ओर गंभीर सागर से घिरी हुई थी। सुन्दर प्रासादों से भरी हुई द्वारका श्वेत अटारियों से सुशोभित थी। तीक्ष्ण यन्त्र, शतघ्नियां , अनेक यन्त्रजाल और लौहचक्र द्वारका की रक्षा करते थे।
द्वारका की लम्बाई बारह योजना तथा चौड़ाई आठ योजन थी तथा उसका उपनिवेश (उपनगर) परिमाण में इसका द्विगुण था। द्वारका के आठ राजमार्ग और सोलह चौराहे थे जिन्हें शुक्राचार्य की नीति के अनुसार बनाया गया था।
द्वारका के भवन मणि, स्वर्ण, वैदूर्य तथा संगमरमर आदि से निर्मित थे। श्रीकृष्ण का राजप्रासाद चार योजन लंबा-चौड़ा था, वह प्रासादों तथा क्रीड़ापर्वतों से संपन्न था। उसे साक्षात विश्वकर्मा ने बनाया था। 
श्रीकृष्ण के स्वर्गारोहण के पश्चात् समग्र द्वारका, श्रीकृष्ण का भवन छोड़कर समुद्रसात हो गयी थी जैसा कि विष्णु पुराण के इस उल्लेख से सिद्ध होता है-'प्लावयामास तां शून्यां द्वारकां च महोदधि: वासुदेवगृहं त्वेकं न प्लावयति सागर:,(विष्णु 5,38,9)।
◾श्रीमद् भागवत में भी द्वारका का महाभारत से मिलता जुलता वर्णन है। इसमें भी द्वारका को 12 योजन के परिमाण का कहा गया है तथा इसे यंत्रों द्वारा सुरक्षित तथा उद्यानों, विस्तीर्ण मार्गों एवं ऊंची अट्टालिकाओं से विभूषित बताया गया है, 'इति संमन्त्र्य भगवान दुर्ग द्वादशयोजनम्, अंत: समुद्रेनगरं कृत्स्नाद्भुतमचीकरत्। दृश्यते यत्र हि त्वाष्ट्रं विज्ञानं शिल्प नैपुणम् , रथ्याचत्वरवीथीभियथावास्तु विनिर्मितम्। सुरद्रुमलतोद्यानविचत्रोपवनान्वितम्, हेमश्रृंगै र्दिविस्पृग्भि: स्फाटिकाट्टालगोपुरै:' (श्रीमद्भागवत 10,50, 50-52) वर्तमान बेटद्वारका श्रीक़ृष्ण की विहार-स्थली काही जाती है।
◾जैन सूत्र ‘अंतकृतदशांग’ में द्वारका के 12 योजन लंबे, 9 योजन चौड़े विस्तार का उल्लेख है तथा इसे कुबेर द्वारा निर्मित बताया गया है और इसके वैभव और सौंदर्य के कारण इसकी तुलना अलका से की गई है। रैवतक पर्वत को नगर के उत्तरपूर्व में स्थित बताया गया है। पर्वत के शिखर पर नंदन-वन का उल्लेख है। बहुत से पुराणकार मानते हैं कि कृष्ण अपने बड़े भाई बलराम, कृतवर्मा, सत्याकी, अक्रूर, उद्धव और उग्रसेन समेत 18 साथियों के साथ द्वारका आए थे। कृष्ण ने जब कंस का वध कर दिया, तब कंस के ससुर मगधिपति जरासंघ ने यादवों को खत्म करने का फैसला किया। वे मथुरा और यादवों पर बार-बार आक्रमण करते थे। इसलिए यादवों की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए कृष्ण ने मथुरा छोड़ने का निर्णय लिया। कृष्ण और उनके साथियों ने द्वारका आकर इस भूमि को रहने लायक बनाया था। एक अन्य मान्यता के अनुसार महाराजा रैवतक (बलराम की पत्नी रेवती के पिता) के समुद्र में कुश बिछाकर यज्ञ करने के कारण ही द्वारका का नाम कुशस्थली हुआ था। 
◾हरिवंश पुराण के अनुसार कुशस्थली उस प्रदेश का नाम था जहां यादवों ने द्वारका बसाई थी।
◾विष्णु पुराण के अनुसार आनर्त के रेवत नामक पुत्र हुआ जिसने कुशस्थली नामक पुरी में रह कर राज्य किया। विष्णु पुराण से सूचित होता है कि प्राचीन कुशावती के स्थान पर ही श्रीकृष्ण ने द्वारका बसाई थी।
◾महाभारत के अनुसार कुशस्थली रैवतक पर्वत से घिरी हुई थी-‘कुशस्थली पुरी रम्या रैवतेनोपशोभितम्’।
◾धरोहर विशेषज्ञ प्रो. आनंद वर्धन के अनुसार, महाभारत काल से अब तक पुराणों, धर्मग्रंथों एवं शोधकर्ताओं द्वारा किये गए अध्ययन में भगवान कृष्ण की द्वारका नगरी के प्रमाण मिले हैं। उन्होंने कहा कि महाभारत में एक जगह पर ‘‘द्वारका समासाध्यम’’ वर्णित है। विष्णु पुराण में भी एक स्थान पर ‘कृष्णात दुर्गम करिष्यामि’ का जिक्र किया गया है। इसमें कहा गया है कि भगवान कृष्ण की मृत्यु के बाद द्वारका समुद्र में समा गई थी।

♦️ द्वारका का समुंद्र में डूबना:-
द्वारका में श्रीकृष्ण ने 36 साल तक राज किया था लेकिन आखिर ऐसा क्या हुआ कि द्वारका नष्ट हो गई? 
श्रीकृष्ण के विदा होते ही द्वारका नगरी समुद्र में डूब गई और यादव कुल नष्ट हो गया, मान्यता है कि उस समय समुद्र में इतनी ऊंची लहरें उठी थीं द्वारका को एक ही बार में पानी में डूबो दिया था। श्रीमद्भागवतम् पुराण और अन्य शास्त्रों के अध्ययन के मुताबिक द्वारका वर्ष 3102 ई.पू. में डूबा था, जो आज से लगभग 5100 वर्ष है। 3102 ईसा पूर्व द्वापर युग का अंत और कलयुग का प्रारंभ हुआ था। सूर्य सिद्धांत के अनुसार, कलियुग 18 फरवरी 3102 ईसा पूर्व की मध्य रात्रि यानी 12 बजे से शुरू हुआ। धर्म ग्रंथों में यही वह तिथि मानी जाती है, जब श्रीकृष्ण बैकुंठ लोक लौट गए थे।
                    कुछ ब्रिटिश पुरातत्त्ववेत्ताओं के अनुसार जब हिमयुग समाप्त हुआ तो समद्र का जलस्तर बढ़ा और उसमें देश-दुनिया के कई तटवर्ती शहर डूब गए। द्वारिका भी उन शहरों में से एक थी। 
ग्रंथों के अनुसार द्वारका के नष्ट होने की मुख्य कारणों में यह है कि धृतराष्ट्र की पत्नी गांधारी और ऋषि दुर्वासा ने यदुवंश के नष्ट होने का श्राप दिया था जिसके चलते द्वारिका नष्ट हो गई थी। 18 दिनों के कुरुक्षेत्र युद्ध के बाद के दिनों में , भगवान कृष्ण गांधारी से मिलते हैं, जो स्त्री पर्व में वर्णित है । अपने पुत्रों और कौरव सैनिकों की मृत्यु पर क्रोध और शोक में, गांधारी ने कृष्ण को अपने पुत्रों की मृत्यु के समान सम्पूर्ण विनाश का श्राप दिया।  श्री कृष्ण ने शाप स्वीकार कर द्वारका लौट आए।
श्री कृष्ण के परपोते वज्रनाभ और दारुक (श्रीकृष्ण के सारथी) यादवों के अंतिम युद्ध में जीवित रह गए। श्रीकृष्ण ने दारुक से कहा कि तुम तुरंत हस्तिनापुर जाओ और अर्जुन को पूरी घटना बता कर द्वारका ले आओ। दारुक ने ऐसा ही किया। द्वारका आकर श्रीकृष्ण ने पूरी घटना अपने पिता वसुदेवजी को बता दी। उसके बाद श्री कृष्ण और बलराम अपना शरीर त्याग दिए।इधर दारुक ने हस्तिनापुर जाकर यदुवंशियों के संहार की पूरी घटना पांडवों को बता दी। यह सुनकर पांडवों को बहुत शोक हुआ। अर्जुन तुरंत ही अपने मामा वसुदेव से मिलने के लिए द्वारका चल दिए। अर्जुन जब द्वारका पहुंचे तो वहां का दृश्य देखकर उन्हें बहुत शोक हुआ। श्रीकृष्ण की रानियां उन्हें देखकर रोने लगी। उन्हें रोता देखकर अर्जुन भी रोने लगे और श्रीकृष्ण को याद करने लगे। इसके बाद अर्जुन वसुदेवजी से मिले। अर्जुन को देखकर वसुदेवजी बिलख-बिलख रोने लगे। वसुदेवजी ने अर्जुन को श्रीकृष्ण का संदेश सुनाते हुए कहा कि द्वारका शीघ्र ही समुद्र में डूबने वाली है अत: तुम सभी नगरवासियों को अपने साथ ले जाओ। वसुदेवजी की बात सुनकर अर्जुन ने दारुक से सभी मंत्रियों को बुलाने के लिए कहा। मंत्रियों के आते ही अर्जुन ने कहा कि मैं सभी नगरवासियों को यहां से इंद्रप्रस्थ ले जाऊंगा, क्योंकि शीघ्र ही इस नगर को समुद्र डूबा देगा। अर्जुन ने मंत्रियों से कहा कि आज से सातवे दिन सभी लोग इंद्रप्रस्थ के लिए प्रस्थान करेंगे इसलिए आप शीघ्र ही इसके लिए तैयारियां शुरू कर दें। सभी मंत्री तुरंत अर्जुन की आज्ञा के पालन में जुट गए। अर्जुन ने वह रात श्रीकृष्ण के महल में ही बिताई। अगली सुबह श्रीकृष्ण के पिता वसुदेवजी ने प्राण त्याग दिए। अर्जुन ने विधि-विधान से उनका अंतिम संस्कार किया। इसके बाद अर्जुन ने प्रभास तीर्थ में मारे गए समस्त यदुवंशियों का भी अंतिम संस्कार किया। सातवे दिन अर्जुन श्रीकृष्ण के परिजनों तथा सभी नगरवासियों को साथ लेकर इंद्रप्रस्थ की ओर चल दिए। उन सभी के जाते ही द्वारका नगरी समुद्र में डूब गई। ये दृश्य देखकर सभी को बड़ा आश्चर्य हुआ। द्वारका के समुद्र में डूब जाने के बाद अर्जुन वज्रनाभ को हस्तिनापुर में मथुरा का राजा घोषित किया। वज्रनाभ के नाम से मथुरा क्षेत्र को वज्रमंडल भी कहा जाता है।
अर्जुन ने अपनी आंखों से द्वारका को डूबते हुए देखा जिसका वर्णन महाभारत के मौसल पर्व में है:- समुद्र की लहरें तटों से टकरा रहा था, अचानक समुंद्र ने उस सीमा को तोड़ दिया जो प्रकृति द्वारा उस पर लगाई गई थी।  समुद्र शहर में घुस गया।  यह खूबसूरत शहर की सड़कों से होकर गुजरा।  समुद्र ने अपने अथाह जल से शहर में सब कुछ ढक दिया।  मैंने देखा कि एक-एक कर खूबसूरत इमारतें जलमग्न हो रही हैं।  कुछ ही पलों में सब कुछ खत्म हो गया।  समुद्र अब झील की तरह शांत हो गया था।  शहर का कोई अता-पता नहीं था।  द्वारका सिर्फ एक नाम था;  सिर्फ एक स्मृति।
                           — अर्जुन, महाभारत का मौसल पर्व

♦️द्वारका की खोज करने के लिए किसी भी इतिहासकार ने कोई प्रयास नहीं किया, न ही पुरातत्व विभाग ने कोई पहल किया और न ही तत्कालीन सरकारों ने इसमें कोई रूचि दिखाई। लेकिन समुंद्र में विलीन द्वारका को कब तक छिपा के रख सकते थे? संयोग सेद्वारका के इन समुद्री अवशेषों को सबसे पहले भारतीय वायुसेना के पायलटों ने समुद्र के ऊपर से उड़ान भरते हुए नोटिस किया था और उसके बाद 1970 के जामनगर के गजेटियर में इनका उल्लेख किया गया।राष्ट्रीय समुद्र प्रौद्योगिकी संस्थान (NIOT) के जांच दल ने दिसंबर 2000 में समुद्र में 800 फीट नीचे एक नगर जैसी सरंचना का अध्ययन किया… उसके आधार पर 16 जनवरी, 2002 को केंद्रीय मानव संसाधन विकास, और विज्ञान और प्रौद्योगिकी मंत्री, डॉ. मुरली मनोहर जोशी ने नई दिल्ली में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में एक सनसनीखेज घोषणा की।  उन्होंने दावा किया कि गुजरात के तट से दूर खंभात की खाड़ी में हड़प्पा सभ्यता से भी प्राचीन एक पानी के नीचे की शहरी बस्ती की खोज की गई है। NIOT के शोध में दावा किया गया था कि यह एक बड़ा राज्य था- खंभात और कच्छ की खाड़ी नहीं थी। यहां जमीन थी। मौजूदा द्वारिका से लेकर सूरत तक पूरी समुद्र क्षेत्र में एक दीवार देखने में आती है। यह कृष्ण का राज्य था। सूरत के पास मिली रचना महाभारत में वर्णित द्वारिका से मिलती है। डॉ. एस. कथरोली की अगुआई में हुई रिसर्च में नर्मदा नदी के मुख्य स्थल से 40 किमी दूर और तापी नदी के मुख्य स्थल के पास अरब सागर के उत्तर-पश्चिम में प्राचीन नगर के अवशेष मिले थे। तब 130 फीट गहराई में 5 मील लंबे और करीब 2 मील चौड़ाई वाला नगर मिला था। मरीन आर्कियोलॉजी डिपार्टमेंट ने 2 साल की रिसर्च में 1000 नमूने खोजे, जिनमें से 250 आर्कियोलॉजिकल अहमियत रखते है।
                  पुरातत्त्ववेत्ता पिछले 6 दशकों से प्राचीन द्वारका के अवशेषों को खोजने की कोशिश कर रहे हैं। द्वारका में पहली पुरातात्विक खुदाई 1963 में की गई थी। इस खोज में कई शताब्दियों पुरानी कलाकृतियां मिली थीं। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (ASI) की मरीन आर्कियोलॉजिकल यूनिट (MAU) ने 1979 में डॉ. एस. आर. राव के नेतृत्व में खुदाई का दूसरा दौर चलाया था।  इस खोज में विशिष्ट मिट्टी के बर्तन मिले थे। जो 3,000 साल पुराने बताए गए। इन खुदाई के परिणामों के आधार पर 1981 में अरब सागर में द्वारका की खोज शुरू हुई।
पानी के नीचे की खोज की परियोजना को 1984 में तत्कालीन प्रधानमंत्री द्वारा मंजूरी दी गई थी। समुद्र के नीचे खुदाई का काम कठिन था 1983 और 1990 के बीच डॉ. एस. आर. राव की टीम को ऐसी खोजों के बारे में पता चला जिसने एक डूबे हुए शहर की मौजूदगी की प्रमाणिकता पर पहली बार मोहर लगाई थी।
दिसंबर 2000, अक्टूबर 2002 और फिर जनवरी 2007 में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) के अंडरवाटर पुरातत्व विंग (UAW) ने द्वारका में फिर से खुदाई शुरू की थी। जिसमें अरब सागर में पाए जाने वाली प्राचीन संरचनाओं की पहचान की गई। अन्वेषणों में बस्तियां, दीवारें, स्तंभ और त्रिकोणीय और आयताकार जैसी संरचनाएं निकली। शिलालेख, मिट्टी के बर्तन, पत्थर की मूर्तियां, टेराकोटा की माला, पीतल, तांबा और लोहे की वस्तुएं मिली थीं।गौरतलब है कि 2005 में नौसेना के सहयोग से प्रचीन द्वारका नगरी से जुड़े अभियान के दौरान समुद्र की गहराई में कटे छंटे पत्थर मिले और लगभग 200 नमूने एकत्र किये गए। प्रो. राव और उनकी टीम ने 560 मीटर लंबी द्वारका की दीवार की खोज की। साथ में उन्‍हें वहां पर उस समय के बर्तन भी मिले, जो 3000 ईसा पूर्व के हैं। गुजरात में कच्छ की खाड़ी के पास स्थित द्वारका नगर समुद्र तटीय क्षेत्र में नौसेना के गोताखोरों की मदद से पुरा विशेषज्ञों ने व्यापक सर्वेक्षण के बाद समुद्र के भीतर उत्खनन कार्य किया और वहाँ पड़े चूना पत्थरों के खंडों को ढूँढ़ निकाला। इस ऐतिहासिक अभियान के लिए उनके 11 गोताखोरों को पुरातत्व सर्वेक्षण ने प्रशिक्षित किया। इसके बाद इस साल जनवरी से फरवरी के बीच नौसेना के गोताखोर तमाम आवश्यक उपकरण और सामग्री लेकर उन दुर्लभ अवशेषों तक पहुँच गए, जिनके बारे में अनेक तरह के विवाद समय-समय पर सामने आते रहे हैं। इन गोताखोरों ने 40 हजार वर्गमीटर के दायरे में यह उत्खनन किया और वहाँ पड़े भवनों के खंडों के नमूने एकत्र किए, जिन्हें आरंभिक तौर चूना पत्थर बताया गया हैं। द्वारका में समुद्र के भीतर ही नहीं, बल्कि जमीन पर भी खुदाई की गई है और दस मीटर गहराई तक किए इस उत्खनन में सिक्के और कई कलाकृतियाँ भी प्राप्त हुई हैं। जमीन पर मिले अवशेषों की समुद्र के भीतर पाए गए खंडों से समानता मिलती है। इन अवशेष खंडों का सिंधु घाटी की सभ्यता से कोई मेल नहीं मिलता और यह आयताकार खंडों की बनावट और स्टाइल से स्पष्ट है। 
 2007 में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के निर्देशन में भारतीय नौसेना के गोताखोर समुद्र में समाई द्वारका नगरी के अवशेषों के नमूनों को सफलतापूर्वक निकाल लाए थे। गुजरात में कच्छ की खाड़ी के पास स्थित द्वारका नगर समुद्र तटीय क्षेत्र में नौसेना के गोताखोरों की मदद से पुरा विशेषज्ञों ने व्यापक सर्वेक्षण के बाद समुद्र के भीतर उत्खनन कार्य किया और वहाँ पड़े चूना पत्थरों के खंडों को ढूँढ़ निकाला।  ये नमूने सिंधु घाटी की सभ्यता से कोई मेल नहीं खाते। नौसेना के गोताखोरों ने 40 हजार वर्गमीटर के दायरे में यह उत्खनन किया और वहाँ पड़े भवनों के खंडों के नमूने एकत्र किए, जिन्हें आरंभिक तौर चूना पत्थर बताया गया था।पुरातत्व विशेषज्ञों ने बताया ये खंड किसी नगर या मंदिर के अवशेष लगते हैं। द्वारका में समुद्र के भीतर ही नहीं, बल्कि जमीन पर भी खुदाई की गई थी और दस मीटर गहराई तक किए इस उत्खनन में सिक्के और कई कलाकृतियाँ भी प्राप्त हुई। उन्होंने माना कि जमीन पर मिले अवशेषों की समुद्र के भीतर पाए गए खंडों से समानता मिलती है। पुरातत्व विशेषज्ञों के अनुसार इन अवशेष खंडों का सिंधु घाटी की सभ्यता से कोई मेल नहीं मिलता और यह आयताकार खंडों की बनावट और स्टाइल से स्पष्ट है।एएसआई के अधिकारी रहे डा. एस आर राव ने नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ ओसेनोग्राफी के समुद्री पुरातत्व शाखा में काम करते हुए द्वारका, महाबलीपुरम नगरों से जुड़े रहस्यों पर काफी काम किया था। उनके नेतृत्व किये गए प्रयासों से प्राचीन द्वारका नगरी का पता लगाया गया और कुछ अवशेष एकत्र किये गए। हालांकि इसके बाद से काम रुका पड़ा है। 

👉महाभारत में वर्णित द्वारका की सरंचना और अब तक खोजी गई द्वारका की सरंचना में समानता!
द्वारका एक नगर-राज्य था जो उत्तर में बेट द्वारका(संखोधारा) और दक्षिण में ओखामढ़ी तक फैला हुआ था।  पूर्व की ओर इसका विस्तार पिंडारा तक था।  संखोधारा के पूर्वी किनारे पर 30 से 40 मीटर ऊंची पहाड़ी महाभारत में उल्लिखित रैवतक हो सकती है।  प्राचीन ग्रंथों में वर्णित द्वारका शहर का सामान्य लेआउट खोजे गए जलमग्न शहर से मेल खाता है।  चार बाड़े नंगे रखे गए हैं;  प्रत्येक के पास एक या दो द्वार थे।  बेट द्वारका के रास्ते में बंदरगाह अरामदा बाहरी किलेबंदी का पहला प्रवेश द्वार था।  जलमग्न द्वारका के किनारे के गढ़ कुशीनगर और श्रावस्ती के समान हैं, जो सांची स्तूप के प्रवेश द्वार पर उकेरे गए हैं।  महाकाव्य में उल्लिखित प्रसाद द्वारका की ऊंची किले की दीवारें होनी चाहिए, जिसका एक हिस्सा मौजूद है।  महाकाव्य कहता है कि द्वारका शहर में झंडे लहरा रहे थे।  समुद्र तल की खुदाई में मिले ध्वज पदों के पत्थर के आधारों से इसकी पुष्टि की जा सकती है।  उमाशंकर जोशी का विचार है कि महाभारत में उल्लिखित कुशस्थली क्षेत्र में अन्तरद्वीप बेट द्वारका होना चाहिए।  भागवत पुराण में कहा गया है कि श्रीकृष्ण ने अपने नश्वर शरीर को छोड़ने से पहले महिलाओं और बच्चों को नावों में बिठाया और उन्हें शंखोधारा भेज दिया। छोटे-छोटे पत्थर के ब्लॉकों से बनी इमारतों का अवशेष समुंद्री तल पर बिखरा हुआ है, जिसमे किले की मोटी दीवारों, बुर्जों और सुरक्षा दीवारों (बड़े पत्थरों से निर्मित) के केवल छोटे हिस्से बचे हुए हैं, जो समुंदरी लहरों और धाराओं द्वारा बहुत भारी होने के कारण स्थानांतरित नही हो पाया। द्वारका और बेट द्वारका में संरचनात्मक अवशेषों से, यह साबित हो जाता है कि शहर और बंदरगाह विशाल और सुनियोजित रुप से बने हुए थे। द्वारका के प्रत्येक नागरिक को पहचान के निशान के रूप में एक मुद्रा ले जाना पड़ता था खुदाई में मिली मुहर (मुद्रा) 15 वीं -16 वीं शताब्दी ईसा पूर्व की है, इस मुहर में बैल, गेंडा और बकरी का प्रतिनिधित्व करने वाले तीन सिर वाले जानवर की आकृति बनी हुई है। 
◾हरिवंश में लिखा है उस समय समुद्र का जल 12 योजन जमीन छोड़कर पीछे हट गया था। हरिवंश में द्वारका के लिए वारिदुर्ग और उदधि मध्यस्थान जैसे शब्दों का प्रयोग किया गया है। इससे यह जान पड़ता है कि द्वारका एक द्वीप रहा होगा। ऐसा माना जाता है कि बेट द्वारका विहारधाम रहा होगा। यादव लोग नौका के द्वारा वहाँ जाते रहे होंगे। द्वारका में जहाँ पहले बंदरगाह था और गोमती जहाँ समुद्र से मिलती है, वहाँ पिछले कुछ वर्षों में रेती जम जान के कारण अब कोई भी नाव नहीं आ सकता है। समुद्र में तीसरी बार खोज करते समय समुद्र नारायण मंदिर के समुद्र से 200-700 मीटर तक चारों जगहों पर वनस्पति और कीचड़ हटाया गया तो वहाँ एक परिवहन रेखा दिखाई दी। चौथे अन्वेषण में मालूम पड़ा कि यहाँ जो निर्माण हुआ था उसको समुद्र के ज्वार से काफी नुकसान हुआ है। पत्थर कीचड़ के नीचे दबे हुए थे। पत्थरों के दोनों तरफ़ खुदाई की गई तो चिनाई का काम दिखाई पड़ने लगा। इस खोज में तीन छिद्रों वाले लंगर मिले, जो पत्थर के बने हुए थे और जिनका उपयोग 2000BC से 1800BC पहले हुआ करता था। तीसरी और चौथी खोज में समुद्र के नीचे निर्माण दिखाई दिया। पांचवीं खोज में एक तराशा हुआ मोटा पत्थर और गढ़ की चिनाई मिली। मंदिर से 600 मीटर अंदर समुद्र में निर्माण में प्रयुक्त पत्थर मिले। ये सभी बिल्कुल वैसा ही है जैसा महाभारत में वर्णित है।

👉आज रुका है द्वारका नगरी के रहस्य से पर्दा उठाने का काम…
पुराणों और धर्मग्रंथों में वर्णित प्राचीन द्वारका नगरी और उसके समुद्र में समा जाने से जुड़े रहस्यों का पता लगाने का काम पिछले कई वर्ष से रुका पड़ा है, हालांकि भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने ऐसी परियोजनाओं को आगे बढ़ाने के लिए अगले दो साल में ‘अंडर वाटर आर्कियोलॉजी विंग’ को सुदृढ़ बनाने का निर्णय किया है।

भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के निदेशक के अनुसार पानी के भीतर खोज के काम के लिए बड़ी आधारभूत संरचना की जरुरत होती है। प्राचीन द्वारका नगरी की खोज जैसी परियोजना के लिए समुद्र में प्लेटफार्म और काफी संख्या में प्रशिक्षित गोताखोरों की जरुरत होती है जो गहराई में पानी में जा सकें। उन्होंने कहा कि दुर्भाग्य से भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण :एएसआई: में पानी के नीचे कार्य करने में सक्षम ऐसे आधारभूत संरचना और मानव संसाधन की कमी है। साल दो साल में ‘अंडर वाटर आर्कियोलॉजी विंग’ को सुदृढ़ बनाया जायेगा ताकि ऐसी परियोजनाओं को आगे बढ़ाया जा सके।

♦️ एस आर राव के एक साक्षात्कार का अंश:-

1. आपको समुद्री पुरातत्व में क्या आकर्षित किया?
डॉ. राव:- असल में हमें इसका मतलब नहीं पता था।  यह लंदन में था कि सुश्री टेलर, पुरातत्व संस्थान में एक लाइब्रेरियन, जो एक गोताखोर भी थीं, ने मुझे सत्तर के दशक में भारतीय तट पर कुछ काम करने के लिए कहा।  उसने कुछ जहाजों की ओर इशारा किया, जिनके बारे में मुझे कोई जानकारी नहीं थी।  जब मैं द्वारका में (जमीन पर) द्वारकादीश के मंदिर की मरम्मत कर रहा था तो मुझे उसके सामने एक आधुनिक इमारत को तोड़ना पड़ा और मुझे विष्णु का 9वीं शताब्दी का मंदिर मिला।  मैं उत्सुक हो गया और 1979-80 में जमीन पर और गहरा (30 फीट) खोदा।  हमें पहले के दो मंदिर मिले, एक पूरी दीवार और विष्णु की आकृतियाँ।  हमने और खुदाई की और वास्तव में तल पर पड़ी एक बस्ती की क्षत-विक्षत सामग्री मिली।  फिर समुद्र द्वारा नष्ट की गई बस्ती के अवशेषों को डेटिंग करने का सवाल उठा।  थर्मो-ल्यूमिनेसेंस डेटिंग ने 1520 ईसा पूर्व की तारीख का खुलासा किया।  महाभारत द्वारका को संदर्भित करता है और इस तरह हमने समुद्री पुरातत्व के बारे में सोचा।

2. आपने खुदाई कैसे शुरू की?
डॉ. राव:- हमें समुद्री पुरातत्व का कोई अनुभव नहीं था।  यह भारत के लिए एक नया अनुशासन था।  इंडियन नेशनल साइंस एकेडमी (INSA) ने हमें कुछ पैसे दिए और हम नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ ओशनोग्राफी (NIO), गोवा गए, क्योंकि वहां कुछ गोताखोर थे और 1981 में काम शुरू किया। असली काम 1982 में शुरू हुआ। हमने नावें किराए पर लीं।  पहले हमें बेथ द्वारका द्वीप में कुछ प्रमाण मिले क्योंकि स्थानीय परंपरा द्वारका की तुलना में इसकी प्राचीनता की ओर इशारा करती है।

3. बेथ द्वारका में कौन से अवशेष मिले थे?
डॉ. राव:- महाभारत के अनुसार कृष्ण ने कुशस्थली में द्वारका का निर्माण किया - समुद्र में एक किला जो खंडहर में है।  फिर उसने गोमती नदी के मुहाने पर एक और निर्माण किया।  कुशस्थली (बेथ द्वारका ने द्वारका की वर्तनी) में हमें किनारे पर ही एक दीवार (560 मीटर लंबी) दिखाई दी।  यहां मिले मिट्टी के बर्तनों के डेटिंग से 1528 ई.पू. का समय मिलता है।  इसलिए हम संतुष्ट थे कि हम सही जगह पर थे।  हमने एक महत्वपूर्ण खोज का पता लगाया - एक मुहर (मुद्रा)।  महाभारत का उल्लेख है कि कैसे कृष्ण चाहते थे कि प्रत्येक नागरिक किसी न किसी प्रकार की पहचान - एक मुद्रा ले जाए।

4. क्या मुद्रा इस बात की पुष्टि करती है कि यह कृष्ण की द्वारका थी?
डॉ. राव:- हाँ।  बहुत सारे मिट्टी के बर्तनों के अलावा, हमें निम्नलिखित महा कच्छ शयपा (समुद्र, राजा या रक्षक) के साथ एक खुदा हुआ शेर मिला।  यह लगभग 1600 ई.पू. का है।  जबकि मुद्रा 1700 ईसा पूर्व की है।  हमें 580 मीटर लंबी दीवार मिली।

5. क्या आपको मिली संरचनाएं समय के साथ खराब हो गई हैं?
डॉ. राव:- ज्यादा नहीं क्योंकि वे पत्थर से बने हैं।  कुछ धाराओं और चक्रवात के कारण गिरे होंगे।  हम भूकंप के प्रभाव से चिंतित थे।  सौभाग्य से द्वारका में तट पर खड़ा मुख्य मंदिर प्रभावित नहीं हुआ है।  इसलिए भूमिगत अवशेष प्रभावित नहीं होंगे।  बेठ द्वारका में द्वारकादीश मंदिर में दरारें आ गई हैं।

6. जब आपको कृष्ण की द्वारका मिली तो आपको कैसा लगा?
डॉ. राव:- उत्साह तब आया जब हमें मुद्रा और शिलालेख मिला।  यह पुष्टि करने वाला कारक था क्योंकि मात्र तिथि तक कोई यह नहीं कह सकता था कि यह द्वारका है।  महाभारत में 50 द्वार वाले शहर का उल्लेख है।  हमें लगभग 25 या 30 गढ़ के द्वार मिले।  और भी होना चाहिए क्योंकि उन्होंने दीवारों को धाराओं से सुरक्षित रखा होगा।  गढ़ पर हमेशा द्वार होते हैं।  तो वह संदर्भ हो सकता है।

7. क्या इसने आपको महाकाव्य का गहराई से अध्ययन करने के लिए प्रेरित किया?
डॉ. राव:- इतना ही नहीं बल्कि पुराण जैसे अन्य ग्रंथ - भागवत, स्कंद, मत्स्य और विष्णु जो द्वारका का उल्लेख करते हैं। श्रीमद्भागवतम और अन्य शास्त्रों के अनुसार, द्वारका वर्ष 3102 ईसा पूर्व (जो लगभग 5100 वर्ष है) में जलमग्न हो गया था।

👉निचे कुछ महत्वपूर्ण वीडियो है जो द्वारका से संबंधित है:👇
https://youtu.be/7bqSLlqt6BY

https://youtu.be/FfdmMVFZo20

https://youtu.be/XI9ebS3mN4I

https://youtu.be/-NfXK4op4F4

https://youtu.be/5cX_IF5YFo4

https://youtube.com/shorts/zUPryKbD2Dw?feature=share

◾लगभग पांच हज़ार साल से जलमग्न द्वारका न केवल श्री कृष्ण की वास्तविकता पर मोहर लगाती है बल्कि ये भी बताती है कि सबसे पहले भारतीयों ने समुद्र की छाती चीरकर घर बनाना सीखा था।

📚द्वारका के इतिहास और पुरातत्व के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए आप प्रसिद्ध विद्वान् Birendra K Jha सर की पुस्तक ले सकते हैं और फेसबुक पर पोस्ट देख सकते हैं।

✍️ राहुल 🙏😊

📖 संदर्भ (References):-
1. महाभारत
2.भागवत पुराण
3. मत्स्य पुराण
4. वायु पुराण
5. विष्णु पुराण
6. हरिवंश
7. UNESCO Journal
8. Discovery of Lost Dwarka: Birendra K Jha 
9.वैन बुइटेनन, द महाभारत: द बुक ऑफ द बिगिनिंग । 
10. ए बी मेनन,  महाभारत: एक आधुनिक प्रतिपादन,
11. जॉन मर्डोक (1898), द महाभारत 
12. एसआर राव, प्रभासा-सोमनाथ की एक प्रारंभिक खोज, 
13. अयंगर और राधाकृष्न, इवोल्यूशन ऑफ द वेस्टर्न कोस्टलाइन ऑफ इंडिया एंड द लोकेशन ऑफ द्वारका ऑफ कृष्ण: जियोलॉजिकल पर्सपेक्टिव्स,
14.The lost City of Dvaraka: S.R.Rao
15. In the lost City of sri krishna: the story of ancient Dwarka: Vanamali
16. द्वारका का सूर्यास्त : दिनकर जोशी
17. द्वारका : सर्वसाक्षी दास
18. कृष्ण की आत्मकथा: द्वारका की स्थापना: मनु शर्मा
19. Historicity of Krishna : A.D.Pusalkar
20. In excavation at Dwaraka: HD Sankalia 
21. Krishna’s City. Re-discovery the Sunked  Dwaraka:By Horacio Francisco Arganis
22. Underground: The Mysterious Origins of Civilization – By Graham Hancock
23. How marine archaeologists found Dwaraka – By V Gangadharan
24. Legend of Dwaraka - By T.R. Gopaalakrushnan
25. Dwarika - The Eternal City - By Brinda Ramesh 
26. The Flooding of Dwaraka and the descent of the Kali Yuga - By Graham Hancock 
27. How marine archaeologists found Dwaraka – By V Gangadharan
28. Marine archaeology and the study of the past - By Nanditha Krishn.
29. स्कंद पुराण
30. श्रीमदभगवद्गीता

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