Wednesday, 9 August 2023

उत्तम भोजन* क्या है?*शास्त्रोक्त समाधान* अपने भोजन को शुद्ध बनाएं...*कर्त्ता च देही भोक्ता च आत्मा*

*कुछ और प्रमाण* 
मनुस्मृति, याज्ञवल्क्य स्मृति, शंखस्मृति ,   ब्रह्मपुराण, अग्निपुराण, कूर्मपुराण, भविष्यपुराण, ब्रह्माण्डपुराण, देवीभागवतपुराण,  विष्णुधर्मोत्तरपुराण, हरिवंशपुराण, महाभारत , हारीत संहिता, लक्ष्मीनारायणसंहिता आदि अनगिनत ग्रन्थों में  यह निषेध प्राप्त है । 

 शंख ऋषि  के वचनानुसार  इन लशुन, गृञ्जन, पलाण्डु आदि   शास्त्रीय अभक्ष्य पदार्थों का भक्षण करने पर  बारह रात्रि तक दूध पीकर प्रायश्चित्त करना चाहिए । 
*(लशुन-पलाण्डु-गृञ्जन-विङ्कराहग्रामकुकुटकुम्भीकभक्षणे द्वादशरात्रं पयः पिबेत्)*

*गोमूत्रं गोमयं चैव क्षीरं दधि घृतं तथा।*
*पंचरात्रं तदाहार:पंचगव्येन शुद्धयति।।*
 ।। वसिष्ठ स्मृति-३७०।।


*अभक्ष्य का भक्षण करने पर उससे उत्पन्न परम विनाश के लिए गोमाता के दूध,दही,घी, गोबर और गोमूत्र का पांच दिन तक आहार करना चाहिए।।*

*उत्तम भोजन* क्या है?

*शास्त्रोक्त समाधान*
 अपने भोजन को शुद्ध बनाएं...
*कर्त्ता च देही भोक्ता च आत्मा*

  *भोजयिता सदा* । 

*भोगो विभवभेदश्च*

*निष्कृतिर्मुक्तिरेव च* ॥ 


*आहार शुद्धौ सत्त्व शुद्धि:*


मानव—जीवन में शुद्ध अन्न सेवन का बड़ा महत्व है। उत्तम निरोगी और स्वस्थ जीवन के लिए शुद्ध आहार की जरूरत है—


*सर्वेषामेव शौचानामन्नशौचं विशिष्यते*।


सब प्रकार की शुद्धि में अन्नशुद्धि सर्वश्रेष्ठ है। इसका कारण यह है कि अन्न से शरीर, मन और प्रज्ञा उत्पन्न होती है; 

इसलिये अन्न शुद्धि और आहारशुद्धि आवश्यक मानी गयी है। 

आज लोग जो अन्न सेवन करते हैं, इनमें शुद्धि—अशुद्धि का ख्याल ही नहीं रखते हैं। उसका बुरा असर युवा पीढ़ी पर पड़ा है। इसलिये हर एक को अन्न और आहारशुद्धि को अग्रस्थान देना चाहिए।।


शुद्ध सात्त्विक आहार की आवश्यकता।

अन्न से जैसे शरीर, मन और प्रज्ञा का निर्माण होता है, वैसे ही अन्न के स्थूलरूप से पुरीष (मल), इसके सूक्ष्मभाग से रक्त और सूक्ष्मेतर भाग से मन तैयार होता है।


*दीपो_भक्षयते_ध्वान्तं_कज्जलं_च_प्रसूयते*।

*यदन्नं_भक्षयेन्नित्यं_जायते_तादृशी_प्रजा*।।


जैसे दीप अन्धकार का भक्षण करता है और कज्जल उत्पन्न करता है, वैसे ही मनुष्य जिस प्रकार का अन्नसेवन करता है, उसी प्रकार की अपत्य (संतान)— को जन्म देता है।

मनुष्य जो आहार— अन्नसेवन करता है, उससे पुरूष के शरीर में ‘ शुक्रजन्तु’ और स्त्री के शरीर में ‘आर्तव’ यानी ‘स्त्रीबीज’ निर्मित होते हैं और स्त्री—पुरूष संयोग से अपत्य का जन्म होता है। 

माता—पिता जो अन्न सेवन करते हैं, उस अन्न से सात्विक, राजस, तामस— तीन प्रकार के गुण अपत्य में संक्रमित होते हैं ; इसलिये जीवन में शुद्ध अन्नसेवन की आवश्यकता है। 


छान्दोग्योपनिषद्— *आहारशुद्धौ_सत्वशुद्धि:*


अत: हम जो आहार सेवन करें, वह शुद्ध होना चाहिए, इससे अन्त:करण की शुद्धि होती है। 

जब अन्त:करण —मन शुद्ध होता है तब सद्विवेक का निर्माण होता है। 

इससे मनुष्य सदाचारी होता है और उसका शरीर एवं मन स्वस्थ रहता है तथा उसे जीवन में सुख और शान्ति का लाभ होता है। अस्तु, स्वस्थ शरीर के लिए और स्वस्थ  समाज के लिए शुद्ध अन्न का सेवन करना आवश्यक है।


शुद्ध सात्विक आहार का 

शास्त्रीय स्वरूप—।

मनुस्मृति — *अन्नं* *ब्रह्म* *इत्युपासीत*।।

अन्न ब्रह्म है— 

यह समझकर उसकी उपासना करनी चाहिए। 

~~जो अन्न सेवन करते हैं, वह एक यज्ञकर्म है, केवल उदर—भरण नहीं है, केवल पेट भरना नहीं है। 

अन्न सेवन करना केवल क्षुधा—निवृत्ति नहीं है। 

ब्रह्म की यज्ञ—उपासना समझकर अन्न सेवन करो।

 पवित्र कार्य समज्ञकर अन्न—सेवन करना चाहिए। 

~~~~~आहार अन्न कैसा लेना है, :—

*उपस्पृश्य द्विजो* *नित्यमन्नमद्यात् समाहित:*।

*भुक्तवा चोपस्पृशेत्* *सम्यगद्धि: खानि च संस्पृशेत्*।।


*पूजयेदशनं* *नित्यमद्याच्चैतदकुत्सयन्*।

*दृष्ट्वा हृष्येत्प्रसीदेच्च *प्रतिनदेच्च सर्वश:*

दोनों हाथ, दोनों पैर और मुख—इन पाँचों अंगों को जल से स्वच्छ करके नित्य सावधान होकर आहार—सेवन करना चाहिए। 

भोजन के उपरांत भली प्रकार आचमन करना चाहिए तथा जल के द्वारा छहों छिद्रों (दो नासाछिद्र, दो आँख और दो कान)— का स्पर्श करना चाहिए। नित्य पहले भोजन का पूजन करना चाहिए। 

भोजन को देखकर हर्षयुक्त होना चाहिए और प्रसन्नतापूर्वक उसका अभिनन्दन करना चाहिए। 

अन्न ब्रह्मा है, रस विष्णु है और खाने वाला महेश्वर है— यह समझकर अन्न सेवन करो तो विश्वचक्र में संतुलन रहता है।


*अन्नंब्रह्मा_रसो_विष्णुर्भोक्ता_देवो_महेश्वर*।


दूसरी बात ऐसी है कि भगवान् को भोग न लगा हुआ अन्न विष्ठा समान है और जल मूत्र के तुल्य बन जाता है—


*अन्नं_विष्ठा_जलं_मूत्रं_यद्विष्णोरनिवेदितम्*।


इसलिये आहारशुद्धि के लिए भगवान् के प्रति शुद्धभाव चाहिए, हर—एक दिन भगवान् को भोग (नैवेद्य) समर्पण करके ही आहार—सेवन करना चाहिए। 

इसी में भाव की शुद्धि है।

 भगवान् ने इस भोजन—आहार को ग्रहण कर लिया है, अब यह पदार्थ शुद्ध—पवित्र हो गया है, वही हम सेवन करें— यही हमारा भाव होना चाहिए!!

 बिना स्नान किये भोजन करना मल खाने के तुल्य है, बिना जप किये भोजन करना पीप—रूधिर खाने के समान है, बिना हवन किये भोजन करने वाला कृमिभोक्ता होता है तथा बिना दान दिये भोजन करने वाला विष्ठाभक्षक होता है।।


*अस्नानताशी मलं भुङ्ग्ते त्वजपी पूयशोणितम्*।

*अहुताशी कृमीन भुङत्तेऽप्यदत्त्वा विड्विभोजन:* ।।

जीवन—स्वास्थ्य के लिए पवित्र आहार—सेवन करने का यह शास्त्रीय स्वरूप ध्यान में लेना चाहिए। 

आहार सेवन में सावधानी रखनी चाहिए— अन्न—आहार दिखने में उत्तम, सुन्दर और स्वादिष्ट हो तो भी वह पवित्र और शुद्ध है, ऐसा नहीं कहा जा सकता है।


 धर्म का प्रथम साधन शरीर को निरोग रखना है। 


इसलिये कौन—सा अन्न सेवन नहीं करना चाहिए, यह ध्यान में रखना चाहिए। शास्त्रीय दृष्टि से कतिपय दूषित अन्नों का विवरण इस प्रकार है।

*आश्रयदुष्ट*— किसी के भी द्वारा—वशेषत: दुष्ट व्यक्ति द्वारा और जहां—कहीं भी तैयार किया हुआ आहार आश्रयदुष्ट आहार है, उसे नहीं ग्रहण करना चाहिए।


*कालदुष्ट*—कल का आहार आज लेना अथवा असमय बनाया हुआ आहार नहीं लेना चाहिए। ऐसे आहार की कालदुष्ट संज्ञा है।


 *भावदुष्ट*—बुरी भावना से बनाया हुआ अन्न भावदुष्ट होता है, ऐसा अन्न नहीं ग्रहण करना चाहिए।


 *स्वभावदुष्ट*—कुछ पदार्थो का अलग गुण—धर्म है, वह पदार्थ सेवन ही नहीं करना चाहिए। उदाहरण के लिए प्याज, लहसुन अथवा एक बार पकाने के बाद फिर गरम किया पदार्थ अपनी गंधविशेष के कारण स्वभावदुष्ट बन जाता है।


*वाग्दुष्ट*—अन्न बनाते समय अगर दुर्वचन बोलते हुए खाद्यसामग्री पकायी जाय तो ऐसा आहार वाग्दुष्ट होता है, ऐसा आहार हानिकर होता है।


*संसर्गदुष्ट*— भोज्य पदार्थ तैयार करने वाला मनुष्य बीमार हो अथवा पदार्थ विषमय हो अथवा किसी पशु—पक्षी ने स्पर्श किया हो तो ऐसा पदार्थ नहीं सेवन करना चाहिए। ऐसा आहार संसर्गदुष्ट कहा गया है।


निष्कर्षत: मन, शरीर, इन्द्रियों पर नियंत्रण करने के लिए शुद्ध आहार सेवन की जरूरत है। इसीलिए ऊपर लिखे हुए प्रकार के अन्न— आहार सेवन न करने की सावधानी रखनी चाहिए। 

श्रुतिवचन है कि अन्न की कभी भी निन्दा मत करो,

 *अन्न_न_परिचक्षीत*

अन्न का कभी भी त्याग नहीं करना चाहिए, यह व्रत है—

*सर्वरोगापशमनं सर्वोपद्रवनाशनम्* ।

*शान्तिदं सर्वारिष्टानां हरेर्नामानुकीर्तनम्* ।।


*हस्तपादे मुखे चैव पञ्चाद्रौ भोजनं चरेत्*

*पञ्चार्द्रकस्तु भुञ्जानः शतं वर्षाणि जीव ति*


आजकाल हम लोगों पर पोषण एवं  आहार पर सूचना और सुझावों की  विज्ञापन को देखकर निर्णय लेते है की ये अच्छा बडिया हैं स्वादिष्ट भोजन है वह इतना ही देखते सोचते हैं या ‌ अभ्यास हो गयी है।।


प्राय  हमलोग भोजन विधि को जाने विना ही यथेच्छा‌  भोजन करते हैं।


 दुसरों का अनुशरण करने के कारण भ्रमित  हो जाते हैं. स्वाद और अच्छा भोजन के मोह मेँ आकर विना ये सोचे की जिस भोजन को में ग्रहण कर रहा हूँ क्या ये ग्रहण करने योग्य सात्विक ? जिसने भोजन आदि पकाया क्या वह सात्विक था या तमोगुण प्रधान ? पडोसने वाला अथवा लाकर देने वाला सात्विक व्यक्ति है , प्रसन्नता पूर्वक परोस रहां है? 

क्या काल और स्थान योग्य है ? क्या मैं भुख का अनुभव कर रहा हुं ? । आदि आदि पर

विचार किये विना स्वाद और बाहरी सुन्दर दृश्य को देखकर मोहवश अन्नादि ग्रहण कर लेते है और सौ प्रकार के स्थुल और मानसिक रोगों से ग्रसित होकर जीवन के लक्ष तक पहुंच ने से पहले ही काल का भक्षण बन जाते है ।। 


इसलिए सर्वदा अन्नदोष से समयानुसार यथा शक्ति  स्वयं बचना बचाना चाहिये।


आयुर्वेद के अनुसार आहार व्यक्ति को इस मोहमाया  के मध्य में से एक रास्ता खोजने में सहयोग कर सकता हैं. ।

यह अपने प्राचीन ज्ञान पर आधारित एक शुद्ध शाकाहारी भोजन के रुप में ग्रहण करता है तो ।


आयुर्वेद के अनुसार, अच्छे स्वास्थ्य का आहार एक महत्वपूर्ण नींव है जो रोगों के उपचार में सहयोगी है. ।

दीर्घायु, शक्ति, ऊर्जा, विकास, रंग, और चमक यह सब एक अच्छा पाचन तंत्र और एक अच्छे आहार पर निर्भर करते हैं.क्यूकि

अन्न ही ब्रह्म है।। *अन्नं ब्रह्मेति व्यजानात्*।

  


*सायं प्रातर्मनुष्याणामशनं वेदनिर्मितम्*।

*नान्तरा भोजनं ‌द्रष्टमुपवासी तथा भवेत्*।।


एक आदर्श  सात्त्विक आहार पर

#आयुर्वेदिक_संकेत:


 १/ भोजन सात्त्विक रसयुक्त ताजा एवं  बलकारक आयुदा हो। 

२/ यह अच्छा स्वादिष्ट होना चाहिए.

३/ यह संतुष्ट करने वाला होना चाहिए.

४ / यह शरीर को मज़बूत करने वाला होना चाहिए.

५/  यह तत्काल और स्थायी ऊर्जा दोनों देने वाला होना चाहिए.

६/ यह उचित मात्रा में लिया जाना चाहिए.

७/ यह जीवन शक्ति और स्मृति को बढ़ावा देने वाला होना चाहिए.

८/ यह दीर्घायु को बढ़ावा देने वाला होना चाहिए.


स्वस्थ भोजन के लिए दिशानिर्देश:।


एक सुखद वातावरण में बैठकर

खाना चाहिये क्यूकि ।


*अन्नब्रह्मा रसोविष्णुः भोक्ता देव महेश्वरः*।‌

*इति ध्यात्वा अन्नभुङ्ते अन्नदोषात् न लिप्यते*।।।


#स्वशाखा_विधि_अनुसार_ध्यानं_करके_अन्न_ग्रहण_करे।। 

/  पिछले भोजन (पांच से छह घंटे) के पच जाने के बाद ही खाएं.

 रात में देर से न खाएं. यथाशक्ति स्वयं

को बचाये या सुपाच्य साधारण हल्का ग्रहण करे।

 भोजन शांति से खाये और अच्छी तरह चबा चबाकर खाये ।

 आवश्यकता अनुसार भोजन के साथ एक छोटे पात्र में गुनगुना गर्म पानी या जड़ी बूटी वाली चाय पीना चाहिए.

 दिन मे दो बार ही भोजन करने का विधान है जो उपवास के समान है। 

 जिससे दीर्घायु निरोग  जीवन मिले।।


 शुद्ध मन अपने पाचन तंत्र और भोजन की ऊर्जा को प्रभावित करता है.

 प्रतिदिन नियमित रूप से और एक ही समय में  सात्विक भोजन लेना चाहिए.।


 भोजनों के बीच नाश्ता करने से बचें.।


 भोजन केवल आधा पेट पूर्ण हो, एक चौथाई को पानी के लिए व एक चौथाई खाएं हुवे और गैसों के विस्तार के लिए खाली छोड़ दें.। ये निरोग रहने का शास्त्रीय मर्यादा है ।


 भोजन के साथ फल और फलों के रस  लेने से बचें.।


   अनावश्यक  हर समय  ठंडा या बर्फ युक्त पेय  लेनेसे बचें.।


 अन्न को प्रसाद  के रूप में  उपयोग करें. ग्रहण करे।  

मनुष्य जैसा अन्न खाता है वैसा ही विचार वाला मनवाला  होता है ।।


  भोजन के बाद  सहृदय से धन्यवाद करे. 

 मौनेन भुञ्जीत 

अतिरिक्त पकाया भोजन विषक्त हो

 सकता है ,

विषाक्तता सभी बीमारियों की जड़ है.।।


 रोगों को सभी प्रकार से दूर रखने के लिए

 उर्जा युक्त  बलकारक भोजन पूरे शरीर के लिए आवश्यक है ।।


१६ /  स्वास्थ्य के लिए स्वस्थ भोजन व नियमित उपवास भी आवश्यक है।


 १७ / असंतुलित भोजन शरीर रसायन विज्ञान और रक्त कोशीय चयापचय में असंतुलन का कारण बनता है ।।

जो कैंसर, गठिया, मधुमेह व हृदयघात 

जैसी बीमारियों के मुख्य कारणों में से एक है. ।।

इस असंतुलित भोजनों में अधपका, 

अधिक लवणों से युक्त अधिक वसायुक्त  खाद्य पदार्थों का लगातार सेवन करना भी हानिकारक ही सिद्ध होता है।।


पारंपरिक सात्विक व समय अनुसार किया गया भोजन ही स्वस्थ जीवन की कुंजी है!!

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