सरिऔटा!
जब चूल्हे पर भोजन बनता था तब लोहे का तवा और कड़ाही को अच्छी तरह से साफ करने के लिए इन्हे सरिऔटा में रात को ही भिगो दिया जाता था और फिर सुबह निकालकर बालू और चूल्हे की राख लेकर जूना से रगड़ कर मांजा जाता था। रात भर सरिऔटा में भीगने से गले हुए ये बर्तन चांदी जैसे चमक उठते थे।
सरिऔटा बनाने के लिए मिट्टी में पेड़ के नीचे एक नाद गाड़ दिया जाता था और उसमे पानी भर देते थे।
नाद के उसी पानी में कच्चे आम के छिलके, गुठली, चिड़िया के काटे खराब आम, नींबू जैसे खट्टे फल और छिलके डाल दिए जाते थे जिससे नाद का पानी खट्टा हो जाता था और खटास की वजह लोहे के बर्तन अच्छी तरह से साफ हो जाते थे।
खट्टे पानी की इस नाद को सरिऔटा कहा जाता था।
एक सरिऔटा गांव में लगभग हर घर में होता था।
जब चूल्हे पर भोजन बनता था तब लोहे के बर्तन काफी जल जाते थे उन्हे बिन खट्टे पानी में गलाए साफ नही किया जा सकता था।
गांव के लोग सारे बर्तन अन्दर बाहर दोनों तरफ एकदम साफ रखते हैं। बेशक भोजन चूल्हे पर बनता था लेकिन बर्तन धोते समय सारे बर्तन रगड़ रगड़ कर चांदी की तरह अंदर बाहर चमकाए जाते थे।
तब बर्तन धोने के लिए साबुन का उपयोग नही होता था बल्कि चूल्हे की राख पैरा या तोरई के सूखे जाली के जूने में लगाकर बर्तन धोए जाते थे।
चूल्हे की राख में बर्तन की चिकनाई छुड़ाने, बर्तनों को अच्छी तरह से धोने के बेहतरीन गुण होते थे।
जबसे चूल्हा जलना बंद हुआ तबसे चूल्हे की राख का उपयोग होना भी बंद हो गया। अब गैस चूल्हे पर भोजन बनता है और बिम बार से बर्तन धुल कर साफ हो जाते हैं।
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अरूणिमा सिंहसरिऔटा!
जब चूल्हे पर भोजन बनता था तब लोहे का तवा और कड़ाही को अच्छी तरह से साफ करने के लिए इन्हे सरिऔटा में रात को ही भिगो दिया जाता था और फिर सुबह निकालकर बालू और चूल्हे की राख लेकर जूना से रगड़ कर मांजा जाता था। रात भर सरिऔटा में भीगने से गले हुए ये बर्तन चांदी जैसे चमक उठते थे।
सरिऔटा बनाने के लिए मिट्टी में पेड़ के नीचे एक नाद गाड़ दिया जाता था और उसमे पानी भर देते थे।
नाद के उसी पानी में कच्चे आम के छिलके, गुठली, चिड़िया के काटे खराब आम, नींबू जैसे खट्टे फल और छिलके डाल दिए जाते थे जिससे नाद का पानी खट्टा हो जाता था और खटास की वजह लोहे के बर्तन अच्छी तरह से साफ हो जाते थे।
खट्टे पानी की इस नाद को सरिऔटा कहा जाता था।
एक सरिऔटा गांव में लगभग हर घर में होता था।
जब चूल्हे पर भोजन बनता था तब लोहे के बर्तन काफी जल जाते थे उन्हे बिन खट्टे पानी में गलाए साफ नही किया जा सकता था।
गांव के लोग सारे बर्तन अन्दर बाहर दोनों तरफ एकदम साफ रखते हैं। बेशक भोजन चूल्हे पर बनता था लेकिन बर्तन धोते समय सारे बर्तन रगड़ रगड़ कर चांदी की तरह अंदर बाहर चमकाए जाते थे।
तब बर्तन धोने के लिए साबुन का उपयोग नही होता था बल्कि चूल्हे की राख पैरा या तोरई के सूखे जाली के जूने में लगाकर बर्तन धोए जाते थे।
चूल्हे की राख में बर्तन की चिकनाई छुड़ाने, बर्तनों को अच्छी तरह से धोने के बेहतरीन गुण होते थे।
जबसे चूल्हा जलना बंद हुआ तबसे चूल्हे की राख का उपयोग होना भी बंद हो गया। अब गैस चूल्हे पर भोजन बनता है और बिम बार से बर्तन धुल कर साफ हो जाते हैं।
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आप सभी को मेरा प्रेम नाथ द्विवेदी गोरखपुर का सादर प्रणाम व नमस्कार।
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