Saturday 20 July 2024

भुट्टा! हरी थी मन भरी थी, लाख मोती जड़ी थी।राजा जी के बाग में दुशाला ओढ़े खड़ी थी।बचपन में ये पहेली हम बच्चों को खूब बुझाई जाती थी।जिसका उत्तर होता था भुट्टा! हमारे अवध क्षेत्र में तो इसे भुट्टा या जोनहरी की बाली कहते हैं।

भुट्टा!

हरी थी मन भरी थी, लाख मोती जड़ी थी।
राजा जी के बाग में दुशाला ओढ़े खड़ी थी।

बचपन में ये पहेली हम बच्चों को खूब बुझाई जाती थी।
जिसका उत्तर होता था भुट्टा!
    हमारे अवध क्षेत्र में तो इसे भुट्टा या जोनहरी की बाली कहते हैं।
 देशी भुट्टा हो तो उसे खाने का अलग ही आनंद होता है। बारिश के सीजन में चाहे ताजा भुट्टे की बाली हो या फिर जोनहरी का लावा (पॉपकॉर्न)हो। इन दोनों में से कुछ तो होना ही चाहिए तभी बरसात का आनन्द आता है।
  जब नीलगाय की अधिकता नही थी तब मक्की की अच्छी खासी खेती होती थी लोग भुट्टे में सांचा बैठते ही दूद्धा भुट्टा (स्वीट कॉर्न) भूनकर चबाना शुरू कर देते थे और जब तक दाने कड़े नही हो जाते थे तब तक भूना और चबाया जाता था। अड़ोस पड़ोस,जानने वालों में, रिश्तेदारों में भी भेजा जाता था।
 रोज शाम को एक बोझ (गट्ठर) खेत से काटकर घर ले आते थे और कोई फिर भुट्टा तोड़ता था छीलकर उनके छिलके अलग करता था तो कोई उपले सुलगा कर आग बनाता था कोई सिल बट्टे पर लहसुन, हरी मिर्च, साबुत धनिया, नर्म खटाई डालकर तीखा चटपटा नमक बनाने लगता था।
  धुआं खत्म होने के बाद आग बनते ही भुट्टे आग पर बिछा कर ऊपर से अंगारे से ढंक दिए जाते थे और बेना (हाथ का पंखा) लेकर आग की आंच तेज की जाती थी ताकि अच्छी तरह से भुट्टे सिंक जाए।
इधर भुट्टे सिंक सिंक कर निकाले जाने लगते थे और उधर पत्ते पर नमक लेकर घर के सदस्य चारपाई पर लाइन लगाकर बैठ जाते थे। गरम गरम भुट्टा नमक लगा कर पेट भर नही बल्कि मन भर खाया जाता था बाद में भले पेट ही दर्द करे लेकिन भुट्टे का स्वाद ऐसा होता है कि कितना भी खाते जाओ रुकने का मन ही नहीं करता है।
   भुट्टा सेंक कर हम सब खा लेते थे और डंठल पशुओं के लिए बहुत बेहतरीन हरा चारा हो जाता था।
   जब भुट्टे के दाने कड़े हो जाते थे तब उन्हें पकने के बाद तोड़कर छिलके सहित एक दूसरे से बांध कर गुच्छा बनाकर घर के किसी कोने में लटका दिया जाता था।
जब बारिश होती थी तब उन्हे छीलकर उनके दाने निकोला (निकालकर) जाता था और मां चूल्हा जला कर मिट्टी की खपरी चढ़ा देती थी। गर्म रेत में गर्म गर्म लावा (पॉपकॉर्न)भुनने लगती थी और हम सब मौनी नमक लेकर चबाने बैठ जाते थे। इस लावे के संग राब का सिखरन मिल जाता था फिर तो पूछिए मत आनन्द ही आ जाता था।
   जब धान की रोपाई शुरू होती थी तब भाड़ से जाकर ढेर सारा लावा भुजा लाया जाता था और धान की रोपाई करने वाले लोगों को यही लावा और सिखरन नाश्ता दिया जाता था। देशी भुट्टे के भूनते समय जो दाने फूटकर लावा नही बनते थे वो भी बहुत स्वादिष्ट लगते थे। हमारी तरफ उन्हे ठोर्रा कहा जाता है।
   अब तो मक्की का प्रयोग इतना व्यंजन बनाने में होता है कि हम सब को सारे नाम भी नहीं पता होगे।
 स्वीट कॉर्न नाम से न जानें कितने तरह के भोजन में डाली जाती है। 
कॉर्न प्लैक्स और दूध शहरी लोगों का नाश्ता होता है।
इसके पापड़ बनते हैं, नमकीन बनती है, सेव बनती है।
  हाइब्रिड पॉपकॉर्न चार दाने पैकेट में बन्द करके ऊंची कीमत पर बिकते हैं जिन्हे घर पर लाओ कुकर में सेंक कर खा लो न मन भरता है न पेट भरता है और न ही गांव के लावे का स्वाद आता है।
  मक्की का आटा रोटी बनाकर खाने से मधुमेह के रोगी को फायदा करता है। यूं भी मक्की का आटा सर्दियों में अब लगभग सभी घरों में अक्सर खाया जाता है।
  मक्की के जो बाल होते हैं अर्थात सिल्क हमारी तरफ तो भुआ कहते हैं। उसे पानी में उबालकर चाय की तरह पीने से अनेक रोगों में लाभ देती है।

आजकल तो जोनहरी की खेती होनी लगभग बंद हो गई है अब तो ठेले पर या सड़क किनारे बिकने वाले भुट्टे को खरीदकर खा कर ही मन को समझाना पड़ता है।

पोस्ट अच्छी लगे तो लाइक और शेयर करें 
कॉमेंट में अपने विचार अवश्य व्यक्त करे

No comments:

Post a Comment