Wednesday 11 September 2024

अपनी रोशनी की बुलन्दी पर न इतरा इतना*!!*चिराग सबके बुझते है हवा किसी एक की नहीं*!!

*सम्पादकीय* 
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*अपनी रोशनी की बुलन्दी पर  न इतरा इतना*!!
*चिराग सबके बुझते है हवा किसी एक की नहीं*!!

ज़िन्दगी के सफर में न जाने कितने अरमानों को दिल में दफन कर आगे बढ़ना पड़ता है। कडी मशक्कत त्याग समर्पण के बाद ही मंज़िल की विरान राहों में तकदीर की रौशनी नजर आती है।जगत नीयन्ता के सम्विधान में इन्सान सबसे बुद्धिमान प्राणी माना जाता है मगर वर्तमान के परिवेश को देखकर भगवान भी अपने सम्विधान के नियमों को बदलने की सोचते होंगे।धर्म धरातल छोड़ चुका!हर तरफ अधर्म का बोलबाला है।चेहरा सभी के चमक रहे हैं लेकिन दिल काला है!इन्सानियत शर्मशार है मानवता का निकल चुका दीवाला है!सम्बन्धों की मर्यादा तार तार हो चुकी है! हर तरफ स्वार्थ की दरिया उबल रही है! चहुंओर मतलब परस्ती की हवा चल रही है! जिन्दगी की शाम इसी प्रदुषित वातावरण में हर रोज ढल रही है!कब अपना पराया हो जायेगा! कब हसीन ख्वाब अपनत्व के धरातल पर परिपक्व होने के पहले ही टूट जायेंगे पता नहीं है! सोच के समन्दर में स्वार्थ की कश्ती पर सवार बिना पतवार‌ एतबार की सरहद तक पहुंचना आसान नहीं रहा क्यों की मतलब परस्ती का तूफान बार बार बढ़ती उम्र में धैर्य का इम्तिहान लेने को आतुर रहता है।!कितना अजीब खेल है विधाता का सभी के सोच पर पर्दा है! कर्तब्य की किताब सभी को पढ़ाया जाता है लेकिन जिम्मेदारी की इबारतें उस किताब से गायब है! आज हालात देख लिजीए आधुनिकता के आवरण में सारा वातावरण जहरीला हो गया है!पूरा पर्यावरण प्रदूषित हो चला है! कौन ऐसा है जो माया की महानगरी में नहीं छला गया है। वक्त की बात है साहब कभी महकते गुलाब सरीखे वातावरण में संयुक्त परिवार गुणवत्तापूर्ण आचरण के साथ सम्मवरण पाता था! बसूधैव  कुटूम्बकम का सार्वभौम सूत्र घर घर प्रचलित था! धर्म कर्म आस्था के भीतर ही ब्यवस्था संचालित होती थी! हर्षोल्लास के साथ हसीन पल कम शिक्षा दीक्षा के बावजूद पुख्ता वजूद कायम रखता था! मगर हालात ऐसे हैं की अब कुछ कह नहीं सकता! परिवर्तन की परिष्कृत पारदर्शी परम्परा पारलौकिकता के दर्पण में दर्द की जो तस्वीर परम्परा वादी समाज के प्रगतिशीलता को लिए दिखती है वह पुरातन संस्कृति  के गौरवशाली संस्कार का  उपहास है!भले ही आज हम अपने को तरक्की सुदा जीवन के राह पर चलने वाली व्यवस्था के प्रभावशाली आस्था का अंग समझते हो लेकीन हमने जो खोया है! और जो आज बोया है! वह आधुनिकता के धरातल  पर विनाश की जहरीली पैदावार के
उत्पादन के लिए माकूल माहौल बना रहा है? प्रकृति की प्रभाव शाली खेल में न जाने कितनी सभ्यताओं का लोप हो गया! फिर विलोपन का खेल शुरु है! आजकल गुरुकुल ब्यवस्था भंग हो गयी है! तिजारत करने वाला ही गुरू हैं। जहां शिक्षा दीक्षा का व्यापार होता है वहां पर शिक्षक दिवस क्या मायने रखता है वाह भाई यह देखकर हंसी भी आती है अफसोस भी होता है! मगर इस सभ्य समाज में गतानुगति को लोक: वाली सूक्ति आज भी चरितार्थ हो रही है। हम आप परम्परा वादी है आशावादी है लेकिन खुद के घर की व्यवस्था के लिए लिए नही- दुसरो के लिए हरिष्चन्द वादी है। क्या आप नहीं जानते पहला गुरू कौन है ! आखिर उनका अपमान क्यों! इस पर शिक्षक समाज क्यों मौन!दिखावटी बना वटी सोच के साथ अपनों के दिल पर चोट पहुंचाने वाले वे लोग भी गुरू शिष्य परम्परा पर धड़ल्ले से मैसेज भेज रहे हैं जिनके मां बाप वृद्धा आश्रम अनाथालयो में अश्कों की वारिश से दिन रात भीगकर अपने नसीब पर पश्चाताप कर रहे हैं!अपनी पढ़ी लिखी औलादों के कर्मों को याद कर माथा पीट रहे हैं। धन्य है आज की आधुनिक पीढ़ी की सोच  !-------------!

🙏🙏🌹🌹🕉️ 🌹🌹🙏🙏 एडिटर के. कुमार 


*"कर्तव्य"*

*ये क्या कर रही हो निशा तुम.....अपनी पत्नी निशा को कमरे में एक और चारपाई बिछाते देख मोहन ने टोकते हुए कहा ...*

*निशा -मां के लिए बिस्तर लगा रही हूं आज से मां हमारे पास सोएगी....*

*मोहन-क्या ..... तुम पागल हो गई हो क्या ...*

*यहां हमारे कमरे में ...और हमारी प्राइवेसी का क्या  ...*

*और जब अलग से कमरा है उनके लिए तो इसकी क्या  जरूरत...*

*निशा-जरूरत है मोहन .....जब से बाबूजी का निधन हुआ है तबसे मां का स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता तुमने तो स्वयं देखा है पहले बाबूजी थे तो अलग कमरे में दोनों को एकदूसरे का सहारा था मगर अब ....मोहन बाबूजी के बाद मां बहुत अकेली हो गई है दिन में तो मैं आराध्या और आप उनका ख्याल रखने की भरपूर कोशिश करते है ताकि उनका मन लगा रहे वो अकेलापन महसूस ना करे मगर रात को अलग कमरे में अकेले ....नहीं वो अबसे यही सोएगी...*

*मोहन-मगर अचानक ये सब ...कुछ समझ नहीं  पा रहा तुम्हारी बातों को...*

*निशा-मोहन हर बच्चे का ध्यान उसके माता पिता बचपन में रखते हैं सब इसे उनका फर्ज कहते हैं वैसे ही बुढ़ापे में  बच्चों का भी तो यही फर्ज होना चाहिए ना...और मुझे याद है मेरा तो दादी से गहरा लगाव था मगर दादी को मम्मी पापा ने अलग कमरा दिया हुआ था ...और उसरात दादी सोई तो सुबह उठी ही नहीं ...डाक्टर कहते थे कि आधी रात उन्हें अटैक आया था जाने कितनी घबराहट परेशानी हुई होगी और शायद हममें यसे कोई वहां उनके पास होता तो... शायद दादी कुछ और वक्त हमारे साथ ...मोहन जो दादी के साथ हुआ वो मैं मां के साथ होते हुए नहीं देखना चाहती ...और फिर बच्चे वहीं सीखते है जो वो बड़ो को करते देखते हैं मैं नहीं चाहती कल आराध्या भी अपने ससुराल में अपने सास ससुर को अकेला छोड़ दे उनकी सेवा ना करें ...आखिर यही तो संस्कारों के वो बीज है जोकि आनेवाले वक्त में घनी छाया देनेवाले वृक्ष बनेंगे ...*

*मोहन उठा और निशा को सीने से लगाते बोला-मुझे माफ करना निशा... अपने स्वार्थ में.. मैं अपनी मां को भूल गया अपने बेटे होने के कर्तव्य को भूल गया ...और फिर दोनों मां के पास गए और आदरपूर्वक उन्हें अपने कमरे मे ले आए....*

*घर का प्रत्येक सदस्य अपना कर्तव्य क्या है ये बात जिस दिन समझ लेगा हमारा घर साक्षात स्वर्ग बन जायेगा दोस्तों!*

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♥ हँसते रहो मस्त रहो
 व्यस्त रहो स्वस्थ रहो ♥

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