Friday, 3 March 2023

सब नातौ मैं तुम सौं मानत ।इतनी कबहूँ कहौ हंसि तुमहू, हौं कि नहीं मोहि जानत ।कबहूँ मैं गुन बरनत तुमरे , कबहूँ बिनती ठानत । “भोरी” की सुधि तुम्हहूँ करति हौं, निज चेरी करि मानत ।।”

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एक महिला रोटी बनाते बनाते 
 *"गुरुमंत्र"* का जाप कर रही थी काम करते-करते भी उसे *"गुरुमंत्र"* का जाप करने की आदत हो गई थी ।
एकदिन एकाएक धड़ाम से जोरों की आवाज हुई और साथ में दर्दनाक चीख। कलेजा धक से रह गया जब आंगन में दौड़ कर ऊपर से नीचे झांकी तो आठ साल का उनका लाडला बेटा चित्त पड़ा था, खून से लथपथ।  दहाड़ मार मार कर रोने लगी। घर में उसके अलावा कोई नहीं था, रोकर भी किसे बुलाती, फिर बेटा को संभालना भी तो था।

दौड़ कर नीचे गई तो देखा बेटा आधी बेहोशी में माँ-माँ की रट लगाए हुए है। मां की ममता तड़प गई, आंखों से निकल कर अपनी मौजूदगी का अहसास करवाया। फिर 10 दिन पहले ही करवाये अपेंडिक्स के ऑपरेशन के बावजूद ना जाने कहाँ से इतनी शक्ति आ गयी कि बेटे को गोद मे उठा कर पड़ोस के नर्सिंग होम की ओर दौड़ी। रास्ते भर अपने सद्गुरु को जी भर कर कोसती रही, बड़बड़ाती रही, हे गुरुदेव क्या बिगाड़ा था मैंने तुम्हारा, जो मेरे ही बच्चे को..। खैर डॉक्टर मिल गए और समय पर इलाज होने पर बेटा बिल्कुल ठीक हो गया। 

चोटें गहरी नहीं थी, ऊपरी थीं तो कोई खास परेशानी नही हुई।... रात को घर पर जब सब टीवी देख रहे थे तब उस औरत का मन बेचैन था। सद्गुरु से विरक्ति होने लगी थी। एक मां की ममता गुरुसत्ता को चुनौती दे रही थी।
               
उसके दिमाग में दिन की सारी घटना चलचित्र की तरह चलने लगी। कैसे बेटा आंगन में गिरा। और फिर एकाएक उसकी आत्मा सिहर उठी, कल ही तो पुराने हैंडपंप का पाइप का टुकड़ा आंगन से हटवाया है, ठीक उसी जगह था जहां  बेटा गिरा था। अगर कल मिस्त्री न आया होता तो..? 

उसका हाथ अब अपने पेट की तरफ गया जहां टांके अभी हरे ही थे, ऑपरेशन के। आश्चर्य हुआ कि उसने 20-22 किलो के बेटे को उठाया कैसे, कैसे वो आधा किलोमीटर तक दौड़ती चली गयी? फूल सा हल्का लग रहा था बेटा। वैसे तो वो कपड़ों की बाल्टी तक छत पर नही ले जा पाती है। 
फिर उसे ख्याल आया कि डॉक्टर साहब तो 2 बजे तक ही रहते हैं  और जब वो पहुंची तो साढ़े 3 बज रहे थे, उसके जाते ही तुरंत इलाज हुआ, मानो किसी ने उन्हें रोक रखा था। 

उसका सर गुरु चरणो में श्रद्धा से झुक गया। अब वो सारा खेल समझ चुकी थी। मन ही मन सद्गुरु से अपने शब्दों के लिए रोते रोते क्षमा मांगने लगी।

तभी टीवी पर प्रवचन आ रहा था, 

*"मैं तुम्हारे आने वाले संकट रोक नहीं सकता क्योंकि वह तुम्हारा ही कर्म है। लेकिन तुम्हें इतनी शक्ति दे सकता हूँ कि तुम आसानी से उन्हें पार कर सको, तुम्हारी राह आसान कर सकता हूँ। बस धर्म के मार्ग पर चलते रहो।"* 

उस औरत ने घर के मंदिर में झांक कर देखा तो सद्गुरु की छवी मुस्कुरा रही थी.!!ॐ श्री गुरुवे नमः।

: कृष्ण प्रेमगीता
( भाग ५४ )
२६/४/२२

मनुष्य जीवन के एक एक पहलू पर प्रकाश डाला जा रहा है इस प्रेम गीता में..... समस्त जीवोंके जो स्वामी है हर जीव की आत्मा में बसनेवाले परम तत्व परमात्मा... हमारे जीवन को प्रेम की रोशनी से प्रकाशमान कर रहे है....  रूक्मिणी के उत्तर से बस मुस्कुराए लक्ष्मीपति..... फिर दृष्टि सत्यभामा जामवंती आदि अष्ट पटरानियों की तरफ घुमाई.... अपने बड़े बड़े नयनों से वो कमलापति पुछ रहे थे और कोई उत्तर देगा..... ??? सत्यभामा रानी पर दृष्टि रोके पूछते है इशारे से.... फिर सत्यभामा कहती है... विवाह ही तो प्रेम का बंधन है जिससे जीवनभर साथ निभाते है.... प्रेम का अस्तित्व ही विवाह है.... विवाह ही तो प्रेम का लक्ष है जहा दो आत्माओं का मिलन होता है और वो तन और मन से सदा एक दूसरे के हो जाते है... विवाह प्रेम को पूर्ण करता है.... विवाह बिना प्रेम का कोई अस्तित्व नहीं होता.... कृष्ण मुस्कुराते है मन में विचार करते है....द्वारकाधीश की पत्नी हो कर भी संसार के साधारण मनुष्य जैसे ही भाव है मेरी रानियों के..... फिर सत्यभामा पुछती है... बताए नाथ मैने उचित कहा ना...??? 
द्वारिकाधिश बस मुस्कुराते है.... फिर अपनी आंखे कुछ क्षण बंद कर लेते है..... ऐसे लगता है जैसे अपनी स्वामिनी की आराधना कर रहे हो.... प्रसन्न मुख मण्डल है दिव्य तेज... मोहक रूप... प्रेम भरे नयन धीरेसे खोले है.... फिर कहते है.... ऐसा करता हूं पहले एक प्रसंग सुनाता हुं... तत्पश्चात हम विवाह और प्रेम का विवेचन करेंगे.... सारी रानियां वृन्दावन की कथाएं और प्रसंग सुनने में अधिक रुचि लेती है.... वो प्रेमविश्व कभी इन रानियों ने न देखा है ना अनुभव किया है.... श्रीराधा प्रति हृदय में श्रद्धा भी उत्पन्न हो गई है तो इनको राधा गोपी इन सब के बारेमे सुनना अधिक प्रिय हो गया है.... सब प्रसन्नता से एक स्वर में कहती है... हा हा नाथ सुनाए... कृपा कर सुनाएं.... कृष्ण बोहोत प्रसन्न हो रहे है उनकी रानियो की उत्सुकता देखकर.... कृष्ण मुस्कुराते है और कहते है चलो प्रेम स्थली वृंदावन चले.... आगे सुनाते है.... व्रज में एक प्रौढ गोपी थी जिसका नाम था कुटिला.... नाम की तरह ही थी वो मुझसे ज्यादा लगाव नहीं था उसे ऐसा वो दिखाती थी..... पर व्रज में है इसका अर्थ है की पिछले जन्म में हृदय से मुझसे जुड़ी हो.... पर व्रज में होते हुए भी, प्रेम का स्पर्श पा कर भी विधि के विधान से वो मुझसे दूर रहती थी.... व्रज की बहु बेटियां उस काले नंदके छोरे के पीछे पागल हुई फिरती है ये उसे बिलकुल बरदाश नही था.... उसे लगता ये सब गोपियां भ्रष्ट हो गई है.... और नंद का छोरा काली जादू से इनको वश करता है.... हसते है कृष्ण वो बेचारी कुटीला क्या जाने मैने उन्हे नही उन्होंने मुझे वश कर रखा था... सब रानियां भी हसने लगती है.... उस कुटिला की बहु भी थी जिसे कभी घर से बाहर नहीं आने देती थी उसे कहती थी मेरी तरह तुझे भी पतिव्रता बनाना है किसी पुरुषपर तेरी नजर नही पड़नी चाहिए और उस नन्दके छोरे पर तो बिलकुल भी नहीं.... वो दुष्ट है काली जादू जनता है सारी व्रज की गोपियों को भ्रष्ट किया है उसने उनमें से कोई स्वर्ग नही जायेगी सब नरक में जाएगी.... पर तुझे मेरी तरह पतिव्रता बनाना है ना...?? बेचारी बहु हा में गर्दन हिलाती... बस फिर क्या था... बहु का घर से बाहर निकल बंद था... किसिसे बातचीत भी नही करती थी.... मेरा तो नाम भी कुटिला उसे श्रवण नही होने देती थी.... बड़ा अभिमान था उसे पूरे ब्रज में कहती फिरती मैं और मेरी बहु परम पतिव्रता है.... मेरी पूजा किया करो तो तुम्हे भी पुण्य मिलेगा.... भोली भाली व्रज गोपियां कुटिला की बात मान लेती उसकी पूजा भी करती.... वो सब को कहती वो यशोदा का छोरा है ना उससे दूर रहना .... वो सब नारियों को जादूसे अपने प्रेम जाल में फसता है.... फिर देखा ना कैसी हालत हो जाती है.... कोई सुध बुध नही रहती ये छोरिया तो पागल कर दी है उसने रोती ही रहती है... उसको पुकार पुकार कर.... अब ये ब्याह कर जाए तो क्या पतीसे प्रेम कर सकेगी... पतिव्रता तो बनाना दूर ही है पत्नी भी बनाने योग्य ना होगी ये.... गोपियां बस कुटिला की बाते सुनती पर मानती नही... कोई कहती ना काकी कन्हैया तो कितनो प्यारो है.... कितनो भोलो है हमारो कान्हो...वो क्या जादू करेगा... एक कटोरी माखन के लिए हम उसे नचाती है और वो चितचोर नाचे है .... ये सुन सब गोपियां प्रसन्नता से खिलखिलाती है.... कुटिला रूष्ट हो वहा से निकल जाती..... कोई भी व्रज में आता तो उसको मिलाकर अपने पतिव्रता होने का ढोल बजाती.... मैं कभी ध्यान नहीं देता उसकी और ना ही कभी उसके घर गया था माखन चुराने.... पर एक बार कुटिला का द्वेष और अहंकार इतना बढ़ गया की उसने राधा की सखियों को मार्ग में रोका और बड़ी कड़वी बाते सुनाई..... फिर भी सारी सखियां चुप थी... सब जानती थी कुटिला प्रौढ है विक्षिप हो गई है कुछ भी बोलती है.... पर जब कुटिला ने हमारी प्यारी के बारेमे बुराभला कहा तब सारी सखियां दुखी हो गई उसका विरोध भी किया .... पर कुटिला अभिमान से इतनी भर गई थी की शब्दों की जगह विष उगल रही थी.... उसने कहा मैं जानती हु तुम सब छोरियो को उस वृषभान की छोरी ने ही बिगड़ा है.... मैं जानती हु वो रात्रि में छुपछुप के उस नंद के छोरे को मिलने जावे है.... वन में अकेली... हाय हाय भगवान जाने क्या करे है दोनो.... वो तो बरसाने की राजकुमारी है पर थोड़ी भी लाज शर्म ना रखी उसने.... भ्रष्ट हो गई है  वो तो भ्रष्ट... कोई पवित्रता ना है उसमे.... उसके साथ तुम सब भी भ्रष्ट हो गई हों..... उस राधा के साथ तुम सब का भी मुख नही देखना चाहिए मुझे तो फिर से स्नान करना होगा तुम्हारी छाया जो पड़ी है मुझ पर..... ऐसी कड़वी बाते सुनाकर कुटिला तो चली गई पर हमारी सखियां बोहोत दुखी हुई और बोहोत रोयी.... उनको दुख था की हमारी प्यारी जू के बारे में उसने कितना बुराभला कहा...... अगले दिन ललिता ने मुझे सारी बाते बताई.... मैं समझ गया था की मुझे क्या करना है.......

( शेष भाग कल )
कृष्ण की दिवानी कृष्णदासी

 आज के विचार

“वृन्दावन के भक्त - 100”

!! विरही भक्त - भोरी सखी !!

7, 10, 2022

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गतांक से आगे -

सब नातौ मैं तुम सौं मानत ।
इतनी कबहूँ कहौ हंसि तुमहू, हौं कि नहीं मोहि जानत ।
कबहूँ मैं गुन बरनत तुमरे , कबहूँ बिनती ठानत । 
“भोरी” की सुधि तुम्हहूँ करति हौं, निज चेरी करि मानत ।।”

 छतरपुर की पहाडियों में बैठ कर भोला, अब भाव जगत में निकुँज चले जाते ।

*****देखो प्यारी !  ये है श्रीवृन्दावन ,   या की शोभा  कितनी दिव्य है ...उधर देखो !  वो मोर ,  नही नही  वा माहुं देखो -   मोर को नृत्य ....वा लतान में कितने फूल खिल रहे हैं .....प्यारी जू !  फूलन के भार सौं लताहू झुकी जाय रही है ।  श्याम सुन्दर बोल रहे हैं ...अपनी प्राण प्रिया को  एकान्त में श्रीवन की शोभा दिखा रहे हैं .....पर ये क्या !  श्रीराधा जी का ध्यान नही है  श्याम सुन्दर की बातों में ....न आज उनकी रुचि है ...वो कुछ  अनमनी सी हैं ...कभी रुक कर  चारों ओर देखती हैं ....फिर  श्याम सुन्दर के साथ चल देती हैं .....पर श्याम सुन्दर अतिप्रसन्न हैं ....उनके मुखमण्डल में वो अति प्रसन्नता आज स्पष्ट दिखाई दे रही है ।   वो छुपाना चाहते हैं पर छुपा नही पा रहे .....अहो !     मैं आपसौं  बतिया रह्यों हूँ  पर आप मेरी बातन में ध्यान न देके ...चारों ओर कहा देख रही हो ?  श्याम सुन्दर ने अब श्रीजी से पूछ ही लिया ।

सखियाँ कहाँ हैं ?     श्रीराधा रानी ने जानना चाहा ।  

श्याम सुन्दर को अब स्पष्ट बात कहनी पड़ी ....”मैंने ही सखियन कूं कहीं ओर भेज दियो ।”

क्यों ?   गम्भीर मुखमुद्रा बनाकर  श्रीजी ने पूछा ।

क्यों की मैं  एकान्त में आप के साथ विहार करनौं चाहूँ  , प्यारी जू !  जा लिये मैंने सखियन कुँ भेज  दियो कहूँ और ....पर प्यारी ! आप चलो ...हम दोनों ही हैं ..आनन्द आय रह्यो है ...चलो ।

श्याम सुन्दर जब  श्रीराधा जी का हाथ पकड़ कर आगे ले चले   तब  श्रीराधिका जी बैठ गयीं वहीं ....उनके नेत्रों से अश्रुधार बहने लगे...ये सब एकाएक हुआ था  इसलिए  श्यामसुन्दर भी समझ नही पाये ...वो बैठ गये  श्रीजी के चरणों में ...और ...क्या हुआ ! प्यारी ! क्यों इतनी अधीर हो रही हो ...

प्रियतम !  हमारी सखियाँ हम से कितना प्रेम करती हैं ...एक क्षण को भी हम से दूर नही रहतीं ....प्यारे ! रात्रि में हम दोनों सो जाते हैं पर वो नही सोतीं ....कुँज के रंध्रन से  सोते हुये हम दोनों को निहारती रहती हैं ....हमें क्या प्रिय है क्या अप्रिय  इसका सावधानी से पालन करती हैं .....हमारे लिए अपने प्राणों को वार कर सेवा में अपने को न्योछावर कर  देती हैं ......ऐसी मेरी प्यारी सखियाँ हैं  उनके बिना मैं कैसे रहूँ !  उनका जब मेरे बिना जीवन नही है तो मेरा भी उनके बिना कैसे जीवन हो सकता है ।

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ये भोला का भाव जगत था ....सत्य था ?  अजी ! परम सत्य  ।   उसकी ये लीला चिन्तन की धारा बह चली थी ...वो निकुँज में था ....ये सब उसके सामने ही हो रहा था .....उसके नेत्रों से अश्रु प्रवाह चल पड़े ....ओह !  “श्याम” से ज़्यादा “स्वामिनी” करुणामयी हैं ...श्याम सुन्दर को सखियों से या जीवों से मतलब नही है ...पर स्वामिनी तो  ....भोला को अब “रसोपासना” स्पष्ट होता जा रहा था ....श्रीजी की कृपादृष्टि  उसपर बरस पड़ी थी ।

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लाड़ली  रोती ही जा रही हैं .....उन्हें सखियाँ चाहिए ....सखियों को लेकर द्रवित हृदया हो गयीं थीं प्रिया जू ....पर ये क्या !  तभी  जितने श्रीवन के  वृक्ष थे उसमें से ही सखियाँ प्रकट हो गयीं .....लताओं से ललिता विशाखा  आदि सब प्रकट हो गयीं ....और हंसते हुये बोलीं ....स्वामिनी ! आपको क्या लगा हम आपसे दूर चली गयीं हैं ....हम तो यहीं थीं ...लताओं के रूप में ...हम कहीं नही जा सकती आपको छोड़कर .....ये कहते हुये सब सखियाँ  अपनी स्वामिनी के चरणों में गिरने लगीं ....तो तुरन्त  स्वामिनी किशोरी जू ने सखियों को उठाकर अपने हृदय से लगा लिया ।

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भोला नाथ  रो रहे हैं ...आहा ! ब्रह्म में करुणा नही है ...करुणा तो उनकी आल्हादिनी में है ..ब्रह्म नीरस है ...सरस तो आल्हादिनी के संग होने पर होता है ....रस ब्रह्म  में जो प्रकट है वो आल्हादिनी के कारण ही है ...तो करुणा दया कृपा सब आल्हादिनी ही हैं....फिर ब्रह्म में क्या है ? कुछ भी तो नही ....भोला नाथ पुकार उठे .....हे स्वामिनी ! हे राधिके ! हे करुणामयी ।

भोला उठो तुम !  

तभी छतरपुर नरेश विश्वनाथ सिंह  आगये थे  उनको सूचना मिल गयी थी कि भोला पहाड़ी में जाकर बैठा है और प्रातः से ही गया है ....अब सन्ध्या होने को आयी है ।

कवित्व शक्ति अपूर्व है,  मेधा प्रवल व्यक्तित्व भोला के  प्रतिभा को नरेश समझ गये थे ।

भोला कुछ देर में उठा .....चलो अब भोला ! कल से तुम्हें वकालत की तैयारी करनी है ...

आदेश था नरेश का ...भोला कुछ नही बोले ..अभी तर्क आदि करने की  इच्छा भी नही ....सिर झुकाए निकुँज रस में भिंगे ये बस चल रहे थे । 

“इतनी बात कृपा करि दीजै ।
मिलन चटपटी हिय में लागै , विरह ताप तन छीजै ।

ओह !  

शेष कल -

मीरा चरित 
भाग- 82

भीत पर भगवान के चित्र टँगे हुये और झरोखे पर भारी मोटा पर्दा बँधा हुआ था।उन्होंने पलँग के नीचे झुक कर देखा।एक हाथ से जाजिम उलट दी और पाँव पटककर जाँच की कि नीचे तहखाना तो नहीं है।तलवार के एक ही झटके से झरोखे का परदा लटक गया।क्रोध में चितबंगे राणाजी फिरकनी की भाँति कक्ष में घूम रहे थे।उनकी देह के धक्के से कलशी गिरकर टूट गई।कक्ष की भूमि पर पानी पानी हो गया।जब कहीं चीड़ी का पूत भी नहीं मिला तो वे मीरा के सामने आकर खड़े हो गये और डरावने स्वर में पूछा- ‘कठै गयो वो थाँको माटी? (कहाँ गया वह तुम्हारा पति?)
‘अभी तो यहीं थे।चौपड़ खेल कर पौढ़ने की तैयारी कर रहे थे कि आप पधार गये’- मीरा ने सहज सरल उत्तर दिया- ‘आप क्या उन्हें ढ़ूढ़ रहे है? बहुत अच्छी बात है।यहचेतना जब भी आये, प्रभात जानिए, पर वे ढ़ूढ़ने से नहीं मिलते लालजी सा, उनकी प्रतीक्षा की जाती है।वे चराचर के वासी, कहाँ ढ़ूढ़ उनको.....’
‘चुप रहिए’- बीच में ही गरज कर महाराणा ने उन्हें रोक दिया- ‘सीधे सीधे बता दीजिए भाभी म्हाँरा, नहीं तो मुझसा बुरा न होगा’- वे हाथ की तलवार उनके सामने करके बोले।
‘मैं कहाँ बताऊँ लालजी सा।वे कहाँ नहीं हैं? वे क्या किसी के बस में हैं?’
‘मैं कहता हूँ कहाँ है वह जो आपसे बातें कर रहा था।मैने अपने कान से आदमी का स्वर सुना है कुलक्षिणी।तुम्हारे जीने से हम सब जीवित ही मृत केसमान हो गये।मुँह पर कालिख पुतवा दी तुमने।’
राणाजी का क्रोध सीमा पार कर गया। वे मर्यादा भूल गये।आपसे तुम पर आ गये और अब भयंकर क्रोध के वशीभूत होकर तलवार का वार करते हुए भयानक स्वर में बोले- ‘ले कुल कलंकिनी, ले अपनी करनी का फल।’

दासियों के मुख से अनजाने ही चीख निकल गई, किंतु यह क्या? मीरा की देह से खंग यों पार हो गया, जैसे शून्य से पार हुआ हो।मीरा तो जहाँ की तहाँ खड़ी मुस्करा रही थी।यह देखकर राणा भौंचक रह गये, किंतु क्षण भर पश्चात ही दुगने वेग से अंधाधुंध वार करने लगे, मानों युद्ध भूमि में शत्रुओं से घिर गये हों।मीरा को हँसते देख राणा का हाथ रूक गया।भय और आश्चर्य से आँखे फाड़ फाड़ कर वे उनकी ओर देखने लगे।उन्होंने तलवार की धार पर अगूँठा फेरा देखा और फिर उछलकर मीरा पर पुन: घातक वार किया।मीरा पुन: हँस दी।राणाजी ने देखा कि एक नहीं दो मीरा खड़ी हैं।वे पागल की तरह कभी इसे और कभी उसे देखते कि कौन सी सच है और कौन सी झूठ।उन्होंने दूसरी ओर दृष्टि फेरी तो उधर भी दो मीरा खड़ी दिखाई दीं।तीसरी ओर भी, चौथी ओर भी,चारों ओर, ऊपर नीचे जहाँ भी देखें मीरा ही मीरा।उन्होंने घबराकर आँखे बंद कर लीं, किंतु बंद आँखों के सम्मुख भी मीरा खड़ी हँख रही थी।वे तलवार फेंक कर चीखते हुए बाहर भागे- ‘अरे यह डाकिनी, जादूगरनी, खा गई रे खा गई।’
उनके जाने के पश्चात सब लोग थोड़ी देर तक पाषण की मूरत की तरह खड़े रह गये।फिर मीरा ने कहा- ‘चम्पा यह तलवार भूरीबाई को दे दे।लालजी सा को नजर कर आये।अपन इसका क्या करें?’
‘यह क्या हो गया बाईसा हुकुम?’- चम्पा ने जैसे उनकी बात सुनी ही न हो।
‘हुआ तो कुछ नहीं।लालजी सा ठाकुरजी के दर्शन करने पधारे थे, किंतु वह छलिया क्या तलवार के जोर से बस में आता है?’- मीरा ने हँस कर कहा, फिर गम्भीर हो गई- ‘मनुष्य का दुर्भाग्य, उसे गंगातट पर भी प्यासा रख देता है।तुम सबने भोजन कर लिया?’
‘नहीं हुकुम, अब किसको रोटी भायेगी? खाने बैठी हीं थी कि बादल बिजली गरज पड़े।’
‘बेंडी(बावरी) ऐसा क्या हो गया? जाओ तुम्हें मेरी सौगंध खा लो सभी जनों’- मीरा पलँग पर विराजते हुये बोली- ‘द्वार खुला ही रहने दो।किवाड़ बेचारे चरमरा गये हैं’- वे छोटे बालक की भाँति हँस दीं- ‘अबकी बार यदि लालजी सा एक लात भी लगा दी तो टूटकर बूढ़े मनुष्य के दाँतों की भाँति लटक ही जायेगें।अरे जाओ भई, रात आ रही है कि जा रही है?’
‘क्यों भूरीबाई तुम कहाँ थीं?’
‘मैं? मैं तो हाथ मुँह धोने गई थी।हो हल्ला सुना तो हाथ धोते ही दौड़ी आई।कौन जाने, अन्नदाता हुकुम को क्या हो गया है कि नित उठकर धतंग करवाते हैं।’- भूरी ने कहा।
‘करें तो भले करें’- गंगा बोली- ‘अग्नि में हाथ डालोगे तो जलने के अतिरिक्त क्या होना है? बाईसा हुकुम तो गंगा का नीर हैं।भावै तो स्नान पान करके स्वयं को पवित्र करो, भले दारू उबालकर सर्वनाश करो।’
‘हाँ द्खो न जीजी, अपन सब डर गईं किंतु बाईसा हुकुम तो मुस्कराती ही रहीं’- गोमती बोली।
‘जैसे बाईसा हुकुम के रहते हमें डर नहीं लगता वैसे ही वे फरमावैं कि जब चराचर में मेरे प्रभु ही हैं तो मुझे भय किससे हो?’- चम्पा ने समझाया।
‘पर तब भी जीजी, आश्चर्य नहीं होता तुझे? अन्नदाता की तलवार कैसे सपासप चल रही थी किंतु बाईसा हुकुम का रोयाँ भी खंडित नहीं हुआ।ऐसा क्या अपराध किया था इन्होने कि तलवार चलाने की आवश्यकता पड़ गई?’
‘भक्ति का प्रताप है बहिन, हम सबका सौभाग्य है कि ऐसी स्वामिनी के चरणों की चाकरी मिली’- चम्पा उल्लसित स्वर में बोल उठी।
‘तुम कुछ भी कहो जीजी, अन्नदाता हुकुम को क्या सपना आया, जो वे आधी रात को तलवार लेकर दौड़े दौड़े पधारे कि कक्ष में आदमी बोलता है।किसी ने अवश्य दूती(चुगली) खाई होगी।ठाकुरजी आदमी नहीं तो क्या स्त्री हैं?’- गोमती ने कहा।
‘यदि किसी ने दूती भी की होगी तो उसका फल वह स्वयं भोगेगा।हमें क्या? खोटे मनुष्य को भले भी खोटे ही नजर आते हैं।’
‘तुम सब समझ रही होगीं कि मैनें जाकर अर्ज की, किंतु तुम जिसकी कहो उसकी सौगंध खाऊँ, जो मैनें कुछ किया हो।मैं तो हाथ मुँह धोने गई थी। लौट रही थी कि अन्नदाता का स्वर सुनाई दिया।’
‘नहीं कहा तो बहुत अच्छा किया और कहा भी तो बिगड़ क्या गया?’- चम्पा ने कहा- ‘पत्थर पर सिर पटकने से पत्थर का क्या बिगड़ता है? माथा ही फूटेगा न?’

नेक परामर्श की उपेक्षा......

चारों ओर बातें होने लगीं कि श्री जी मेड़तणीजी सा को मारने पधारे किंतु तलवार ने देह का स्पर्श ही नहीं किया।वे एक से अनेक हो गईं।
क्रमशः

: आज  के  विचार

( "श्रीकृष्णचरितामृतम्" - भाग 80 )

!! वत्सपाल कन्हैया !! 

15, 6, 2021

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हे भगवन् ! कन्हैया के  "वत्स चारण" का मुहूर्त निकाल दीजिये ।

प्रातः ही महर्षि शाण्डिल्य की कुटिया में बृजराज पधारे थे  ।

कौन चरायेगा वत्स ?   क्या कन्हैया  ?  महर्षि नें  चकित होकर पूछा ।

जी !    कल से हठ पकड़ कर बैठ गया है ........कुछ खाता पीता भी नही है ......माखन फेंक देता है ......आप जानते ही हैं  वो कितना हठी है ।

ऋषि मुस्कुराये......ठीक है .....ये कहते हुये  ऊँगली में कुछ गणित बैठानें लगे ........कल   ,  कल का मुहूर्त उत्तम है .........ऋषि नें कहा   ।

पर  हुआ क्या  ?      ऋषि नें बृजराज से  रूचि लेकर पूछा  ।

तात !   ऋषि शाण्डिल्य भी सुनना चाहते हैं  कि  नन्दनन्दन नें क्या लीला की  अब  ।      उद्धव विदुर जी से बोले  ।

बृजराज नें  सुनाना आरम्भ किया ऋषि शाण्डिल्य को   ।

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"भद्र नें ही चढाया है कन्हैया को" .......बृजरानी आज क्रोधित हैं ।

सुबह से ही रट लगा रहा है   गौ चारण करनें जाऊँगा  ।

सुनो !   तुम लोग  क्या क्या सिखाते रहते हो  कन्हैया को  !

सखाओं को  डाँट रही हैं  बृजरानी  ।

नही ....मैने नही ! .....फिर मनसुख भद्र की ओर इशारा करके बताता है ।

मैं जानती हूँ  तुम सब मिले हुए हो ...........

"मुझे जाना है  गौ चरानें"

   कन्हैया   बस यही कह कह कर रो रहे हैं.....अपनें नन्हे नन्हे चरण पटक रहे हैं ।

सुन !  मेरे लाल !  गैया चरानें  बड़े बड़े जाते हैं  ।

मैया समझा रही है   .........पर  ऐसे कैसे मान जाएंगे   !

"मैं भी तो बड़ा हो गया हूँ" ,    फिर  अपनी लम्बाई नापनें लगे ।

तू समझता क्यों नही है ..........नुकीली सींगें हैं गैयाओं की ...........उसके खुर  कितनें कठोर हैं........और तू  कितना  माखन की तरह कोमल ......

ये कहते हुए मैया नें  गोद में उठा  लिया कन्हैया को ..........और माखन खिलानें लगीं ......क्यों कि अभी तक इसनें कुछ भी नही खाया  ।

मैं नही खाऊँगा !       फेंक दिया माखन ........हटा दिया मैया का हाथ ।

"मैं पिटूँगी तुझे".......बस इतना ही बोलीं थीं  मैया,  कि  जोर से रोना शुरू ......गोपियाँ सब इकट्ठी  हो गयीं थीं ......क्या हुआ , क्या हुआ ? 

हमारा कलेजा ही फट जाएगा   ऐसा लगा इसका रुदन सुनकर ..........क्या कह रहा है ये  बृजरानी ?   गोपियों नें पूछना आरम्भ कर दिया था  ।

अब इसकी हर जिद्द थोड़े ही मानी जायेगी .............अरे !  गैया सींग मार दे .......उनके खुर,   इसके कोमल पाँव में लग जाये .......गिर जाए .........कुछ भी हो सकता है ............मैं कैसे भेज दूँ इसे  ।

गोपियों को भी कोई समाधान नही मिल रहा ............बृजरानी भी दुःखी हैं ........गोप ग्वाल भी देख रहे हैं  ।

मैया !    हम हैं ना !   हम सब सम्भाल लेंगे  !

मनसुख नें आगे बढ़कर  मैया को समझाते हुए कहा   ।

सम्भालोगे तुम !      तुम भी तो छोटे छोटे हो ............हाँ ........मैया बोली ..........लाला !    तुम भी जाओ  और तुम्हारे साथ  जो गैया चरानें जाते हैं  वो भी जाएंगे.......कन्हैया नें मैया की बात सुनी   सुननें तक रोये नही..........फिर  रोना शुरू ........नही ....बड़े नही जाएंगे .......हम छोटे छोटे ग्वाल ही जायेंगे ........कन्हैया नें अपनी बात जोर देकर  कही ।

दाऊ भैया तो हैं ना  !   वो सब को बचा लेंगें  ।

छोटा सखा भद्र बोला । .........इन सबको  लगता है बलराम हैं तो डर किस बात का ...........वो सब देख लेंगें   ।

चुप करो !    तुम्हीं लोगों  नें इसे बिगाड़ा है .........दाऊ भी तो बालक ही है ........बृजरानी नें सबको चुप करा दिया  .........पर  कन्हैया की बात का समाधान न निकला.......तो कन्हैया का रोना शुरू ही था  ।

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हे भगवन् !     मैं सन्ध्या को  अपना कार्य इत्यादि देखकर जब  महल में गया .....तो वहाँ कन्हैया का रुदन !.........ओह !  मैं तो काँप गया ।

क्या हुआ !      क्या तुमनें फिर  इसे  दण्डित किया  ?

मैने बृजरानी से पूछा था  भगवन्  !   

कन्हैया मेरे  सामनें आगया था  रोते हुए ...............और मेरी गोद में बैठ गया ...............क्या चाहिये मेरे लाला को ?     बोलो !  

मैने उसके आँसू पोंछे .............तो वो मुझ  से बोला ..........

बाबा !  गैया चरानें जाऊँगा  !

पर !      तुम छोटे हो  !

नहीं .....मुझ से छोटे भी जाते हैं .......मैं बड़ा हो गया हूँ   ।

मैं उसकी बातें सुनकर  असमंजस में पड़ गया था .............मुझे बृजरानी नें सारी बातें बता दीं थीं .............मैं क्या करता  !

मेरा प्राण  है कन्हैया तो............मैं तुरन्त बोला .........तुम बछड़े चरानें जा सकते हो   ।

ठीक है...........मेरी गोद से उछल कर वो भागा बाहर ........और सब ग्वाल सखाओं को इकठ्ठा करके  बतानें लगा ...........मैं बछिया बछड़े चराऊँगा......छोटे छोटे  बछड़े .........मेरी "भूरी"  भी जायेगी ।

बछिया बछड़े  ये दूर तक नही जाएंगे  भगवन् ! ..........पास से ही उछलते हुए  वापस गोष्ठ में ही आजायेगें.......मैं क्या करता ?   

नही   बृजराज !   तुम्हारे यहाँ सच में भगवान नारायण ही कोई लीला कर रहे हैं.......इसलिये तुम निश्चिन्त हो जाओ .....कल "वत्स पाल"  हो जाएगा  तुम्हारा युवराज  । ऋषि  शाण्डिल्य नें बड़ी प्रसन्नता से  कहा  ।

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सोया कहाँ कन्हैया !     कल मुझे बछड़े चरानें जाना है ...........नही नही ........पूरा नन्दगाँव ही नही सोया  .........क्यों की उनका युवराज वत्सपाल   बननें जा रहा था  ।

उठ गए जल्दी ही .............स्नान करानें की जिद्द करनें लगे मैया से ।

मैया नें स्नान करा दिया ........घुँघराले बालों में तैल लगाकर  उन्हें सम्भाल दिया .......काजल आँखों में ........मोतियों की माला गले में ........पीली पीताम्बरी  ..........क्या दिव्य रूप हो गया था  ।

तभी महर्षि शाण्डिल्य भी विप्रों के साथ पधारे  ।

बछड़ों बछियाओं को   सामनें लाया गया ........आहा !  कोई दूध की तरह सफेद बछिया है  कोई  सफेद और काली .....भूरी तो है ही है ।

सुन्दर पूजन की थाली लेकर  चलीं बृजरानी .......पर ये क्या !  वो थाली मैया के हाथों से लेकर स्वयं ही चल पड़े थे  कन्हैया  ।

बाबा नें गोद में लेना चाहा ,  पर नही ....चलकर  ही गए ......आहा ! नन्हे से कन्हैया .......उनके हाथों में  पूजन सामग्री .............

ऋषि शांडिल्य नें  मुस्कुराते हुए मन्त्रोच्चार प्रारम्भ किया था ......कन्हैया नें अपनें नन्हे करों से  तिलक किया ।.....अरे !  पहला तिलक तुझे करूँ ?

उछलती हुयी आगयी थी  आगे "भूरी" .........मानों कह रही थी पहला तिलक मेरा .........कन्हैया नें उसका तिलक किया ......फिर सबका किया.........लकुट ली .........तभी  बृजरानी भीतर गयीं  और एक काली कमरिया कन्धे में डाल दी कन्हाई के........ताकि नजर न लगे ।

सब लोग देख रहे हैं ........निहार रहे हैं  कन्हैया के इस  रूप को ।

गोपियाँ पुष्प चढ़ा रही हैं.....गोप लोग अपनें बृज के युवराज को ऐसे देख कर गदगद् हैं  आहा !.......सच में नेत्र इन्हीं नें सफल किये हैं  तात !

उद्धव नें  विदुर जी को कहा   ।

शेष चरित्र कल-

Harisharan

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