"माता!"
घने वन में पेड़ से लटके एक राक्षस ने अपनी कर्कश वाणी को अधिकतम सम्भाव्य रूप से विनम्र बनाते हुए, भूमि पर बनी एक पर्णकुटी के बाहर से आवाज दी। अंदर से एक स्त्री बोली, "कौन? वज्रनाभ? क्या बात है बेटा? अंदर आ जा।"
वज्रनाभ पेड़ से उतर अपने पत्तों से बने अधोवस्त्र और सिर पर लगे गृद्ध-पंख को ठीक कर कुटिया के अंदर घुसा और देहयष्टि और वय में स्वयं से कहीं अधिक बड़ी स्त्री के चरणों में लेट गया। स्त्री ने अपने दीर्घ बाहु से उसे आशीर्वाद सा दिया और बोली, "क्या है पुत्र? पर रुक, पहले यह बता कि तूने प्रातः से कुछ खाया?
"हाँ माता, वनदेवी इस समय प्रसन्न हैं। वृक्ष फलों के भार से झुके हुए हैं।"
स्त्री हँस पड़ी और बोली, "फलों के भार से या तुम जैसे युवकों के भार से? तुम सब अभी भी वृक्षों पर क्यों लटके रहते हो? आर्यपुत्र ने भूमि पर निवास करने की पद्यति तो सिखाई है न? विश्व सभ्य होता जा रहा है और तुम राक्षस अभी तक वृक्ष से उतर नहीं पा रहे!"
युवक कुछ नहीं बोला। उसका और उसके समाज के कई लोगों का यह मानना था कि सभ्यता का यह अर्थ कैसे है कि हम प्रत्येक चीज में आर्यों की नकल करते रहें। तथापि उसने चुप रहना ही श्रेयस्कर समझा। युवक को चुप देख स्त्री बोली, "अच्छा छोड़, यह बता, इतनी संध्या को इधर कैसे आया? क्या युद्धभूमि से कोई नया समाचार मिला है? मेरे पुत्र ने पुनः किसी महान शत्रु का वध किया है?"
"माता, महाराज तो नित्य ही इतने महारथियों का वध करते हैं कि अब ऐसी सूचना मुझे उत्साहित नहीं करती। मैं तो यह बताने आया था कि कोई आर्य अपने विशाल रथ से वन की सीमा पर आया है और सीमा पर रथ रोककर पैदल ही इसी ओर चला आ रहा है।"
स्त्री तनिक चिंतित हुई और बोली, "क्या वह शस्त्र लेकर आया है?"
"उसके रथ में अत्यधिक और अद्भुत अस्त्र-शस्त्र हैं। पर उसने वह सब रथ में ही छोड़ दिए हैं। उसके हाथ में मात्र एक खड्ग है। प्रतीत होता है कि उसने मार्ग के झाड़-झंझाड को हटाने के लिए ही खड्ग पकड़ रखा है। अन्यथा वह तो अत्यंत मधुर मुस्कान के साथ आगे बढ़ रहा है। उसे देख लगता है कि वन से उसे प्रेम है। उसे देख भय नहीं, अभय की प्राप्ति होती है।"
"यदि ऐसा है तो उसे यहीं ले आओ। पर सावधान रहना।"
"जो आज्ञा माता।"
युवक चला गया और थोड़ी ही देर में कुटिया के द्वार पर वह सुदर्शन पुरुष खड़ा था। आसपास के वृक्षों पर राक्षस युवक सतर्क लटके-बैठे हुए थे कि हल्का सा संकेत मिलते ही उस पुरुष के प्राण हर लें। पर वह पुरुष तो जैसे अपराजेय और प्रेमालु दृष्टि से उन्हें देख बस मुस्कुरा ही रहा था। फिर उसने आवाज लगाई, "भाभी, ओ भाभी, देखो तो द्वार पर तुम्हारा देवर खड़ा है।"
अंदर से आवाज आई, "मैं आपको पहचानती नहीं आर्य, पर आर्यों के सम्बन्धों को समझती हूं। आप मुझे भाभी कह रहे हैं, अर्थात आप शत्रु नहीं हो सकते। कृपया प्रवेश करें।"
पुरुष अंदर गया और देखा कि स्त्री अपने कुलदेवता के सम्मुख बैठी हुई है और राक्षसोचित विधान से अपने देवता की पूजा कर रही है। पुरुष ने पहले उस देव-प्रतिमा को प्रणाम किया और पश्चात स्त्री के चरणों में झुक गया।
स्त्री अचकचा गई और बोली, "क्या आर्य भी राक्षसों के देव को और किसी राक्षसी को प्रणाम करते हैं?"
"भाभी, सारे देव उसी देवाधिदेव महादेव के रूप हैं। और महादेव तो सबके हैं। रही आपको प्रणाम करने की बात, तो क्या आपके बाकी तीन देवर आपको प्रणाम नहीं करते थे?"
"आप मुझे बार-बार भाभी कह रहे हैं! कृपया अपना परिचय दें।"
"मैं आपका देवर हूँ, एक ग्वाला हूँ, आपके दूसरे देवर पार्थ का सारथी हूँ और बड़े भैया भीम का प्रिय भाई हूँ। लोग मुझे अलग-अलग नामों से बुलाते हैं, भैया भीम मुझे कृष्ण कहते हैं।"
हिडिम्बा कृष्ण का परिचय सुन अचकचा गई। जो पुरुष राजा न होते हुए भी मथुराधीश और द्वारिकाधीश कहलाता है, जो समस्त संसार में बहुत श्रद्धा से देखा जाता है, जो उसके पति वृकोदर भीम को अत्यंत प्रिय है, उसका वह स्वागत करे, या अनेक राक्षसों सहित अपने पौत्र बर्बरीक की निर्मम हत्या करने वाले पुरुष को दुत्कार दे? इसी उहापोह में उसकी वाणी से कुछ न निकला। अंततः कृष्ण को ही बोलना पड़ा, "क्या भाभी, मुझे बैठने को भी नहीं कहोगी क्या?"
"मैंने आपके बारे में बहुत सुना है कृष्ण। आपने कभी किसी की नहीं सुनी और अपने मन की ही की है। आपको खड़ा रखने या बैठाने वाली मैं कौन होती हूँ। मुझे आर्योचित व्यवहार नहीं आते, अतः क्षमा करें। कृपया, स्थान ग्रहण करें।"
भूमि पर ही बैठ गए जनार्दन और बोले, "आप मुझसे रुष्ट प्रतीत होती हैं। मुझसे कोई अपराध हुआ है क्या?"
वाणी वक्र हो गई हिडिम्बा की, "अपराध? यह आप आर्यों की रीति है या यह विशिष्ट गुण आपका ही है? मेरे पौत्र का वध किया है आपने, और पूछते हैं कि क्या अपराध हुआ है? आपके भी तो पुत्र और पौत्र हैं न? मैं उनकी हत्या कर दूँ और फिर आपके समक्ष आपकी भाँति बैठ जाऊं तो आप क्या करेंगे कृष्ण?"
"बर्बरीक के लिए मुझे भी दुख है भाभी। पर यह युद्ध है। इस युद्ध में आपका पुत्र घटोत्कच भी अपनी सेना सहित लड़ रहा है। इस युद्ध में भाई भाइयों से, पिता पुत्रों से, पितामह अपने पौत्रों से लड़ रहे हैं। जो विरोधी हैं, उनका वध तो करना ही होगा न! आत्मरक्षा को मानव का अधिकार है!"
"युद्ध? आत्मरक्षा? मेरा पौत्र तो आपके ही पक्ष से लड़ने आया था। और उसकी हत्या युद्ध आरम्भ होने से पहले ही आपने कर दी थी।"
"नहीं भाभी। वह हमारे पक्ष से नहीं, दुर्बल के पक्ष से युद्ध करने का प्रण लेकर आया था। कुरुक्षेत्र में वर्तमान सभी योद्धाओं से कहीं अधिक वीर वह प्रतापी बालक यह प्रण लेकर आया था कि जो भी दुर्बल होगा, वह उस पक्ष से युद्ध करेगा। आरम्भ में हम दुर्बल थे, तो वह हमारी ओर से लड़ता। युद्ध जीतने के लिए किए जाते हैं। जब हम जीतने लगते, अर्थात कौरव पक्ष दुर्बल होता तो वह उनके पक्ष में चला जाता। वह जिस भी पक्ष में होता, उसे सबल कर देता और विरोधी को दुर्बल। इस प्रकार वह स्वयं ही सबलता और दुर्बलता का कारण बनकर दोनों ही पक्षों को समाप्त कर देता। कुरुवंशजों के ऐसे ही अविचारी प्रणों का परिणाम है यह युद्ध। भीष्म के प्रण ने बीज बोया, दुर्योधन के प्रण ने इस विश्वयुद्ध को साकार कर दिया, भीम के प्रण ने पांडवों के हाथ बांध दिए, और इस बर्बरीक के प्रण से सब समाप्त ही हो जाता। विचार कीजिये कि बर्बरीक यदि जीवित रहता तो वह अपने पिता एवं पितामह अर्थात आपके पुत्र घटोत्कच और पति भीम का भी वध कर देता। तनिक शांत होकर विचारिए कि क्या मुझपर आपका क्रोध उचित है?"
कृष्ण के तर्क ने हिडिम्बा को कुछ क्षणों के लिए हतप्रभ कर दिया। विचार करने पर उसे कृष्ण की बात ही सही लगी। पर जब मन में विरोध हो तो सामने वाले की किसी छोटी से छोटी, वार्ता में नितांत असंगत बात का आलम्बन लेकर विरोध करना क्षुद्र मानव प्रवृत्ति है। विरोधी को किसी भी भाँति परास्त करने की तड़प समस्त मेधा पर भारी पड़ जाती है और वह अपने मस्तिष्क का प्रयोग कर मात्र क्षणिक और अनावश्यक विजय प्राप्त करने के लिए लालायित हो उठता है। हिडिम्बा ने भी यही किया और बोली, "आपको प्रणों से इतनी समस्या है तो आपने स्वयं ही प्रण क्यों कर लिया कि आप निःशस्त्र रहेंगे? आप युद्ध की प्रासंगिकता को लेकर इतने आग्रही हैं और जब स्वयं युद्ध करने का प्रसङ्ग आया तो यह नपुंसकों की भांति निःशस्त्र होने के आवरण में प्राणरक्षा का अद्भुत उपाय निकाला आपने!"
कृष्ण की मुस्कान तनिक चौड़ी हो गई, "भाभी, आपकी व्यंगोंक्तियों के उत्तर हैं मेरे पास। परन्तु आपको उन्हें पक्षपाती हुए बिना सुनना होगा। प्रथम तो समाज की यह अवधारणा मिथ्या है कि नपुंसक वीर नहीं होते। इसी युद्ध में महावीर शिखंडी सहित अनेक नपुंसक युद्ध लड़ रहे हैं। द्वितीय, मैं निःशस्त्र अवश्य हूँ पर युद्ध में मैंने सारथी का कार्य चुना है। प्राणों का मोह होता तो वैद्य अथवा संदेशवाहक का कार्य चुना होता। युद्ध में रथी से अधिक सारथी युद्ध की भेंट चढ़ते हैं। तृतीय, मेरे प्रण जड़ नहीं कि उन्हें तोड़ा न जा सके। देवव्रत भीष्म के प्रसङ्ग में मैंने उसे तोड़ने में एक क्षण नहीं लगाया था। अस्तु, निःशस्त्र होने के प्रण के पीछे दो कारण थे। प्रथम तो यह कि यदि मैं भी युद्ध करता तो ये पांडव पक्ष के वीर मुझे ही पर्याप्त मान अपने कर्तव्य से च्युत हो जाते, और संसार के समक्ष यह उदाहरण प्रस्तुत करते कि किसी के प्रति भक्ति और श्रद्धा ही मनवांछित फल पाने के लिए पर्याप्त है, जबकि मेरा तो जन्म ही इसलिए हुआ है कि संसार को कर्म की महत्ता समझा सकूं, कि व्यक्ति अन्योन्य बातों के अतिरिक्त अपने कर्मों पर अधिक विश्वास करे। दूसरा कारण मेरे अपने कुल और परिवार में मेरा विरोध है। मुझे आशंका थी कि यदि मैं पांडवों के पक्ष से सशस्त्र युद्ध करता तो अनेक यादव वीर जो अभी इस युद्ध से तठस्थ हैं, वे कौरव पक्ष से युद्ध करने आ जाते।"
हिडिम्बा पुनः सोच में पड़ गई और कृष्ण की बातों को आत्मसात करने के बाद बोली, "मैंने आपके बारे में बहुत सुना था, आज प्रत्यक्ष देख लिया कि क्यों वृकोदर आपका इतना सम्मान करते हैं। अस्तु, आप मेरे मन की गांठ को खोलने तो यहाँ नहीं आये होंगे! आदेश करें, यह राक्षसी आपके लिए क्या कर सकती है?"
"मैं आपसे कुछ माँगने आया हूँ माता!"
"माता! मैं भाभी से माता कैसे हो गई?"
"क्योंकि मुझे भाभी से नहीं, एक माता से ही कुछ चाहिए।"
"औपचारिकताओं से हम राक्षसों को दुविधा होती है। कृपया स्पष्ट आदेश करें।"
"मुझे आपका पुत्र घटोत्कच चाहिए!"
"घटोत्कच! वह तो पहले से ही आपकी शरण में है। आपके, पांडवों के पक्ष से युद्ध कर रहा है। जो पहले से ही आपके पास है, उसे पुनः मांगने का क्या औचित्य है द्वारिकाधीश?"
"घटोत्कच एक वीर पुरुष है। युद्ध में उसने अनगिनत शत्रुओं का वध किया है। कौरव पक्ष में भी अनेक वीर हैं, जिनमें से एक कर्ण के पास एक अमोघ शक्ति है। उसने निश्चय किया है कि वह उसका प्रयोग अर्जुन पर करेगा। यदि इस युद्ध में अर्जुन मारा गया तो समस्त पांडव सेना का उत्साह भंग हो जाएगा और धर्मराज युधिष्ठिर को सहज ही बंदी बना लिया जाएगा। पांडव सेना यदि शरीर है तो युधिष्ठिर उसका शीश और अर्जुन उसकी आत्मा। इन दोनों की रक्षा करने से ही धर्म की रक्षा सम्भव है। यदि ये दोनों न रहें तो युद्ध का यह विराट आयोजन निष्फल होगा। अधर्म की जीत होगी और लाखों-लाख वीरों का प्राणोत्सर्ग निर्रथक हो जाएगा।"
"क्या आप कोई भी बात स्पष्ट नहीं कह सकते आर्य? मुझे इन सब बातों से कोई सरोकार नहीं। मेरे लिए यह धर्म-अधर्म कोई अर्थ नहीं रखते। मेरे लिए तो जिस पक्ष में वृकोदर हैं, वहीं धर्म है।"
"भैया भीम की रक्षा भी अर्जुन की सुरक्षा पर निर्भर है। यदि अर्जुन न रहा तो युधिष्ठिर पराजित होंगे। युधिष्ठिर पराजित होंगे तो श्रीराम के लक्ष्मण-स्वरूप आपके वृकोदर भी सहज ही दास बना लिए जाएंगे।" इतना कहकर कृष्ण चुप हो गए। जिस व्यक्ति ने अर्जुन की सभी शंकाओं को दूर करने के लिए गीता का ज्ञान दिया था, वह एक माता के समक्ष उचित शब्दों को प्राप्त करने के लिए प्रयासरत था।
हिडिम्बा कृष्ण को एकटक देख रही थी। बातों को समझने के प्रयास में अंततः उसे कृष्ण के अनकहे शब्द समझ आ ही गए।
"मैं समझ गई कृष्ण कि आप क्या कहना चाहते हैं। हम राक्षस नितांत व्यक्तिगत शौर्य और आवश्यकताओं के लिए प्राण देते और लेते रहे हैं। इस अनौचित्यपूर्ण हिंसा की निरर्थकता को समझाने का प्रयास किया था वृकोदर ने। मैं समझ गई कि आप मेरे पुत्र की बलि मांगने आये हैं। आप अत्यधिक निष्ठुर हैं कृष्ण। युद्ध की नदी में जो गया, वह भलिभाँति जानता है कि वह या तो जीवित निकलेगा या उसी में डूब जाएगा। पर मृत्यु की पूर्वसूचना?"
"माता! युद्ध में वीर मरते ही हैं, पर कोई भी योद्धा जीतने के लिए युद्ध करता है। आपका पुत्र विशेष है कि उसे निश्चित मृत्यु और पराजय के लिए युद्ध करना है। मैं घटोत्कच को कर्ण के सम्मुख खड़ा करने को रणनीति के अनुसार सही मानता हूं, पर मैं भी तो किसी का पुत्र और किसी का पिता हूँ। रणनीतिक कृष्ण घटोत्कच की बलि को उचित मानता है, पर मानव कृष्ण इस विचार के बोझ तले दबा जा रहा है। मैं पीड़ित हूँ माता, मैं अपने उपचार हेतु तुम्हारे सम्मुख नतमस्तक हूँ।"
कुछ क्षणों की शांति के बाद हिडिम्बा का गर्वीला स्वर सुनाई दिया, "स्वयं को अपराधबोध से मुक्त कीजिए माधव। सुना है कि धर्मयुद्ध में वीरगति को प्राप्त योद्धा को वही फल मिलता है जो वाजपेय जैसे अनेकों यज्ञों के बाद किसी को मिलता है। मेरा पुत्र यदि युधिष्ठिर और अर्जुन जैसे महात्माओं की रक्षा के लिए आत्मोत्सर्ग करता है तो वह सुभद्रा के पुत्र महावीर अभिमन्यु के समकक्ष खड़ा होगा। उसकी माता अर्थात मैं गर्व से सुभद्रा और द्रौपदी के साथ खड़ी होउंगी। कुरुकुल कुलवधू तो वृकोदर ने बनाया ही था, अब मैं कुरुकुल कुलमाता के रूप में जानी जाऊंगी। जाइए माधव, धर्मविजय के लिए आपको जो भी करना हो, कीजिये।"
कृष्ण उठ खड़े हुए और हाथ जोड़कर बोले, "माता, आपका पुत्र मेरे भांजे अभिमन्यु से अधिक वीर है। आप मेरी बहन सुभद्रा और महारानी द्रौपदी से अधिक पूजनीय हैं। आप माता-पुत्र ने मुझे और धर्म को वरदान दिया है, अतः आने वाली पीढ़ियां अभिमन्यु और सुभद्रा-द्रौपदी के नहीं, अपितु आप माता-पुत्र के मंदिरों की स्थापना करेंगी और अपनी मनोकामनाओं की पूर्ति हेतु आपसे वरदान मांगेंगी। यह कृष्ण आपको और आपके पुत्र को नमन करता है।"
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अजीत प्रताप सिंह
5 मार्च 2023
🙏🙏 आदरणीय अजीत प्रताप सिंह जी के पटल से साभार ❤️❤️
एक भक्त थे .प्रेम निधि उन का नाम था..सब में भगवान है ऐसा समझ कर प्रीति पूर्वक भगवान को भोग लगाए..और वो प्रसाद सभी को बाँटा करते
यमुनाजी से जल लाकर..भगवान को स्नान कराते….
यमुना जी के जल से भगवान को जल पान कराता थे..
एक सुबह सुबह बहुत जल्दी उठे प्रेम निधि…मन मैं आया कि सुबह सुबह जल पर किसी पापी की, नीगुरे आदमी की नज़र पड़ने से पहेले मैं भगवान के लिए जल भर ले आऊँ ऐसा सोचा…
अंधेरे अंधेरे में ही चले गये..लेकिन रास्ता दिखता नही था..इतने में एक लड़का मशाल लेकर आ गया..और आगे चलने लगा..प्रेम निधि ने सोचा की ये लङका भी उधर ही चल रहा है ? ये लड़का जाता है उधर ही यमुना जी है..तो इस के पिछे पिछे मशाल का फ़ायदा उठाओ..नही तो कही चला जाएगा…फिर लौटते समय देखा जाएगा..
लेकिन ऐसा नही हुआ..मशाल लेकर लड़का यमुना तक ले आया..प्रेम निधि ने यमुना जी से जल भरा..ज़्यु ही चलने लगे तो एकाएक वह लड़का फिर आ गया.. आगे आगे चलने लगा..अपनी कुटिया तक पहुँचा..तो सोचा की उस को पुछे की बेटा तू कहाँ से आया..
तो इतने में देखा की लड़का तो अंतर्धान हो गया! प्रेम निधि भगवान के प्रति प्रेम करते तो भगवान भी आवश्यकता पङनें पर उन के लिए कभी किसी रूप में कभी किसी रूप में उन का मार्ग दर्शन करने आ जाते…
लेकिन उस समय यवनों का राज्य था..हिंदू साधुओं को नीचे दिखाना और अपने मज़हब का प्रचार करना ऐसी मानसिकता वाले लोग बादशाह के पास जा कर उन्हों ने राजा को भड़काया…की प्रेम निधि के पास औरते भी बहोत आती है…बच्चे, लड़कियां , माइयां सब आते है..इस का चाल चलन ठीक नही है..
प्रेम निधि का प्रभाव बढ़ता हुआ देख कर मुल्ला मौलवियों ने , राजा के पिठ्ठुओ ने राजा को भड़काया.. राजा उन की बातों में आ कर आदेश दिया की प्रेम निधि को हाजिर करो..
उस समय प्रेम निधि भगवान को जल पिलाने के भाव
से कुछ पात्र भर रहे थे…
सिपाहियों ने कहा , ‘चलो बादशाह सलामत बुला रहे ..चलो ..जल्दी करो…’ प्रेम निधि ने कहा मुझे भगवान को जल पिला लेने दो परंतु सिपाही उन्हें जबरदस्ती पकड़ ले चले
तो भगवान को जल पिलाए बिना ही वो निकल गये..अब उन के मन में निरंतर यही खटका था की भगवान को भोग तो लगाया लेकिन जल तो नही पिलाया..ऐसा उन के मन में खटका था…
राजा के पास तो ले आए..राजा ने पुछा, ‘तुम क्यो सभी को आने देते हो?’
प्रेम निधि बोले, ‘सभी के रूप में मेरा परमात्मा है..किसी भी रूप में माई हो, भाई हो, बच्चे हो..जो भी सत्संग में आता है तो उन का पाप नाश हो जाता है..बुध्दी शुध्द होती है, मन पवित्र होता है..सब का भला होता है इसलिए मैं सब को आने देता हूँ सत्संग में..मैं कोई संन्यासी नही हूँ की स्रीयों को नही आने दूं…मेरा तो गृहस्थी जीवन है..भले ही मैं गृहस्थ हो भगवान के आश्रय में रहता हूं परंतु फिर भी गृहस्थ परंपरा में ही तो मैं जी रहा हूँ..’
बादशाह ने कहा की, ‘तुम्हारी बात तो सच्ची लगती है..लेकिन तुम काफिर हो..जब तक तुम सही हो तुम्हारायह परिचय नही मिलेगा तब तक तुम को जेल की कोठरी में बंद करने की इजाज़त देते है..’बंद कर दो इस को’
भक्त माल में कथा आगे कहेती है की प्रेम निधि तो जेल में बंद हो गये..लेकिन मन से जो आदमी गिरा है वो ही जेल में दुखी होता है..अंदर से जिस की समझ मरी है वो ज़रा ज़रा बात में दुखी होता है..जिस की समझ सही है वो दुख को तुरंत उखाड़ के फेंकने वाली बुध्दी जगा देता है..क्या हुआ? जो हुआ ठीक है..बीत
जाएगा..देखा जाएगा..ऐसा सोच कर वो दुख में दुखी नही होता…
प्रेम निधि को भगवान को जल पान कराना था..अब जेल में तो आ गया शरीर..लेकिन ठाकुर जी को जल पान कैसे कराए यहां जेल में बंद होने की चिंता बिल्कुल नहीं थी यहां तो भगवान को जल नहीं पिलाया यही दुख मन में था यही बेचैनी तड़पा रही थी?..
रात हुई… राजा को मोहमद पैगंबर साब स्वप्ने में दिखाई दिए.. बोले, ‘ बादशाह! अल्लाह को प्यास लगी है..’
‘मालिक हुकुम करो..अल्लाह कैसे पानी पियेंगे ?’
राजा ने पुछा. बोले, ‘जिस के हाथ से पानी पिए उस को तो तुम ने जेल में डाल रखा है..’
बादशाह सलामत की धड़कने बढ़ गयी…देखता है की अल्लाह ताला और मोहमाद साब बड़े नाराज़ दिखाई दे रहे…मैने जिस को जेल में बंद किया वो तो प्रेम निधि है. बस एकदम आंख खुल गई.जल्दी जल्दी प्रेम निधि को रिहा करवाया…
प्रेम निधि नहाए धोए..अब भगवान को जल पान कराते है.. राजा प्रेम निधि को देखता है…देखा की अल्लाह, मोहमद साब और प्रेम निधि के गुरु एक ही जगह पर विराज मान है!
फिर राजा को तो सत्संग का चसका लगा..ईश्वर, गुरु और मंत्र दिखते तीन है लेकिन यह तीनों एक ही सत्ता हैं..बादशाह सलामत हिंदुओं के प्रति जो नफ़रत की नज़रियाँ रखता था उस की नज़रिया बदल गयी…
प्रेम निधि महाराज का वो भक्त हो गया..सब की सूरत में परब्रम्ह परमात्मा है ..राजा साब प्रेम निधि महाराज को कुछ देते..ये ले लो..वो ले लो …तो बोले, हमें तो भगवान की रस मयी, आनंद मयी, ज्ञान मयी भक्ति चाहिए..और कुछ नही…
जो लोग संतों की निंदा करते वो उस भक्ति के रस को नही जानते..
"संत की निंदा ते बुरी सुनो जन कोई l
की इस में सब जन्म के सुकृत ही खोई ll"
जो भी सत्कर्म किया है अथवा सत्संग सुना है वो सारे पुण्य संत की निंदा करने से नष्ट होने लगते है..
संतो की जय भक्तों की जय.....🙏
करुणानिधान प्रभु की जय...🙏
((( जय जय श्री राधे )))
:
ॐ सृष्टि( वर्तमान कल्प) के आरंभ से लेकर आज तक के सनातन धर्म का वैदिक कैलेंडर (सनातन 4 वेदों की तारीख) 1 अरब 96 करोड़ 8 लाख 53 हजार 123वां वर्ष सृष्टि का अभी चल रहा है (1,96,8,53,123वां साल)...
यहाँ ये विचारणीय बात है कि सृष्टि की ये आयु केवल इस कल्प की है ऐसे कोटि-कोटि कल्प बीत चुके हैं और भविष्य में आने वाले है
क्योंकि ये सृष्टि प्रवाह से अनादि और अनंत है और हर सृष्टि के प्रारंभ में ईश्वर मानव कल्याण के लिए अपना वेदों का ज्ञान प्रकट करता हैं..!!
बाकी मजहब और रिलीजन के किताबों की तारीख 1400-2000 सालों के आसपास ही मिलती है.!!
"सनातन वैदिक धर्म की जय" ❤ ॐ
जय श्रीराम 🚩🙏💐❣️😊
सनातन धर्म ही सर्वश्रेष्ठ_है
जय सनातन
एक पहुँचे हुए महात्मा एक दिन कहीं जा रहे थे,चलते चलते उन्हें जोर की प्यास लगी । आसपास नजर दौड़ाया कहीं पानी नहीं था। व्याकुल होकर चले जा रहे थे लेकिन कहीं उन्हें कोई नल या कुंआ नजर नहीं आ रहा था। काफी देर चलने के बाद उन्हें एक कुँआ नजर आया। महात्मा कुँए के पास आये,रस्सी लगी बाल्टी रखी थी। उन्होंने पानी निकाल कर मन को तृप्त किया और फिर उस बाल्टी में पानी लेकर चल दिये,कि आगे कहीं प्यास लगी तो काम आयेगा।
लेकिन थोड़ी दूर जाने के बाद उन्हें ये ख्याल आया कि उन्होंने तो बाल्टी की चोरी की है,लगे सोचने कि आज पहली बार उनके दिमाग मे ये चोरी का ख्याल आया कैसे ? जबाब नहीं मिला । वे लौट के कुँए के पास आये ,बाल्टी रखा और सोचने लगे कि ऐसा उनसे कैसे हो गया,लेकिन फिर भी उत्तर नहीं मिला । तभी उन्हें एक आदमी दिखाई दिया,उन्होंने उससे पूछा कि भाई जरा ये बताओ कि ये कुँआ किसने बनवाया है
उस आदमी ने जवाब दिया कि एक डाकू था जो रात को लोगों को लूटता था और अगले दिन उसी लूट के पैसे में से कुछ उन्हें दान कर धीरे धीरे महान बन गया
उसी डाकू ने लूट के पैसे से ये कुँआ बनवाया था
महात्मा को अब सब समझ मे आ चुका था कि उन्होंने चोरी के पैसे से बने कुँए का पानी पिया इसलिये उनके दिमाग मे चोरी का ख्याल आया
अतीक के समाज सेवा की जयजयकार सुनी तो आज यह कहानी याद आ गया
तो सोचा
कि आप लोगों से शेयर करूँ
[ *राधे राधे प्रभु जी*
*#कृष्ण_कौन_है?*
१. कृष्ण वो हैं जिनके कान्हा रूप में हर माँ अपना वात्सल्य देखती है.
२. कृष्ण वो हैं जिनमें सूरदास को माँ दिखता है.
३. कृष्ण वो हैं जिनमें उस काल के सबसे वृद्ध भीष्म को अभिभावक नज़र आता है.
४. कृष्ण वो हैं जो अपने मित्र के लिये सारथि बन जातें हैं.
५. कृष्ण वो हैं जो सम्राट होते हुए भी सुदामा का पाद-प्रक्षालन करते हैं.
६. कृष्ण वो हैं जिन्होंने जरासंघ को मार कर उसका राज्य खुद नहीं रखा बल्कि उसके बेटे को सौंप दिया.
७. कृष्ण वो हैं जिनके कंठ से गीता रूप में निःसृत वाणी आज तक हमारा मार्गदर्शन कर रही है.
८. कृष्ण वो हैं जिन्होंने पालने वाली माँ को जन्म देने वाली माँ के बराबर स्थान दिया.
९. कृष्ण वो हैं जिन्होंने देवनिर्मित इस भारत देश को पूर्व से पश्चिम तक एक किया था.
कृष्ण के विराट व्यक्तित्व के अनगिनत पहलूओं में ये बस कुछ ही हैं. बाकी 'हरि अनंत हरि कथा अनंता' तो है ही.
कृष्ण आज भी हमारे हर ओर हैं. गौ माता को देखिये तो कृष्ण वहां है, पीपल वृक्ष को देखिये कृष्ण वहां भी हैं, मेरे कृष्ण गरूड़ में भी हैं, भागीरथी गंगा में भी हैं, वो वायु में भी हैं और आकाश में भी भगवान भास्कर और चन्द्र रूप में चमक रहे हैं. मेरे कृष्ण सामवेद में हैं, सात सागरों और हिमालय में भी हैं.
खुद को प्रभु के साथ जोड़िये,श्री भगवान के पावन अवतरण दिवस को अपने लिये सार्थक करना यही होगा..!!
*राधे राधे*
*श्री कृष्ण जन्माष्टमी की हार्दिक शुभकामनाएं*🙏
एक संत वृन्दावन में रहा करते थे।श्रीमद्भागवत में उनकी बड़ी निष्ठा थी, प्रतिदिन उन का नियम था कि वे रोज एक अध्याय का पाठ किया करते और राधा रानी जी को अर्पण किया करते थे, ऐसा करते-करते उन्हे 55 वर्ष बीत गये, एक दिन भी ऐसा नही गया जब उन्होंने राधा रानी जी को भागवत का अध्याय सुनाया ना हो...
एक रोज वे जब पाठ करने बैठे तो उन्हें अक्षर दिखाई ही नहीं दे रहे थे और थोड़ी देर बाद तो वे बिलकुल भी पढ़ नहीं सके, वे रोने लगे और कहने लगे, हे प्रभु, मैं इतने दिनों से पाठ कर रहा हूँ फिर आपने आज ऐसा क्यों किया अब मै कैसे राधा रानी जी को पाठ सुनाऊंगा...
रोते-रोते सारा दिन बीत गया; कुछ खाया पिया भी नहीं क्योकि पाठ करने का नियम था और जब तक नियम पूरा नहीं करते थे खाते पीते भी नहीं थे, आज नियम नहीं हुआ तो खाया पिया भी नहीं...
तभी एक छोटा-सा बालक आया और बोला -बाबा, आप क्यों रो रहे हो? क्या आपकी आँखे नहीं है; इसलिये रो रहे हो? बाबा बोले नहीं लाला, आँखों के लिये क्यों रोऊंगा मेरा नियम पूरा नहीं हुआ इसलिये रो रहा हूँ...
बालक बोला बाबा, मै आपकी आँखे ठीक कर सकता हूँ, आप ये पट्टी अपनी आँखों पर बाँध लीजिये, बाबा ने सोचा लगता है वृंदावन के किसी वैध का लाला है कोई इलाज जानता होगा...
बाबा ने आँखों पर पट्टी बांध ली और सो गये, जब सुबह उठे और पट्टी हटाई तो सब कुछ साफ-साफ दिखायी दे रहा था, बाबा बड़े प्रसन्न हुए और सोचने लगे देखूं तो उस बालक ने पट्टी में क्या औषधि रखी थी और जैसे ही बाबा ने पट्टी को खोला तो पट्टी में राधा रानी जी का नाम लिखा था, इतना देखते ही बाबा फूट-फूट कर रोने लगे और कहने लगे -वाह, किशोरी जी आपके नाम की कैसी अनंत महिमा है...
जय श्री राधे राधे.....❤️🙏
: *"कर्म से बदल जाते हैं भाग्य"*
प्रकृत्य ऋषि का रोज का नियम था कि वह नगर से दूर जंगलों में स्थित शिव मन्दिर में भगवान् शिव की पूजा में लीन रहते थे,
कई वर्षो से यह उनका अखण्ड नियम था
उसी जंगल में एक नास्तिक डाकू अस्थिमाल का भी डेरा था, अस्थिमाल का भय आसपास के क्षेत्र में व्याप्त था अस्थिमाल बड़ा नास्तिक था वह मन्दिरों में भी चोरी-डाका से नहीं चूकता था
एक दिन अस्थिमाल की नजर प्रकृत्य ऋषि पर पड़ी उसने सोचा यह ऋषि जंगल में छुपे मन्दिर में पूजा करता है, हो न हो इसने मन्दिर में काफी माल छुपाकर रखा होगा,
आज इसे ही लूटते हैं
अस्थिमाल ने प्रकृत्य ऋषि से कहा कि जितना भी धन छुपाकर रखा हो चुपचाप मेरे हवाले कर दो। ऋषि उसे देखकर तनिक भी विचलित हुए बिना बोले- कैसा धन ? मैं तो यहाँ बिना किसी लोभ के पूजा को चला आता हूँ,
डाकू को उनकी बातों पर विश्वास नहीं हुआ उसने क्रोध में ऋषि प्रकृत्य को जोर से धक्का मारा ऋषि ठोकर खाकर शिवलिंग के पास जाकर गिरे और उनका सिर फट गया रक्त की धारा फूट पड़ी
इसी बीच आश्चर्य ये हुआ कि ऋषि प्रकृत्य के गिरने के फलस्वरूप शिवालय की छत से सोने की कुछ मोहरें अस्थिमाल के सामने गिरीं अस्थिमाल अट्टहास करते हुए बोला तू ऋषि होकर झूठ बोलता है,
झूठे ब्राह्मण तू तो कहता था कि यहाँ कोई धन नहीं फिर ये सोने के सिक्के कहाँ से गिरे अब अगर तूने मुझे सारे धन का पता नहीं बताया तो मैं यहीं पटक-पटकर तेरे प्राण ले लूँगा
प्रकृत्य ऋषि करुणा में भरकर दुखी मन से बोले- हे शिवजी मैंने पूरा जीवन आपकी सेवा पूजा में समर्पित कर दिया फिर ये कैसी विपत्ति आन पड़ी ? प्रभो मेरी रक्षा करें जब भक्त सच्चे मन से पुकारे तो भोलेनाथ क्यों न आते,
महेश्वर तत्क्षण प्रकट हुए और ऋषि को कहा कि इस होनी के पीछे का कारण मैं तुम्हें बताता हूँ यह डाकू पूर्वजन्म में एक ब्राह्मण ही था इसने कई कल्पों तक मेरी भक्ति की परन्तु इससे प्रदोष के दिन एक भूल हो गई यह पूरा दिन निराहार रहकर मेरी भक्ति करता रहा दोपहर में जब इसे प्यास लगी तो यह जल पीने के लिए पास के ही एक सरोवर तक पहुँचा संयोग से एक गाय का बछड़ा भी दिन भर का प्यासा वहीं पानी पीने आया तब इसने उस बछड़े को कोहनी मारकर भगा दिया और स्वयं जल पीया इसी कारण इस जन्म में यह डाकू हुआ
तुम पूर्वजन्म में मछुआरे थे उसी सरोवर से मछलियाँ पकड़कर उन्हें बेचकर अपना जीवन यापन करते थे जब तुमने उस छोटे बछड़े को निर्जल परेशान देखा तो अपने पात्र में उसके लिए थोड़ा जल लेकर आए उस पुण्य के कारण तुम्हें यह कुल प्राप्त हुआ,
पिछले जन्मों के पुण्यों के कारण इसका आज राजतिलक होने वाला था पर इसने इस जन्म में डाकू होते हुए न जाने कितने निरपराध लोगों को मारा व देवालयों में चोरियां की इस कारण इसके पुण्य सीमित हो गए और इसे सिर्फ ये कुछ मुद्रायें ही मिल पायीं
तुमने पिछले जन्म में अनगिनत मत्स्यों का आखेट किया जिसके कारण आज का दिन तुम्हारी मृत्यु के लिए तय था पर इस जन्म में तुम्हारे संचित पुण्यों के कारण तुम्हें मृत्यु स्पर्श नहीं कर पायी और सिर्फ यह घाव देकर लौट गई,
ईश्वर वह नहीं करते जो हमें अच्छा लगता है, ईश्वर वह करते हैं जो हमारे लिए सचमुच अच्छा है
यदि आपके अच्छे कार्यों के परिणाम स्वरूप भी आपको कोई कष्ट प्राप्त हो रहा है तो समझिए कि इस तरह ईश्वर ने आपके बड़े कष्ट हर लिए
हमारी दृष्टि सीमित है परन्तु ईश्वर तो लोक-परलोक सब देखते हैं, सबका हिसाब रखते हैं हमारा वर्तमान, भूत और भविष्य सभी को जोड़कर हमें वही प्रदान करते हैं जो हमारे लिए उचित है
RADHE RADHE JAI SHREE KRISHNA JI
VERY GOOD MORNING JI
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: हनुमान जी ने रात में लंका में प्रवेश किया, वह भी मच्छर जितना बन कर। भक्ति को पाना है तो छोटे बनकर जाओ, कोई देखे न, इसीलिए रात को गए। माने प्रदर्शन मत करो, निराभिमानी होकर रहो।
लंकिनी बोली- "सो कह चलेसि मोहि निंदरी" मेरी उपेक्षा? यही राक्षसी स्वभाव है, संत कितना ही छोटा बनकर क्यों न चले, वे लोग सरल को मूर्ख, सहज को मजबूर और विनम्र को कायर समझते हैं।
लंकिनी बोली- मैं चोरों को खाती हूँ। हनुमान जी ने एक मुक्का मार दिया। लोगों ने पूछा कि वह तो अपना काम ही कर रही थी, आपने बिना बात के उसे मुक्का क्यों मार दिया? देखो, हनुमान जी ने उसे झूठ बोलने का दंड दिया। कि तूं चोरों को नहीं खाती, तूं तो भक्तों को खाना चाहती है। अगर तूं चोरों को खाती, तो इस दुनिया का सबसे बड़ा चोर रावण जब सीता जी को चुरा कर आ रहा था, तब तूं रावण को क्यों नहीं खा गई?
ध्यान दें, अविद्या ही लंकिनी है, यही शरीर रूपी लंका की चौकीदारी करती है। मुक्का बाहर निकलती इन्द्रियों को समेट कर अंतर्मुखी कर लेने का संकेत है। बहिर्मुखी मनुष्य अविद्या का पार नहीं पा सकता। इन्द्रियाँ संयमित हुईं कि अविद्या का प्रभाव समाप्त हुआ, विद्या के क्षेत्र में प्रवेश मिला, आवरण हटा, जो अविद्या रास्ता रोक रही थी, वही विद्या होकर लंका का ज्ञान देने लगी।
संतसंग हुआ तो सत्संग मिला, सत्संग से लंकिनी को अपवर्ग सुख से भी अधिक सुख मिला। अ-पवर्ग, जिसमें "प फ ब भ म" ना हो, पाप, फंदा, वासना, भ्रम-भय, मोह-ममता-मद-मत्सर न हो, माने मोक्ष के सुख से भी, क्षणभर के सत्संग का सुख अधिक है। जो सुख रामकथा में है वह कैवल्य में भी नहीं है।
स्वामी मित्रानंद जी महाराज कहते हैं कि संत सजा देकर सज़ा देता है, वह मारता नहीं, सुधारता है। किसी को मिटाना संत का उद्देश्य नहीं, उसके भीतर की बुराई मिटा देना उद्देश्य है। हनुमान जी भी बुरे के नहीं, बुराई के विरोधी हैं।
: जीने का तजुर्बा.....
एक बार यूनान के मशहूर दार्शनिक सुकरात भ्रमण करते हुए एक नगर में गये।वहां उनकी मुलाकात एक वृद्ध सज्जन से हुई। दोनों आपस में काफी घुल मिल गये।
वृद्ध सज्जन आग्रहपूर्वक सुकरात को अपने निवास पर ले गये।भरा-पूरा परिवार था उनका, घर में बहु- बेटे, पौत्र-पौत्रियां सभी थे।
सुकरात ने वृद्ध से पूछा- “आपके घर में तो सुख-समृद्धि का वास है। वैसे अब आप करते क्या हैं?” इस पर वृद्ध ने कहा- “अब मुझे कुछ नहीं करना पड़ता। ईश्वर की दया से हमारा अच्छा कारोबार है, जिसकी सारी जिम्मेदारियां अब बेटों को सौंप दी हैं।घर की व्यवस्था हमारी बहुयें संभालती हैं। इसी तरह जीवन चल रहा है।”
यह सुनकर सुकरात बोले-“किन्तु इस वृद्धावस्था में भी आपको कुछ तो करना ही पड़ता होगा। आप बताइये कि बुढ़ापे में आपके इस सुखी जीवन का रहस्य क्या है?”
वह वृद्ध सज्जन मुस्कुराये और बोले- “मैंने अपने जीवन के इस मोड़ पर एक ही नीति को अपनाया है कि दूसरों से अधिक अपेक्षायें मत पालो और जो मिले, उसमें संतुष्ट रहो।
मैं और मेरी पत्नी अपने पारिवारिक उत्तरदायित्व अपने बेटे- बहुओं को सौंपकर निश्चिंत हैं। अब वे जो कहते हैं, वह मैं कर देता हूं और जो कुछ भी खिलाते हैं, खा लेता हूं।
अपने पौत्र- पौत्रियों के साथ हंसता-खेलता हूं। मेरे बच्चे जब कुछ भूल करते हैं । तब भी मैं चुप रहता हूं ।
मैं उनके किसी कार्य में बाधक नहीं बनता। पर जब कभी वे मेरे पास सलाह-मशविरे के लिए आते हैं तो मैं अपने जीवन के सारे अनुभवों को उनके सामने रखते हुए उनके द्वारा की गई भूल से उत्पन्न् दुष्परिणामों की ओर सचेत कर देता हूं ।
अब वे मेरी सलाह पर कितना अमल करते या नहीं करते हैं, यह देखना और अपना मन व्यथित करना मेरा काम नहीं है।
वे मेरे निर्देशों पर चलें ही, मेरा यह आग्रह नहीं होता। परामर्श देने के बाद भी यदि वे भूल करते हैं तो मैं चिंतित नहीं होता। उस पर भी यदि वे मेरे पास पुन: आते हैं तो मैं पुन: सही सलाह देकर उन्हें विदा करता हूं।
बुजुर्ग सज्जन की यह बात सुन कर सुकरात बहुत प्रसन्न हुये। उन्होंने कहा- “इस आयु में जीवन कैसे जिया जाए, यह आपने सम्यक समझ लिया है।
यह कहानी सबके लिए है। अगर आज आप बूढ़े नही हैं तो कल अवश्य होंगे ।
इसलिए आज बुज़ुर्गों की ‘इज़्ज़त’ और ‘मदद’ करें जिससे कल कोई आपकी भी ‘मदद’ और ‘इज़्ज़त’ करे ।
याद रखें जो —- आज दिया जाता है वही कल प्राप्त होता है।
अपनी वाणी में सुई भले ही रखो, पर उसमें धागा जरूर डालकर रखो, ताकि सुई केवल छेद ही न करे आपस में माला की तरह जोडकर भी रखे।
जीवन मे जोड़ने का काम करे तोड़ने का नहीं.
वरिष्ठ नागरिक घर में वानप्रस्थी
बनकर रहने का अभ्यास करें।
[9/11, 1:38 PM] +91 87005 74669: खेलत गेंद गिरे जमुना में हो...
तो क्या सचमुच गेंद यूँ ही यमुना में चली गयी थी? नहीं भाई! गेंद जानबूझ कर यमुना में फेंकी गयी थी। वह यमुना जो युग युगांतर से अपने तट पर बसे लोगों की माई थी, यमुना मइया... जिसका अमृत जल पी कर मानवों की असँख्य पीढ़ियों ने अपना जीवन पूर्ण किया था। और उसी यमुना में अब विष बह रहा था...
वो जिसने गेंद फेंकी थी न, वह आने वाले युग को यही बताने आया था कि "विषधर के काटने की प्रतीक्षा मत करना! वह यदि आसपास दिख जाय तो ही उसकी दांत तोड़ दो। शत्रु के शक्तिशाली होने की प्रतीक्षा मत करो! अनावश्यक ही फेंको उसके घर में गेंद, और आगे बढ़ कर तोड़ दो उसके विषैले दांत!" पर इस देश के लड़के अपने पुरुखों की कही बात मानते कब हैं भाई...
हाँ तो गेंद यमुना में गयी। नारायण मुड़े शेषनाग की ओर! इस बार भइया बन कर आये शेषनाग ने कहा, " अधिक नाटक न करो! जाओ तोड़ कर आओ विषधर के दांत! हम इधर का संभालते हैं।"
कृष्ण कूदे यमुना में और बलराम भगे गाँव में। चिल्लाए, "मइया... बाबा... काका... दौड़ो सब के सब, कान्हा जमुना में कूद गया..." क्यों चिल्लाए? क्या भय से? हट! उसे भय से क्या भय? वे चिल्लाए कि आओ सब, देख लो! मेरा कन्हैया कैसे भय की छाती पर चढ़ कर नाचता है। सीख लो कि शत्रु की नाक में नकेल डालना आवश्यक हो जाय, तो अपना गेंद फेक कर भी विवाद लिया जाना चाहिये। और जान लो, कि शत्रु के घर में घुस कर उसके दांत तोड़ देना अब से तुम्हारी धार्मिक परम्परा है।
इधर हाहाकार करते ग्वाले जुटे नदी तट पर, और उधर कान्हा ने धर दबोचा कालिया को! जब उसकी गर्दन मरोड़ दी तो वह गिड़गिड़ाया- "हमने तुम्हारा तो कुछ न बिगाड़ा नाथ! फिर क्यों मार रहे हो?"
कृष्ण खिलखिलाए। कहा, "जो अपने ऊपर अत्याचार होने पर प्रतिरोध करे वह घरबारी होता है, जो कहीं भी अपराध होता देख कर प्रतिरोध करे, वह अवतारी होता है। अभी तो प्रारम्भ है बाबू! स्वयं तक पहुँचने से पूर्व ही संसार के एक एक अपराधी को ढूंढ कर दण्ड देने आया हूँ मैं, और शुरुआत तुमसे होगी।"
उसका गला उनके हाथ में था, वह रोने-गिड़गिड़ाने लगा। उसकी पत्नियां कान्हा के पैर पकड़ने लगीं, छाती पीटने लगीं। आप देखियेगा, अपराधियों का परिवार छाती पीटने में दक्ष होता है। वह भी सौगंध खाने लगा, "चला जाऊंगा, फिर कभी इधर लौट कर नहीं आऊंगा, भारत की ओर मुड़ कर नहीं देखूंगा..."
पर वो कन्हैया थे। छोड़ना तो सीखा ही नहीं था उन्होंने। कहा, "प्राण छोड़ देते हैं, पर तेरे भय को समाप्त करना ही होगा। तेरी ख्याति का वध तो अवश्य होगा।एक बार तेरे भय का मर्दन हो जाय, फिर तू पुनः आ भी जाय तो किसी को भय न होगा। कोई न कोई चीर ही देगा तेरा मुख। जल के ऊपर आ, आज तेरे सर पर ही होगा नृत्य! हमें गढ़ना है वह राष्ट्र, जहां अधर्म के सर पर चढ़ कर धर्म नाचे। निकल तो लल्ला..."
और फिर संसार ने देखा कालिया नाग के फन पर नाचते कृष्ण को! अधर्म के माथे पर नाचते धर्म को। मुस्कुरा उठे नन्द बाबा ने कहा, "युग बदल गया। अब से यह कृष्ण का युग है।"
सर्वेश तिवारी श्रीमुख
गोपालगंज, बिहार।
जिसके चित्त में सदा क्रोध रहता हो
वह कर्म से चाण्डाल है ।
क्रोधी स्त्री को चण्डी कहा जाता है ।
एक कथा है कि अयोध्या में
सरयूजी के समीप कुछ साधु बैठे थे ।
उन्होंने धूनी जला रखी थी । चिलम चढ़ी हुई थी।
वहीं एक चांडाल आया और सरयूजी में स्नान करने लगा।
इन साधुओं में से एक साधु बिगड़ा -
"'इसने हमारा घाट भ्रष्ट कर दिया !'
और आग से जलता चेला खींचकर मार दिया ।
चांडाल ने हाथ जोड़ा - 'मुझसे भूल हुई। क्षमा करें !'
वहाँ से थोड़ी दूर जाकर वह चांडाल फिर सरयूजी में स्नान करने लगा । एक महात्मा दूरसे यह घटना देख रहे थे ।
चांडाल को दुबारा स्नान करते देख उन्हें कुतूहल हुआ ।
वे वहाँ आये और स्नान करके निकलने पर चांडाल से पूछा - 'तुमने दुबारा स्नान क्यों किया ?'
मैं जन्म से चाण्डाल हूँ ।
पूर्वजन्म के पाप से यह योनि प्राप्त हुई ।
अब भगवान का नाम लेता हूँ जिससे मेरा चाण्डालपना दबा रहे ।
उस महात्मा के भीतर तो क्रोधरूपी चाण्डाल
प्रकट हो गया था । उसने मेरा स्पर्श कर लिया ।
वह कही मेरे भीतर न आ जाय, इसलिए मैंने दुबारा स्नान किया है । तनका चाण्डाल होना उतना बुरा नहीं है जितना मनका ।'
लोग स्नान करके,
रेशमी वस्त्र पहनकर पूजन करने,
सन्ध्या करने, भोजन करने बैठते हैं
और उस समय भी गाली बकते हैं, झूठ बोलते हैं । वे समझते हैं कि स्नान तथा पवित्र वस्त्र हमे पवित्र कर देगा । झूठ या क्रोधसे हमारी हानि नही होगी । मनुस्मृति में कहा गया है-
यमान्पतत्यकुर्वाणो नियमान् केवलान् भजन् ।
'जो अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रहका पालन नहीं करेगा और केवल नियम - शौचाचार, संतोष, स्वाध्याय, ईश्वर प्रणिधानका ही पालन करेगा उसका पतन होगा ।'
जो अपने शरीरको ही धोवेगा,
भीतरसे अपने को नहीं धोवेगा,
उसका पतन तो होगा ही ।।
भक्ति मनुष्य के अन्तःकरणको पवित्र करती हैं ।
'भक्ति प्रारब्धमें भी परिवर्तन कर देती है' इसका क्या अर्थ है ? क्या चाण्डाल ब्राह्मण हो जायगा ?
नहीं, चाण्डाल ब्राह्मण तो नहीं हो जायगा किन्तु ब्राह्मण को वेदाध्ययनसे जो फल प्राप्त होता है वह फल चाण्डाल चाण्डाल रहते हुए भक्ति से ही प्राप्त कर लेगा । पाप जन्म-जन्म के संस्कारों के हैं । यह पाप भी दो प्रकार का शास्त्रोंने माना है-आर्द्र और शुष्क । जो बहुत पुराना पाप है उसे शुष्क पाप कहते हैं और जो तत्कालका किया पाप है वह आर्द्र पाप है । भक्ति दोनों प्रकारके पापोंको नष्ट कर देती है।
।। स्वामी अखंडानंद सरस्वती जी महाराज ।।
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