[9/10, 5:40 AM] +91 86026 66380: प्रदक्षिणा - परिक्रमा
यानि कानि च पापानि जन्मान्तरकृतानि च ।
तानि तानि प्रणश्यन्ति प्रदक्षिण पदे पदे ।।
‘प्रगतं दक्षिणमिति प्रदक्षिणं’ के अनुसार अपने दक्षिण भाग की ओर गति करना प्रदक्षिणा अथवा परिक्रमा कहलाता है। प्रदक्षिणा में व्यक्ति का दाहिना अंग देवता की ओर होता है। इसे परिक्रमा के नाम से जाना जाता है। ‘शब्दकल्पद्रुम’ में कहा गया है कि देवता को उद्देश्य करके दक्षिणावर्त भ्रमण करना ही प्रदक्षिणा है। सरल शब्दों में परिक्रमा ईश्वर की दाहिनी ओर से प्रारम्भ करनी चाहिए l किस देवता की कितनी प्रदक्षिणा करनी चाहिए, इस संदर्भ में ‘कर्म लोचन’ नामक ग्रन्थ में लिखा गया है कि-
‘एका चण्ड्या रवे: सप्त तिस्र: कार्या विनायके।
हरेश्चतस्र: कर्तव्या: शिवस्यार्धप्रदक्षिणा॥’
अर्थात् दुर्गा जी की एक, सूर्य की सात, गणेश जी की तीन, विष्णु भगवान की चार एवं शिवजी की आधी प्रदक्षिणा करनी चाहिए।
शास्त्र का आदेश है कि शंकर भगवान की प्रदक्षिणा में सोम सूत्र का उल्लंघन नही करना चाहिए।क्योंकि प्राण प्रतिष्ठित शिवलिंग में शिव शक्ति होती है जिसे लांघने से शक्ति नष्ट हो सकती है l सोम सूत्र की व्याख्या करते हुए बताया गया है कि भगवान शिव को चढ़ाया गया जल जिस ओर गिरता है, वहीं सोम सूत्र का स्थान होता है। सरल भाषा में हम यूँ समझें कि शिव लिंग की जलहरी से जंहा अभिषेक किया हुआ जल गिरता हो उस स्थान को लांघना नहीं चाहिए l अन्य स्थानों पर मिलता है कि तृण, काष्ठ, पत्ता, पत्थर, ईंट आदि से ढके हुए सोम सूत्र का उल्लंघन करने से दोष नही लगता है, लेकिन ‘शिवस्यार्ध प्रदक्षिणा’ का मतलब शिव की आधी ही प्रदक्षिणा करनी चाहिए।जिन देवताओं की प्रदक्षिणा की संख्या का विधान प्राप्त न हो, उनकी तीन प्रदक्षिणा की जा सकती है। तीन परिक्रमा के विधान को सर्वमान्य रूप से स्वीकार किया गया है l
जय श्रीराम हर हर महादेव त्र्यंबकेश्वर
[9/11, 2:48 PM] +91 86026 66380: ।।देवी अथर्वशीर्ष स्तोत्रम।।
अथर्वशीर्ष क्या है ?
पञ्च तत्वों से निर्मित यह मानव शरीर के क्रमश: सभी तत्वों के निर्दिष्ट देवता हैं जैसे जल के शिव, अग्नि के सूर्य, अंतरिक्ष के विष्णु, पृथ्वी के गणेश एवं वायु के देवी। जिसे पञ्च देव कह कर प्रत्येक विशिष्ट पूजा हो वा नित्य पूजा हो, पंचदेव पूजन आरंभ में ही करने का विधान है। इन पांचों के नाम से क्रमश: पाँच अथर्वशीर्ष है। इसमें देवी अथर्वशीर्ष का विषेश महत्व है।
वैसे तो अथर्ववेद के शिरोभाग में आने के कारण इसे अथर्वशीर्ष कहा है! किंतु इसका भाव देखें - थर्व माने चंचलता और अथर्व माने शांत, स्थिर,! तथा शीर्ष माने सिर, मस्तक, जो बुद्धी मति का प्रतीक है! अतः जिसके पाठ से अध्ययन करने से मती स्थिर, शांत हो जाती है या स्थितप्रज्ञता प्राप्त होती है उसे अथर्वशीर्ष कहते है.
अब विस्तार भय से बचने के लिए सीधे देवी अथर्वशीर्ष पर आते हैं
देवी अथर्वशीर्षम् में देवी को ही परब्रह्म कहा है! वे ही निमित्त तथा उपादान कारण स्वरूपा है ऐसा प्रतिपादन किया है! देवी अथर्वशीर्षम् मन्त्रों के पाठ वा जप का लाभ साधक को प्रत्यक्ष होता है। ज्ञान एवं कर्म दोनों का समन्वय के कारण इसका महत्व बढ़ जाता है।
तंत्र की विधा में इसे नियम पूर्वक पुरश्चरण की अनिवार्यता कही है जैसे
"पुरश्चरण संयुक्तो मन्त्रो हि फलदायकः"
अर्थात् १०८ बार इसका जप (पाठ) पुनः होम तर्पण मार्जन ब्राह्मण भोजन आदि। नियम में शुचिता! वस्त्र! भस्मधारणम्! आसनम्! मुख किस दिशा में हो? आदि भौतिक नियम! एवं आचमन! प्राणायाम! देवतास्मरण सहित देशकालोच्चार संकल्प! न्यासः! ध्यानम्! मुद्रा प्रदर्शनम्! मानसपूजा! आदि अनुष्ठान के नियम!
एकमात्र देवी अथर्वशीर्षम् का पाठ करने से पाठक को पाँचो अथर्वशीर्ष के पाठ का फल प्राप्त होता है!
श्रीविद्या उपासना में चार संध्या कही है, उनमें से चौथी संध्या जो होती है वह निशीथ काल में मध्यरात्री में होती है, उस समय यदि देवी अथर्वशीर्षम् का जप करें तो वाक् सिद्धी प्राप्त होती है.
नूतन प्रतिमा के समीप पाठ करने से देवता का सान्निध्य प्राप्त होता है। कोई भी अर्चा विग्रह हो, यंत्र हो, बाणलिङ्ग हो उसकी प्राणप्रतिष्ठा समय यदि देवी अथर्वशीर्षम् का जप करें तो प्राणप्रतिष्ठा हो जाती है.
देवी अथर्वशीर्षम् का जप मंगलवार एवं अश्विनी नक्षत्र योग में पाठ करने से मनुष्य महामृत्यु याने अकस्मात मृत्यू, अचानक मृत्यू, असामान्य मृत्यू, महामारी जन्य मृत्यू से तर जाता है!
सांदीपनि गुरुकुल स्वाध्याय केंद्र, उज्जैन 8602666380/6260144580
[9/12, 1:30 PM] +91 86026 66380: यह 15 मंत्र जो हर हिंदू को सीखना और बच्चों को सिखाना चाहिए।
1. Mahadev
ॐ त्र्यम्बकं यजामहे,
सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम् ,
उर्वारुकमिव बन्धनान्,
मृत्योर्मुक्षीय मामृतात् !!
2. Shri Ganesha
वक्रतुंड महाकाय,
सूर्य कोटि समप्रभ
निर्विघ्नम कुरू मे देव,
सर्वकार्येषु सर्वदा !!
3. Shri hari Vishnu
मङ्गलम् भगवान विष्णुः,
मङ्गलम् गरुणध्वजः।
मङ्गलम् पुण्डरी काक्षः,
मङ्गलाय तनो हरिः॥
4. Shri Brahma ji
ॐ नमस्ते परमं ब्रह्मा,
नमस्ते परमात्ने ।
निर्गुणाय नमस्तुभ्यं,
सदुयाय नमो नम:।।
5. Shri Krishna
वसुदेवसुतं देवं,
कंसचाणूरमर्दनम्।
देवकी परमानन्दं,
कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम।
6. Shri Ram
श्री रामाय रामभद्राय,
रामचन्द्राय वेधसे ।
रघुनाथाय नाथाय,
सीताया पतये नमः !
7. Maa Durga
ॐ जयंती मंगला काली,
भद्रकाली कपालिनी ।
दुर्गा क्षमा शिवा धात्री,
स्वाहा स्वधा नमोऽस्तुते।।
8. Maa Mahalakshmi
ॐ सर्वाबाधा विनिर्मुक्तो,
धन धान्यः सुतान्वितः ।
मनुष्यो मत्प्रसादेन,
भविष्यति न संशयःॐ ।
9. Maa Saraswathi
ॐ सरस्वति नमस्तुभ्यं,
वरदे कामरूपिणि।
विद्यारम्भं करिष्यामि,
सिद्धिर्भवतु मे सदा ।।
10. Maa Mahakali
ॐ क्रीं क्रीं क्रीं,
हलीं ह्रीं खं स्फोटय,
क्रीं क्रीं क्रीं फट !!
11. Hanuman ji
मनोजवं मारुततुल्यवेगं,
जितेन्द्रियं बुद्धिमतां वरिष्ठं।
वातात्मजं वानरयूथमुख्यं,
श्रीरामदूतं शरणं प्रपद्ये॥
12. Shri Shanidev
ॐ नीलांजनसमाभासं,
रविपुत्रं यमाग्रजम ।
छायामार्तण्डसम्भूतं,
तं नमामि शनैश्चरम् ||
13. Shri Kartikeya
ॐ शारवाना-भावाया नम:,
ज्ञानशक्तिधरा स्कंदा ,
वल्लीईकल्याणा सुंदरा।
देवसेना मन: कांता,
कार्तिकेया नामोस्तुते ।
14. Kaal Bhairav ji
ॐ ह्रीं वां बटुकाये,
क्षौं क्षौं आपदुद्धाराणाये,
कुरु कुरु बटुकाये,
ह्रीं बटुकाये स्वाहा।
15. Gayatri Mantra
ॐ भूर्भुवः स्वः,
तत्सवितुर्वरेण्यम्
भर्गो देवस्य धीमहि
धियो यो नः प्रचोदयात् ॥
परिवार और बच्चों को भी सिखायें ।।
राधे राधे - जय श्री कृष्ण 🙏
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सांदीपनि गुरुकुल स्वाध्याय केंद्र, उज्जैन 8602666380/6260144580
[9/17, 7:35 AM] +91 86026 66380: 1️⃣7️⃣❗0️⃣9️⃣❗2️⃣0️⃣2️⃣3️⃣
*(((( शिव बने मछुए ))))*
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एक बार भगवान शिव कैलाश पर्वत पर वेदों का रहस्य पार्वती को समझाने लगे।
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पार्वती बड़े ध्यान से सुन रही थीं, किंतु बीच-बीच में वे ऊंघने भी लगती थीं।
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जब बहुत प्रयत्न करने पर भी पार्वती अपने मन को एकाग्र न रख सकीं तो शिव क्रोध में आकर बोले – “पार्वती! यह क्या हो रहा है? मैं तुम्हें इतना गूढ़ रहस्य समझा रहा हूं और तुम हो कि झपकियां ले रही हो।
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तुममें तो इतनी ही बुद्धि है जितनी किसी मछुए की स्त्री में| जाओ,मृत्युलोक में किसी मछुए की स्त्री के रूप में जन्म लो।”
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शिव के शाप से पार्वती उसी क्षण वहां से गायब हो गईं।
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बाद में शिव को बहुत पछतावा हुआ कि यह मैंने क्या किया? जिसका स्नेह मेरे लिए अगाध था, उसी को मैंने आवेश में आकर त्याग कर दिया?
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शिव को मनोदशा उनके परम सेवक नंदी से छिपी न रह सकी। वह सोचने लगा – ‘स्वामी बहुत बेचैन हैं माता पार्वती के बिना। जब तक माता लौटेंगी नहीं, स्वामी को चैन नहीं पड़ेगा।
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उधर पार्वती मृत्युलोक में पहुंचीं और एक शिशु-बालिका के रूप में पुन्नई वृक्ष के नीचे लेट गईं।
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थोड़ी ही देर में पुरवर कबीले के कुछ मछुए अपने सरदार के साथ वहां से गुजरे तो उनकी नजर उस शिशु-बालिका पर पड़ी।
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सरदार ने बालिका को उठाया और उसे भगवान का भेजा प्रसाद समझ कर अपने घर ले आया।
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उसने बालिका का नाम रखा-पार्वती जब वह कुछ बड़ी हुई तो अपने पिता के साथ मछली पकड़ने जाने लगी।बड़ी होकर उसने नाव चलाना भी सीख लिया।
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पार्वती अपूर्व सुंदरी थी।कबीले के कितने ही युवक उसके रूप की प्रशंसा करते नहीं अघाते थे।
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उनमें से कोई तो पार्वती के साथ विवाह के इच्छुक रहते थे,लेकिन पार्वती उनमें से किसी के साथ भी विवाह के लिए इच्छुक नहीं थी।
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उधर, कैलाश पर्वत पर शिव को पार्वती का वियोग असहनीय हो रहा था।
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एक दिन उन्होंने अपने मन की व्यथा नंदी से कह डाली।बोले – “नंदी! मैं रात-दिन पार्वती के बिना बहुत बेचैन रहता हूं और उस घड़ी को कोसता रहता हूं जब मैंने गुस्से में आकर पार्वती को शाप दे दिया था।
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काश! उस समय मैंने धैर्य से काम लिया होता।”
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नंदी ने हाथ जोड़कर कहा – “स्वामी! तब आप पृथ्वी पर जाकर उन्हें ले क्यों नहीं आते?”
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“कैसे लाऊं नंदी? उसका विवाह तो किसी मछुए से होगा।” शिव के मुंह से कराह-सी निकली।
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शिव के मन की व्यथा जानकर नंदी विचार करने लगा कि मुझे कोई ऐसा जतन करना चाहिए जिससे स्वामी को मछुआ बनना पड़े।
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यह विचार करके नंदी ने एक बहुत बड़ी मछली का रूप धारण कर लिया और उस तट की ओर चल पड़ा जिधर परवर कबीले के मछुआरे रहते थे।
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वहां पहुंचकर मछली बने नंदी ने मछुआरों के बीच आतंक फैला दिया।मछुआरे जल में अपने जाल डालते तो मछली उनके जालों को काट डालती।उनकी नावें पलट देती।
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मछली का आतंक जब ज्यादा ही बढ़ गया तो कबीले के मुखिया ने घोषणा कर दी – “जो भी आदमी इस मछली को पकड़ लाएगा, उसी के साथ मैं अपनी बेटी का व्याह कर दूंगा।”
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अनेक युवकों ने उस मछली को पकड़ने की कोशिश की,लेकिन असफल रहे।
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असहाय होकर मछुआ रे सरदार ने शिव की शरण ली – “हे दया के सागर,हे कैलाशपति! हमें इस मछली से छुटकारा दिलाओ।”
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मुखिया की बेटी ने भी शिव की आराधना करते हुए कहा – “हे सदाशिव,हे प्रलयंकर! हमारी सहायता करो।अब तो हमें तुम्हारा ही आसरा है प्रभो!”
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शिव ने उनकी पुकार सुनी।एक मछुए का वेष बनाकर वे मुखिया के पास पहुंचे।
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उन्होंने मुखिया से कहा – “मैं उस मछली को पकड़ने के लिए यहां आया हूं।”
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मुखिया ने कहा – “नौजवान! अगर तुमने उसे पकड़ लिया तो हमारी जाति सदैव तुम्हारे गुण गाएगी।”
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अगले दिन शिव एक बहुत बड़ा जाल लेकर सागर के जल में उतर पड़े।
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उन्होंने जाल फेंका तो मछली आकर उसमें फंस गई जो वास्तव में नंदी था। मछली बना नंदी सोचने लगा – ‘मेरा काम हो गया| अब स्वामी और माता का मिलन हो जाएगा।’
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शिव मछली को किनारे लाए| मछुआरे उनकी ‘जय-जयकार’ करने लगे। सरदार बोला – “तुमने हमें उबार लिया युवक! हम किस तरह तुम्हारा आभार व्यक्त करें?”
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फिर वचन के अनुसार मछुआरे सरदार ने बड़ी धूमधाम से अपनी पुत्री का विवाह उस युवक के साथ कर दिया।
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मछुआरे शिव और मछुआरिन पार्वती के विवाहोपरांत नंदी अपने असली रूप में प्रकट हो गया और उन्हें अपनी पीठ पर बैठाकर कैलास पर्वत ले आया|
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शिव की अंतर्वेदना दूर हो गई और पार्वती शाप से मुक्त हो गईं| जीवन चक्र पहले की ही तरह चलने लगा..!!
*🙏🏼🙏🏽🙏🏾ॐ नमः शिवाय*🙏🙏🏿🙏🏻
[9/18, 11:33 AM] +91 86026 66380: सहस्त्रनाम-तुल्य ‘श्रीराम’-नाम
आपदामपहर्तारं दातारं सर्वसम्पदाम्।
लोकाभिरामं श्रीरामं भूयो भूयो नमाम्यहम्।।
अर्थात्–आपत्तियों को हरने वाले तथा सब प्रकार की सम्पत्ति प्रदान करने वाले लोकाभिराम भगवान राम को बारम्बार नमस्कार करता हूँ।
पद्मपुराण के उत्तरखण्ड में ‘श्रीराम’ नाम की महिमा व भगवान श्रीराम के १०८ नामों का वर्णन किया गया है। एक बार कैलासशिखर पर भगवान शंकर ने पार्वतीजी को अपने साथ भोजन करने के लिए कहा। पार्वतीजी ने कहा–’मैं विष्णुसहस्त्रनाम का पाठ करने के बाद ही भोजन करुंगी, तब तक आप भोजन कर लें।’ महादेवजी ने कहा–
’मैं तो ‘राम! राम! राम!’ इस प्रकार जप करते हुए ‘श्रीराम’ नाम में ही निरन्तर रमण किया करता हूँ। ‘राम’ नाम सम्पूर्ण सहस्त्रनाम के समान है। रकारादि जितने नाम हैं, उन्हें सुनकर ‘राम’ नाम की आशंका से मेरा मन प्रसन्न हो जाता है।’
राम रामेति रामेति रमे रामे मनोरमे।
सहस्त्रनाम तत्तुल्यं रामनाम वरानने।।
रकारादीनि नामानि शृण्वतो मम पार्वति।
मन: प्रसन्नतां याति रामनामाभिशंकया।। (पद्म. उत्तर. २८१।२१-२२)
अत: महादेवि! तुम ‘राम’ नाम का उच्चारण करके इस समय मेरे साथ भोजन कर लो। पार्वतीजी ने भगवान शंकर के कहे अनुसार ‘राम-नाम’ उच्चारण कर भोजन कर लिया। परन्तु राम-नाम की महिमा सुनकर उन्होंने भगवान शंकर से श्रीराम के और भी नाम जानने की इच्छा प्रकट की। महादेवजी ने कहा–’लौकिक और वैदिक जितने भी शब्द हैं, वे सब श्रीरामचन्द्रजी के ही नाम हैं। उन नामों में उनके सहस्त्रनाम अधिक महत्वपूर्ण हैं और उन सहस्त्रनामों में भी श्रीराम के एक सौ आठ नामों को ही अधिक प्रधानता दी गयी है।’
‘श्रीराम’ के १०८ नाम और उनका अर्थ :~
१. ॐ श्रीराम:–जिनमें योगीजन रमण करते हैं, ऐसे सच्चिदानन्दघन श्रीराम और सीता-सहित राम।
२. रामचन्द्र:–चन्द्रमा के समान मनोहर राम।
३. रामभद्र:–कल्याणमय राम।
४. शाश्वत:–सनातन भगवान।
५. राजीवलोचन:–कमल के समान नेत्रों वाले।
६. श्रीमान् राजेन्द्र:–श्रीसम्पन्न और राजाओं के भी राजा।
७. रघुपुंगव:–रघुकुल में सर्वश्रेष्ठ।
८. जानकीवल्लभ:–जनककिशोरी सीता के प्रियतम।
९. जैत्र:–विजयशील।
१०. जितामित्र:–शत्रुओं को जीतने वाले।
११. जनार्दन:–सभी मनुष्यों द्वारा याचना करने योग्य।
१२. विश्वामित्रप्रिय:–विश्वामित्रजी के प्रिय।
१३. दान्त:–जितेन्द्रिय।
१४. शरण्यत्राणतत्पर:–शरणागतों की रक्षा में संलग्न।
१५. वालिप्रमथन:–वानर बालि को मारने वाले।
१६. वाग्मी–अच्छे वक्ता।
१७. सत्यवाक्–सत्यवादी।
१८. सत्यविक्रम:–सत्य पराक्रमी।
१९. सत्यव्रत:–सत्य का दृढ़तापूर्वक पालन करने वाले।
२०. व्रतफल:–सम्पूर्ण व्रतों के प्राप्त होने वाले फलस्वरूप।
२१. सदा हनुमदाश्रय:–हनुमानजी के हृदयकमल में सदा निवास करने वाले।
२२. कौसल्येय:–कौसल्याजी के पुत्र।
२३. खरध्वंसी–खर राक्षस का नाश करने वाले।
२४. विराधवधपण्डित:–विराध दैत्य का वध करने में कुशल।
२५. विभीषणपरित्राता–विभीषण के रक्षक।
२६. दशग्रीवशिरोहर:–दस सिर वाले रावण के मस्तक को काटने वाले।
२७. सप्ततालप्रभेत्ता–सात तालवृक्षों को एक ही बाण से बींध डालने वाले।
२८. हरकोदण्डखण्डन:–जनकपुर में शिवजी के धनुष को तोड़ने वाले।
२९. जामदग्न्यमहादर्पदलन:–परशुरामजी के महान् अभिमान को चूर्ण करने वाले।
३०. ताटकान्तकृत्–ताड़का नाम की राक्षसी का वध करने वाले।
३१. वेदान्तपार:–वेदान्त से भी अतीत, वेद भी जिसका पार नही पा सकता।
३२. वेदात्मा–वेदस्वरूप।
३३. भवबन्धैकभेषज:–संसार-बंधन से मुक्ति की एकमात्र औषधि।
३४. दूषणत्रिशिरोऽरि:— दूषण और त्रिशिरा नामक राक्षसों के शत्रु।
३५. त्रिमूर्ति:–ब्रह्मा, विष्णु और शिव–तीन रूप धारण करने वाले।
३६. त्रिगुण:–तीनों गुणों के आश्रय।
३७. त्रयी–तीन वेदस्वरूप।
३८. त्रिविक्रम:–वामन अवतार में तीन पगों से त्रिलोकी को नाप लेने वाले।
३९. त्रिलोकात्मा–तीनों लोकों के आत्मा।
४०. पुण्यचारित्रकीर्तन:–जिनकी लीलाओं का कीर्तन परम पवित्र है।
४१. त्रिलोकरक्षक:–तीनों लोकों की रक्षा करने वाले।
४२. धन्वी–धनुष धारण करने वाले।
४३. दण्डकारण्यवासकृत्–दण्डकारण्य में निवास करने वाले।
४४. अहल्यापावन:--अहल्या को पवित्र करने वाले।
४५. पितृभक्त:–पिता के भक्त।
४६. वरप्रद:–वर देने वाले।
४७. जितेन्द्रिय:–इन्द्रियों को वश में रखने वाले।
४८. जितक्रोध:–क्रोध को जीतने वाले।
४९. जितलोभ:–लोभ को परास्त करने वाले।
५०. जगद्गुरु:–अपने चरित्र से संसार को शिक्षा देने के कारण सबके गुरु।
५१. ऋक्षवानरसंघाती–वानर और भालुओं की सेना का संगठन करने वाले।
५२. चित्रकूटसमाश्रय:–वनवास के समय चित्रकूट पर्वत पर निवास करने वाले।
५३. जयन्तत्राणवरद:–जयन्त की रक्षा करके वर देने वाले।
५४. सुमित्रापुत्रसेवित:–सुमित्रानन्दन लक्ष्मण द्वारा सेवित।
५५. सर्वदेवाधिदेव:–सम्पूर्ण देवताओं के भी देवता।
५६. मृतवानरजीवन:–मरे हुए वानरों को जीवित करने वाले।
५७. मायामारीचहन्ता–मायावी मृग बनकर आए मारीच राक्षस का वध करने वाले।
५८. महाभाग:–महान सौभाग्यशाली।
५९. महाभुज:–बड़ी-बड़ी बांहों वाले।
६०. सर्वदेवस्तुत:–सम्पूर्ण देवता जिनकी स्तुति करते हैं।
६१. सौम्य:–शान्त स्वभाव वाले।
६२. ब्रह्मण्य:–ब्राह्मणों के हितैषी।
६३. मुनिसत्तम:–मुनियों में श्रेष्ठ।
६४. महायोगी–महायोगी।
६५. महोदार:–परम उदार।
६६. सुग्रीवस्थिरराज्यद:–सुग्रीव को स्थिर राज्य प्रदान करने वाले।
६७. सर्वपुण्याधिकफल:–समस्त पुण्यों के उत्कृष्ट फलरूप।
६८. स्मृतसर्वाघनाशन:–स्मरण करने मात्र से ही सम्पूर्ण पापों का नाश करने वाले।
६९. आदिपुरुष:–ब्रह्माजी को भी उत्पन्न करने वाले सबके आदिभूत परमात्मा।
७०. महापुरुष:–समस्त पुरुषों में महान्।
७१. परम: पुरुष:–सर्वोत्कृष्ट पुरुष।
७२. पुण्योदय:–पुण्य को प्रकट करने वाले।
७३. महासार:–सर्वश्रेष्ठ सारभूत परमात्मा।
७४. पुराणपुरुषोत्तम:–पुराणप्रसिद्ध क्षर-अक्षर पुरुषों से श्रेष्ठ लीलापुरुषोत्तम।
७५. स्मितवक्त्र:–जिनके मुख पर सदा मुसकान छाई रहती है।
७६. मितभाषी–कम बोलने वाले।
७७. पूर्वभाषी–पूर्ववक्ता।
७८. राघव:–रघुकुल में अवतीर्ण।
७९. अनन्तगुणगम्भीर:–अनन्त गुणों से युक्त एवं गम्भीर।
८०. धीरोदात्तगुणोत्तर:–धीर और उदात्त नायक के लोकोत्तर गुणों से युक्त।
८१. मायामानुषचारित्र:–अपनी माया का आश्रय लेकर मनुष्यों की-सी लीलाएं करने वाले।
८२. महादेवाभिपूजित:–भगवान शंकर द्वारा निरन्तर पूजित।
८३. सेतुकृत्–समुद्र पर पुल बांधने वाले।
८४. जितवारीश:–समुद्र को जीतने वाले।
८५. सर्वतीर्थमय:–सर्वतीर्थस्वरूप।
८६. हरि:–पाप-ताप को हरने वाले।
८७. श्यामांग:–श्याम विग्रह वाले।
८८. सुन्दर:–परम मनोहर।
८९. शूर:–अनुपम शौर्य से सम्पन्न वीर।
९०. पीतवासा:–पीताम्बरधारी।
९१. धनुर्धर:–धनुष धारण करने वाले।
९२. सर्वयज्ञाधिप:–सम्पूर्ण यज्ञों के स्वामी।
९३. यज्ञ:–यज्ञस्वरूप।
९४. जरामरणवर्जित:–बुढ़ापा और मृत्यु से रहित।
९५. शिवलिंगप्रतिष्ठाता–रामेश्वर नामक ज्योतिर्लिंग की स्थापना करने वाले।
९६. सर्वाघगणवर्जित:–समस्त पाप-राशि से रहित।
९७. परमात्मा–परम श्रेष्ठ, नित्य-शुद्ध-बुद्ध-मुक्त स्वभाव।
९८. परं ब्रह्म–सर्वोत्कृष्ट, सर्वव्यापी परेश्वर।
९९. सच्चिदानन्दविग्रह:–सत्, चित् और आनन्दमय दिव्यविग्रह वाले।
१००. परं ज्योति:–परम प्रकाशमय, परम ज्ञानमय।
१०१. परं धाम–साकेत धामस्वरूप।
१०२. पराकाश:–महाकाशस्वरूप ब्रह्म।
१०३. परात्पर:–मन, बुद्धि आदि से परे परमात्मा।
१०४. परेश:–सर्वोत्कृष्ट शासक।
१०५. पारग:–सबको पार लगाने वाले।
१०६. पार:–भवसागर से पार जाने की इच्छा रखने वाले प्राणियों के प्रातव्य परमात्मा।
१०७. सर्वभूतात्मक:–सर्वभूतस्वरूप।
१०८. शिव:–परम कल्याणमय।
‘श्रीराम’ के १०८ नामों के पाठ व श्रवण का माहात्म्य :~
इस प्रकार श्रीमहादेवजी ने ‘श्रीराम’ के परम पुण्यमय १०८ नाम और उनके पाठ व श्रवण का माहात्म्य पार्वतीजी को बताते हुए कहा–जो मनुष्य दूर्वादल के समान श्यामसुन्दर कमलनयन पीताम्बरधारी भगवान श्रीराम का इन दिव्य नामों से स्तवन करता है–
वह संसार-बंधन से मुक्त होकर परम पद को प्राप्त कर लेता है।
मनुष्य के जन्म-जन्मान्तर के पाप नष्ट हो जाते हैं।
उसकी चंचल लक्ष्मी स्थिर हो जाती है अर्थात् लक्ष्मीजी सदैव उसके घर में निवास करती हैं।
शत्रु मित्र बन जाते हैं। सभी प्राणी उसके अनुकूल हो जाते हैं।
उस मनुष्य के लिए जल स्थल बन जाता है, जलती हुई अग्नि शान्त हो जाती है।
क्रूर ग्रहों के समस्त उपद्रव शान्त हो जाते हैं। मनुष्य की सभी मनोकामनाएं पूर्ण हो जाती हैं। वह सबका वन्दनीय, सब तत्त्वों का ज्ञाता और भगवद्भक्त हो जाता है।
लोकाभिरामं रणरंगधीरं राजीवनेत्रं रघुवंशनाथम्।
कारुण्यरूपं करुणाकरं तं श्रीरामचन्द्रं शरणं प्रपद्ये।
श्री राम जय राम जय जय राम जी
जय जय श्री पवनपुत्र हनुमानजी
(साभार -: एक भक्त)
सांदीपनि गुरुकुल स्वाध्याय केंद्र, उज्जैन 8602666380/6260144580
[9/21, 5:01 AM] +91 86026 66380: वरदाता श्रीगणेश
(अनन्त श्रीविभूषित श्री श्रृंगेरीक्षेत्रस्थ शारदापीठाधीश्वर जगद्गुरु शंकराचार्य स्वामी अभिनवविद्यातीर्थ महाराज)
प्रत्येक मनुष्यकी कोई-न-कोई कामना होती है। जिनको क्लेश है, वे क्लेशका नाश चाहते हैं, दूसरे ऐश्वर्य और भोग चाहते हैं। अपनी कामना पूर्ण करनेके लिये लोग सभी प्रकारके प्रयत्न करते हैं, किंतु क्या कोई अपनी कामनाएँ दैवके सहारे बिना पूरी कर सकता है ? कामनाओंका कोई अन्त ही नहीं है और ये हमें छोड़ती भी नहीं हैं। हमारे सारे लौकिक उपाय व्यर्थ हो गये और हमें तृप्ति नहीं मिली। कामनाओंका शमन करनेके लिये और शान्ति पानेके लिये एक ही उपाय है – भगवान्की उपासना ।
भगवानकी उपासना अनादिकालसे चलती आ रही है। इससे जन-जन अपनी आत्माको शान्ति प्रदान करता आ रहा है। उसकी आशाएँ भी बिना प्रयासके ही पूर्ण होती रहती हैं। हम भगवान्की उपासना कैसे करें, इसके लिये वेद और तन्त्रशास्त्र उपासनाके बहुत से मार्ग बतलाते आ रहे हैं। ये उपासनाएँ मन्त्रों के माध्यमसे चलती हैं। प्रत्येक मन्त्रके अलग-अलग देवता होते हैं। भगवान् तो एक ही हैं, फिर भी भक्तोंकी रक्षाके लिये वे नाना अवतार ग्रहण करते हैं। उन अवतारोंमें विशिष्ट शक्ति और क्रियाएँ दृष्टिगोचर होती हैं। विशिष्ट शक्तियुक्त देवताओंकी उपासनासे हमारे अंदर विशिष्ट शक्तियाँ जाग्रत् होती हैं और कार्योंमें सिद्धि भी मिलती है।
श्रीगणेशजी भी भगवान्के ही एक विशिष्ट स्वरूप हैं। वे पार्वती शिवके पुत्रके रूपमें प्रकट हुए। इनकी उपासना कई प्रकारकी है। इनके रूप भी अनेक हैं। रूपके अनुसार नाम भी भिन्न-भिन्न हैं। जैसे महागणपति, चिन्तामणि-गणपति, हरिद्रागणपति इत्यादि। गणेशजीके बहुत से मन्त्र हैं। तन्त्र-ग्रन्थों में मन्त्रोंके से पुरश्चरण अनुष्ठान आदिकी विधि विस्तारसे प्रतिपादित है। विधिके अनुसार उनके अनुष्ठान करनेसे हम लौकिक और पारलौकिक फल प्राप्त कर सकते हैं। उनकी कृपासे मोक्षतककी भी प्राप्ति होती है।
विघ्ननिवारणके लिये गणेशजी सुप्रसिद्ध हैं। न केवल विघ्नविनाश ही, वरं प्रत्येक कामना भी इनकी उपासनासे पूर्ण होती है। भारतका सनातनमतावलम्बी कोई भी व्यक्ति हो, किसी-न-किसी रूपमें इनका पूजन करता ही है। भारतके सभी घरोंमें समष्टि और व्यष्टिरूपमें भाद्रपद शुक्ल चतुर्थीको इनका पूजन हुआ करता है। प्रत्येक मन्दिरमें गणेशजीको हम देख सकते हैं। वह चाहे शिव मन्दिर हो चाहे विष्णु-मन्दिर या कोई अन्य मन्दिर, गणेशजी सबको अभीष्ट हैं। देवोंकी पूजा या किसी अन्य मंगल कार्यको करते समय सर्वप्रथम इनकी पूजा आवश्यक होती है। श्रीगणेश-पूजनके बिना किसी कार्यका आरम्भ ही नहीं हो सकता । शास्त्रों में सर्वप्रथम इनका पूजन विहित है। सारे शांकरमतानुयायी लोग पंचायतन पूजन करते हैं। उस पंचायतनमें शिव, नारायण, सूर्य, देवी और गणेशजी हैं। गणेशभक्त इन देवोंमें गणेशजीको प्रधानता देकर उनकी पूजा करते हैं। व्यासजीने महाभारत लिखते समय अन्य किसीको इस कार्यके लिये समर्थ न पाकर इन्हींसे उसे लिखनेके लिये प्रार्थना की थी। इन्होंने उनकी प्रार्थना स्वीकार की और व्यासजी जैसे-जैसे कहते गये, वैसे-वैसे ही गणेशजी लिखते गये।
विनायकजीके विषयमें पुराणोंमें बहुत-सी रोचक कथाएँ वर्णित हैं और कुछ अन्य परम्परासे भी सुनी जाती हैं। गणेशजीके मन्त्र बहुत से हैं। उन्हें गुरुमुखसे जानकर दीक्षापूर्वक ग्रहण करनेसे ही उनका फल मिलता है। इनमें से कुछ मन्त्र तो ऐसे भी हैं, जिनका उपदेश लिये बिना भी इनका पाठ और जप कर सकते हैं। जो लोग उपदेश न पा सकें वे 'गणपति-सहस्र-नामावली', 'अष्टोत्तरशत नामावली' या 'द्वादश नामावली' अथवा गणेशके स्तोत्र पाठादि कर सकते हैं। उनकी द्वादशनामावली इस प्रकार है-
१ - सुमुखाय नमः
२ - एकदन्ताय नमः,
३ – कपिलाय नमः
४ – गजकर्णकाय नमः,
५ - लम्बोदराय नमः
६ – विकटाय नमः,
७- विघ्ननाशाय नमः
८ - विनायकाय नमः,
९ – धूम्रकेतवे नमः
१० – गणाध्यक्षाय नमः,
११ - भालचन्द्राय नमः
१२ - गजाननाय नमः ।
इन नामोंसे दूर्वा चढ़ानेसे श्रीगणेशजीकी कृपा प्राप्तकर आप अपनी सभी कामनाएँ सफल बना सकते हैं—
नमस्तस्मै गणेशाय ब्रह्मविद्याप्रदायिने।
यस्यागस्त्यायते नाम विघ्नसागरशोषणे॥
[9/21, 6:30 PM] +91 86026 66380: ब्राह्मण में ऐसा क्या है कि सारी
दुनिया ब्राह्मण के पीछे पड़ी है।
इसका उत्तर इस प्रकार है।
रामचरितमानस में गोस्वामी तुलसीदासजी
ने लिखा है कि भगवान श्री राम जी ने श्री
परशुराम जी से कहा कि →
"देव एक गुन धनुष हमारे।
नौ गुन परम पुनीत तुम्हारे।।"
हे प्रभु हम क्षत्रिय हैं हमारे पास एक ही गुण
अर्थात धनुष ही है आप ब्राह्मण हैं आप में
परम पवित्र 9 गुण है-
ब्राह्मण_के_नौ_गुण :-
रिजुः तपस्वी सन्तोषी क्षमाशीलो जितेन्द्रियः।
दाता शूरो दयालुश्च ब्राह्मणो नवभिर्गुणैः।।
● रिजुः = सरल हो,
● तपस्वी = तप करनेवाला हो,
● संतोषी= मेहनत की कमाई पर सन्तुष्ट,
रहनेवाला हो,
● क्षमाशीलो = क्षमा करनेवाला हो,
● जितेन्द्रियः = इन्द्रियों को वश में
रखनेवाला हो,
● दाता= दान करनेवाला हो,
● शूर = बहादुर हो,
● दयालुश्च= सब पर दया करनेवाला हो,
● ब्रह्मज्ञानी,
श्रीमद् भगवत गीता के 18वें अध्याय
के 42श्लोक में भी ब्राह्मण के 9 गुण
इस प्रकार बताए गये हैं-
" शमो दमस्तप: शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च।
ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्म कर्म स्वभावजम्।।"
अर्थात-मन का निग्रह करना ,इंद्रियों को वश
में करना,तप( धर्म पालन के लिए कष्ट सहना),
शौच(बाहर भीतर से शुद्ध रहना),क्षमा(दूसरों के
अपराध को क्षमा करना),आर्जवम्( शरीर,मन
आदि में सरलता रखना,वेद शास्त्र आदि का
ज्ञान होना,यज्ञ विधि को अनुभव में लाना
और परमात्मा वेद आदि में आस्तिक भाव
रखना यह सब ब्राह्मणों के स्वभाविक कर्म हैं।
पूर्व श्लोक में "स्वभावप्रभवैर्गुणै:
"कहा इसलिएस्वभावत कर्म बताया है।
स्वभाव बनने में जन्म मुख्य है।फिर जन्म के
बाद संग मुख्य है।संग स्वाध्याय,अभ्यास आदि
के कारण स्वभाव में कर्म गुण बन जाता है।
दैवाधीनं जगत सर्वं , मन्त्रा धीनाश्च देवता:।
ते मंत्रा: ब्राह्मणा धीना: , तस्माद् ब्राह्मण देवता:।।
धिग्बलं क्षत्रिय बलं,ब्रह्म तेजो बलम बलम्।
एकेन ब्रह्म दण्डेन,सर्व शस्त्राणि हतानि च।।
इस श्लोक में भी गुण से हारे हैं त्याग तपस्या
गायत्री सन्ध्या के बल से और आज लोग उसी
को त्यागते जा रहे हैं,और पुजवाने का भाव
जबरजस्ती रखे हुए हैं।
*विप्रो वृक्षस्तस्य मूलं च सन्ध्या।
*वेदा: शाखा धर्मकर्माणि पत्रम् l।*
*तस्मान्मूलं यत्नतो रक्षणीयं।
*छिन्ने मूले नैव शाखा न पत्रम् ll*
भावार्थ -- वेदों का ज्ञाता और विद्वान ब्राह्मण
एक ऐसे वृक्ष के समान हैं जिसका मूल(जड़)
दिन के तीन विभागों प्रातः,मध्याह्न और सायं
सन्ध्याकाल के समय यह तीन सन्ध्या(गायत्री
मन्त्र का जप) करना है,चारों वेद उसकी
शाखायें हैं,तथा वैदिक धर्म के आचार
विचार का पालन करना उसके पत्तों के
समान हैं।
अतः प्रत्येक ब्राह्मण का यह कर्तव्य है कि,,
इस सन्ध्या रूपी मूल की यत्नपूर्वक रक्षा करें,
क्योंकि यदि मूल ही नष्ट हो जायेगा तो न तो
शाखायें बचेंगी और न पत्ते ही बचेंगे।।
पुराणों में कहा गया है ---
विप्राणां यत्र पूज्यंते रमन्ते तत्र देवता।
जिस स्थान पर ब्राह्मणों का पूजन हो वहाँ
देवता भी निवास करते हैं।
अन्यथा ब्राह्मणों के सम्मान के बिना देवालय
भी शून्य हो जाते हैं।
इसलिए .......
ब्राह्मणातिक्रमो नास्ति विप्रा वेद विवर्जिताः।।
श्री कृष्ण ने कहा-ब्राह्मण यदि वेद से हीन भी हो,
तब पर भी उसका अपमान नही करना चाहिए।
क्योंकि तुलसी का पत्ता क्या छोटा क्या बड़ा
वह हर अवस्था में कल्याण ही करता है।
ब्राह्मणोस्य मुखमासिद्......
वेदों ने कहा है की ब्राह्मण विराट पुरुष भगवान
के मुख में निवास करते हैं।
इनके मुख से निकले हर शब्द भगवान का ही
शब्द है, जैसा की स्वयं भगवान् ने कहा है कि,
विप्र प्रसादात् धरणी धरोहमम्।
विप्र प्रसादात् कमला वरोहम।
विप्र प्रसादात् अजिता जितोहम्।
विप्र प्रसादात् मम् राम नामम् ।।
ब्राह्मणों के आशीर्वाद से ही मैंने
धरती को धारण कर रखा है।
अन्यथा इतना भार कोई अन्य पुरुष
कैसे उठा सकता है,इन्ही के आशीर्वाद
से नारायण हो कर मैंने लक्ष्मी को वरदान
में प्राप्त किया है,इन्ही के आशीर्वाद से मैं
हर युद्ध भी जीत गया और ब्राह्मणों के
आशीर्वाद से ही मेरा नाम राम अमर हुआ है,
अतः ब्राह्मण सर्व पूज्यनीय है।
और ब्राह्मणों काअपमान ही कलियुग
में पाप की वृद्धि का मुख्य कारण है।
प्रश्न नहीं स्वाध्याय करें।।
हर हर महादेव शिव शंभू 🔱
[9/24, 4:37 PM] +91 86026 66380: देवी दुर्गा के सोलह नाम और उनका अर्थ...
वेद की कौथुमी शाखा में दुर्गा के सोलह नाम बताये गये हैं जो सबके लिए बहुत ही कल्याणकारी हैं:-
दुर्गा, नारायणी, ईशाना, विष्णुमाया, शिवा, सती, नित्या, सत्या, भगवती, सर्वाणी, सर्वमंगला, अम्बिका, वैष्णवी, गौरी, पार्वती और सनातनी।
भगवान विष्णु ने इन सोलह नामों का अर्थ इस प्रकार किया है...
१. दुर्गा: दुर्ग + आ। ‘दुर्ग’ शब्द का अर्थ दैत्य, महाविघ्न, भवबंधन, कर्म, शोक, दु:ख, नरक, यमदण्ड, जन्म, भय और रोग है। ‘आ’ शब्द ‘हन्ता’ का वाचक है। अत: जो देवी इन दैत्य और महाविघ्न आदि का नाश करती हैं, उसे ‘दुर्गा’ कहा गया है।
२. नारायणी: यह दुर्गा यश, तेज, रूप और गुणों में नारायण के समान हैं तथा नारायण की ही शक्ति हैं, इसलिए ‘नारायणी’ कही गयी हैं।
३. ईशाना: ईशान + आ। ‘ईशान’ शब्द सम्पूर्ण सिद्धियों के अर्थ में प्रयोग किया जाता है और ‘आ’ शब्द दाता का वाचक है। अत: वह सम्पूर्ण सिद्धियों को देने वाली ‘ईशाना’ कही जाती हैं।
४. विष्णुमाया: सृष्टि के समय परमात्मा विष्णु ने माया की सृष्टि कर समस्त विश्व को मोहित किया। वह विष्णुशक्ति माया ही ‘विष्णुमाया’ कही गयी हैं।
५. शिवा: शिव + आ। ‘शिव’ शब्द कल्याण का और ‘आ’ शब्द प्रिय और दाता का वाचक है। अत: वह कल्याणस्वरूपा हैं, शिवप्रिया हैं और शिवदायिनी हैं; इसलिए ‘शिवा’ कही गयी हैं।
६. सती: देवी दुर्गा प्रत्येक युग में विद्यमान, पतिव्रता एवं सद्बुद्धि देने वाली हैं। इसलिए उन्हें ‘सती’ कहते हैं।
७. नित्या: जैसे भगवान नित्य हैं, वैसे ही भगवती भी ‘नित्या’ हैं। प्रलय के समय वे अपनी माया से परमात्मा श्रीकृष्ण में विलीन हो जाती हैं। अत: वे ‘नित्या’ कहलाती हैं।
८. सत्या: जिस प्रकार भगवान सत्य हैं, उसी तरह देवी दुर्गा सत्यस्वरूपा हैं। इसलिए ‘सत्या’ कही जाती हैं।
९. भगवती: ‘भग’ शब्द ऐश्वर्य के अर्थ में प्रयोग होता है, अत: सम्पूर्ण ऐश्वर्य आदि प्रत्येक युग में जिनके अंदर विद्यमान हैं, वे देवी दुर्गा ‘भगवती’ कही गयी हैं।
१०. सर्वाणी: देवी दुर्गा संसार के समस्त प्राणियों को जन्म, मृत्यु, जरा और मोक्ष की प्राप्ति कराती हैं इसलिए ‘सर्वाणी’ कही जाती हैं।
११. सर्वमंगला: ‘मंगल’ शब्द का अर्थ मोक्ष है और ‘आ’ शब्द का अर्थ है दाता। अत: जो मोक्ष प्रदान करती हैं उन्हें ‘सर्वमंगला’ कहते हैं।
१२. अम्बिका: देवी दुर्गा सबके द्वारा पूजित और वन्दित हैं तथा तीनों लोकों की माता हैं, इसलिए ‘अम्बिका’ कहलाती हैं।
१३. वैष्णवी: देवी श्रीविष्णु की भक्ता, और उनकी शक्ति हैं। सृष्टिकाल में विष्णु के द्वारा ही उनकी सृष्टि हुई है इसलिए उन्हें ‘वैष्णवी’ कहा जाता है।
१४. गौरी: भगवान शिव सबके गुरु हैं और देवी उनकी प्रिया हैं; इसलिए उनको ‘गौरी’ कहा गया है।
१५. पार्वती: देवी पर्वत गिरिराज हिमालय की पुत्री हैं, पर्वत पर प्रकट हुई हैं और पर्वत की अधिष्ठात्री देवी हैं इसलिए उनहें ‘पार्वती’ कहते हैं।
१६. सनातनी: ‘सना’ का अर्थ है सर्वदा और ‘तनी’ का अर्थ है विद्यमान । सब जगह और सब काल में विद्यमान होने से वे देवी ‘सनातनी’ कही गयीं है।
सांदीपनि गुरुकुल स्वाध्याय केंद्र, उज्जैन 8602666380/6260144580
[9/25, 5:48 AM] +91 86026 66380: *श्रीगणपति-पूजनकी प्राचीनता एवं वैदिकता*
( अनन्तश्रीविभूषित श्रीजगन्नाथपुरीक्षेत्रस्थ गोवर्धनपीठाधीश्वर जगद्गुरु शंकराचार्य स्वामी निरंजनदेवतीर्थ महाराज)
अनन्तकोटि-ब्रह्माण्डनायक, परात्पर, पूर्णतम, परब्रह्म, परमात्मा ही 'गणनाथ' एवं 'विनायक' कहे गये हैं। सृष्टिके उत्पादनमें आसुरी शक्तियोंद्वारा जो विघ्नबाधाएँ उपस्थित की जाती हैं, उनका निवारण करनेके लिये सृष्टिके प्रारम्भसे ही भगवान् गणपतिके रूपमें प्रकट हो ब्रह्माजीके कार्यमें सहायक होते आये हैं। ऋग्वेद-यजुर्वेद आदिके 'गणानां त्वा०' इत्यादि मन्त्रोंमें भगवान् गणपतिका सुस्पष्ट उल्लेख मिलता है। धर्मप्राण भारतीय जनता अनादिकालसे ही वैदिक एवं पौराणिक मन्त्रों द्वारा भगवान् गणपतिकी पूजा करती चली आ रही है।
कुछ लोगोंका कथन है कि वेदमें आये हुए मन्त्रोंका प्रकरणानुसार अर्थ देखनेपर यह सिद्ध नहीं होता कि वे मन्त्र गणेशपरक ही हैं। किंतु उनका यह कथन किसी प्रकार भी संगत नहीं दीखता; क्योंकि मन्त्रोंका विनियोग श्रुति, लिंग, वाक्य, प्रकरण, स्थान और समाख्या इन छ: प्रमाणोंके अनुसार होता है। इनमें भी श्रुति सबसे प्रबल है; परवर्ती सभी प्रमाण क्रमशः दुर्बल माने जाते हैं।
'श्रुतिलिङ्गवाक्यप्रकरणस्थानसमाख्यानां समवाये पारदौर्बल्यमर्थविप्रकर्षात् ।'
- जै० सू० ३।३।१४
इस सूत्रके द्वारा वेदमन्त्रोंके विनियोगकी व्यवस्था बतानेवाले महर्षि जैमिनिने यह स्पष्ट निर्णय दिया है कि श्रुतिसे होनेवाले विनियोगकी अपेक्षा लिंगसे होनेवाला विनियोग दुर्बल है। वेदके अर्थको जानकर किये हुए विनियोगको ही लिंगसे होनेवाला विनियोग कहते हैं। अर्थज्ञानकी अपेक्षा न रखकर सीधे श्रुतिवचनद्वारा बताया गया विनियोग ही श्रुतिके द्वारा किया गया 'विनियोग' कहलाता है। यह विनियोग अर्थको जानकर किये जानेवाले विनियोगकी अपेक्षा बलवान् होता है; क्योंकि वेदमन्त्र अर्थको जानकर जबतक हम उसका विनियोग करने जायँगे, उससे पहले ही श्रुति-वचन सीधा उसका विनियोग बतला देगा। इस न्यायसे 'गणानां त्वा०' इत्यादि मन्त्रोंके अर्थको जानकर विनियोग करनेमें विलम्ब होगा और वचनके द्वारा उससे पहले ही उनका सीधा श्रीगणेश पूजामें विनियोग हो जायगा। इन मन्त्रोंका गणेश पूजा में सीधा विनियोग बतानेवाले 'गणानां त्वेति मन्त्रेण गणानाथं प्रपूजयेत् ।'– ऐसे वचन शास्त्रों में मिलते हैं।
इसलिये इन मन्त्रोंका अनादिकालसे श्रीगणेशपूजामें चला आनेवाला विनियोग ध्रुव सत्य है। कहा जा सकता है कि ऐसे वचन स्मृतियों और पुराणोंमें मिलते हैं, वेदोंमें नहीं।' पर ऐसा कहना दुस्साहसमात्र है; क्योंकि चारों वेदोंकी ११३१ शाखाओंमेंसे इस समय केवल ११शाखाएँ ही उपलब्ध हैं। आचार्य श्रीजैमिनिने यह भी अपना निर्णय दिया है कि ‘स्मृतियों और पुराणोंमें मिलनेवाले वचनोंका यदि प्रत्यक्ष विरोध न मिलता हो तो यह अनुमान करना चाहिये कि इन्हीं अर्थोवाले वेद-मन्त्र अवश्य रहे हैं, जो अब उन शाखाओंके लुप्त हो जानेके कारण मिलते नहीं हैं। यदि स्मृतियों और पुराणोंके वचनोंका प्रत्यक्ष वेद-मन्त्रों से विरोध होता हो तो स्मृति और पुराणोंके वचन त्याग देने चाहिये। किंतु विरोध न होनेपर उन स्मृति-वचनोंके मूलभूत वचन, अनुपलब्ध वेदभागमें अवश्य होंगे, ऐसा अनुमान कर उन स्मृति पुराणोंके वचनोंको प्रमाण मानकर उनके अनुसार ही वेद-मन्त्रोंका विनियोग करना चाहिये। जैसा कि मीमांसाका वचन है-
'विरोधे त्वनपेक्षं स्यादसति ह्यनुमानम्।'
(मीमांसासू० १।३।३)
आचार्य श्रीजैमिनिके इस सूत्रके अनुसार सनातनधर्मी हिन्दू जनता अनादिकालसे भगवान् श्रीगणपतिका उपर्युक्त वेद-मन्त्रोंसे पूजन करती चली आयी है और भगवान् श्रीगणपतिकी कृपासे उसके सभी कार्य आजतक निर्विघ्न सानन्द सफल होते चले आये हैं। परमपूज्यपाद भगवान् आद्य शंकराचार्य महाराजने अपने ग्रन्थोंमें यह स्पष्ट शब्दों में लिखा है कि 'यदि अनन्तकोटि-ब्रह्माण्डनायक परात्पर ब्रह्म भगवान् श्रीगणेशजी प्रसन्न हो जायँ तो पशु-पक्षियों तक के भी सब कार्य निर्विघ्न सम्पन्न हो जाते हैं और यदि अप्रसन्न हों तो साक्षात् विश्वके स्रष्टा भी उस कार्यके करनेमें सर्वथा असफल हो जाते हैं।'
भगवान् श्रीगणेशजी साक्षात् परात्पर ब्रह्म हैं। अतः आस्तिक हिंदू जनताको बड़ी श्रद्धा तथा दृढ़ भक्तिके साथ भगवान् श्रीगणपति गणेशकी सदैव पूजा, प्रार्थना ध्यान आदि करना-कराना चाहिये । इहलौकिक और पारलौकिक सभी कार्योंकी निर्विघ्न और सानन्द सम्पन्नताका एकमात्र उपाय भगवान् गणेशजीकी प्रसन्नता ही है।
सांदीपनि गुरुकुल स्वाध्याय केंद्र उज्जैन ,8602666380/626044580
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