Wednesday, 6 September 2023

चार मिले चौसठ खिले,,,--बीस रहे कर जोड़,,,प्रेमी प्रेमी दो मिले,,,,--खिल गए सात करोड़,,,

 आज  के  विचार

( "श्रीकृष्णचरितामृतम्" - भाग 243 )

!! जय जय हो बृजगोपिन की - "उद्धव प्रसंग 27" !! 

25, 11, 2021

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जय हो ,  जय जय हो  प्रेम की ......

जय हो,  जय जय हो बृजगोपिन की .....

जय हो, जय जय हो बृज भूमि की ......

मैं पावन हो गया .....मैं बृज रज में लोटकर पवित्र हो गया ।

उद्धव !    तुम ये क्या कर रहे हो  ?     

देवर्षि नारद जी  उसी समय नभ से उतरे..और मुझे जब उन्होंने  गोपियों के आगे  बृज रज में लोटते देखा तो साश्चर्य  पूछने लगे थे  ! 

ये वर्णव्यवस्था के अनुकूल नही है उद्धव ! .....तुम तो शास्त्रज्ञ हो .......जानते हो  और देवगुरु के शिष्य भी रहे हो .......फिर मर्यादा क्यों तोड़ते हो ?

देवर्षि नारद जी ये सब क्यों कह रहे थे........मुझे पता नही ....न मैं उस स्थिति में था  कि  मैं  देवर्षि के वाक्यों से कुछ अर्थ निकालता  ....मैं तो प्रेम के  सिन्धु में डूब गया था......अब निकलना  असम्भव  ।

ये ठीक नही कर रहे तुम उद्धव !   ये स्त्रियाँ हैं ......और  निम्नकुलोद्भव हैं  पर तुम !  तुम तो क्षत्रिय हो ......सन्मान्य क्षत्रिय .......फिर इस तरह क्यों स्त्रियों के सामनें  लोट रहे हो ......!   देवर्षि बोले जा रहे थे ।

उद्धव ! इन गोपियों नें तो अपनें स्वधर्म की भी तिलांजलि दे दी है .......पतिधर्म स्त्री के लिये सबसे बड़ा होता है ......पर ये तो पतियों को त्याग कर  श्रीकृष्ण के पीछे दौड़ रही हैं.......ये  धर्म तो नही है  ?

तात !  मैं देवर्षि की बातें सुनकर हंसा.......किस पति की बात कर रहे हैं आप देवर्षि ?    मेरे नेत्रों से अश्रु निरन्तर बह रहे थे  ।

ये हाड मांस का पति ?      या पतियों के पति श्रीकृष्ण से प्रेम !

सर्वश्रेष्ठ पतिव्रता हैं ये  गोपियाँ  !     

अनुसुईया अरुंधती आदि जितनी पतिव्रतायें हुयी हैं ...........वो सब भी इन गोपियों के चरण की धूल भी नही है ...........

पता है  देवर्षि !   क्यों  ?      क्यों कि   हाड मांस के पुतले में  अनुसुइया आदि को भगवान देखनें पड़ते थे........उनका पति भगवान है नही ....पर जबरदस्ती वो देखती थीं ........पर  धन्य हैं ये गोपियाँ  जिन्होनें जिस से प्यार किया  वो भगवान ही है .........छोड़ा किसे ?    जिसे आप छोड़ा कह रहे हैं  वो पति तो छूटा हुआ ही है ......कुछ वर्षों बाद छूटना ही है ........पर  धन्य हैं  ये गोपियाँ  इन्होनें जिसे चुना प्रेम के लिये ......वो  ईश्वर है .....वो परब्रह्म है ........देवर्षि !  आप  इन गोपियों को निम्नकुलोद्भव कह रहे हैं !  अरे ! ये तो नारी जाति की महिमा हैं  ।

इनका प्रेम .....रुढ़ प्रेम .........निःस्वार्थ प्रेम !     इसकी किससे तुलना हो सकती है ..............

देवर्षि !  मैं आपको कहता हूँ ........जितनें देहधारी हैं उन सबमें अगर भाग्यशाली कोई है   तो ये गोपीयाँ  ही हैं.......इनके द्वारा जगत का मंगल हुआ है ... जानते हैं  देवर्षि !  क्यों ?  क्यों कि   इन्होनें प्रेम के गीत गाये ।

 
प्रेम का दर्शन विश्व को इन्होनें ही कराया !       धन्य हैं ये  !

और मैं क्या  ?   इनके आगे तो बड़े सिद्ध भी  कुछ  नही है ।

मेरे नेत्रों से अश्रु बहनें लगे थे .......धूलधूसरित देह हो गया था मेरा .......मैने  गोपियों के पद रज को अपनें सम्पूर्ण देह में लगा लिया था ।

देवर्षि !   मेरी अब कोई इच्छा नही है ........मेरे स्वामी अगर मुझे आज्ञा दें  तो उद्धव इसी बृज में रहकर   जीवन सफल बनाएगा  ......बस यही एक मात्र इच्छा है मेरी अब  ।

नही नही ......मुझे  कुछ नही चाहिये .......न भुक्ति न मुक्ति ...न स्वर्ग न अपवर्ग .........कुछ नही ...........हाँ ,   मैं एक वस्तु अवश्य चाहता हूँ ......कि मेरा जनम  हो   तो इसी बृज में हो ........मेरा जनम हो  तो  इसी वृन्दावन में हो ..........और  इसी वृन्दावन की एक लता ही  बन जाऊँ ..........हाँ,  देवर्षि !   गुल्म लता .............

पर गुल्म लता क्यों ?  श्रेष्ठ वृक्ष क्यों नही ?    पीपल आदि  !

देवर्षि की बातों का मैं उत्तर दे रहा था .........हे देवर्षि !     नही वृक्ष नही ....मुझे इस वृन्दावन की लता ही बना दो . .........पता है देवर्षि !   लताओं में   इन गोपियों की चुनरी उलझ जायेगी .......मैं धन्य हो जाऊँगा  ......आह !  मेरा लता होना सफल हो जायेगा .........मैं तो वृन्दावन का  रज  कण बनना चाहता हूँ  ....पर मेरे चाहनें से क्या होगा  ?       

उद्धव !   रज कण क्यों ?   

ये प्रेमिन गोपियाँ मेरे ऊपर से चलेंगी इनकी पद धूल मेरे माथे पर पड़ेगी .......उद्धव धन्य हो जाएगा ...............ये कहते हुये मैं बृज रज को उछालनें लगा था ...........देवर्षि  मेरी दशा देखकर  आनन्दित हो उठे ......बृज रज उन्होंने भी  अपनें सिर में लगाया ........और  

जय हो प्रेम की ....जय जय हो बृज गोपिन की ......

देवर्षि  ये कहते हुये  वहाँ से चले गए थे  ।

शेष चरित्र कल -

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*सेठ जी की परीक्षा*


*बनारस में एक बड़े धनवान सेठ रहते थे। वह  विष्णु भगवान् के परम भक्त थे और हमेशा सच बोला करते थे ।*

*एक बार जब भगवान् सेठ जी की प्रशंशा कर रहे थे तभी माँ लक्ष्मी ने कहा , ” स्वामी , आप इस सेठ की इतनी प्रशंशा किया करते हैं , क्यों न आज उसकी परीक्षा ली जाए और जाना जाए कि क्या वह सचमुच इसके लायक है या नहीं ? ”*

*भगवान् बोले , ” ठीक है ! अभी सेठ गहरी निद्रा में है आप उसके स्वप्न में जाएं और उसकी परीक्षा ले लें। ”*

*अगले ही क्षण सेठ जी को एक स्वप्न आया।*

*स्वप्न मेँ धन की देवी लक्ष्मी उनके सामनेँ आई और बोली ,” हे मनुष्य !  मैँ धन की दात्री लक्ष्मी हूँ।”*

*सेठ जी को अपनी आँखों पर यकीन नहीं हुआ और वो बोले , ” हे माता आपने साक्षात अपने दर्शन देकर मेरा जीवन धन्य कर दिया है , बताइये मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूँ ?”*

*” कुछ नहीं ! मैं तो बस इतना बताने आयी हूँ कि मेरा स्वाभाव चंचल है, और वर्षों से तुम्हारे भवन में निवास करते-करते मैं ऊब चुकी हूँ और यहाँ से जा रही हूँ। ”*

*सेठ जी बोले , ” मेरा आपसे निवेदन है कि आप यहीं रहे , किन्तु अगर आपको यहाँ अच्छा नहीं लग रहा है तो मैं भला आपको कैसे रोक सकता हूँ, आप अपनी इच्छा अनुसार जहाँ चाहें जा सकती हैं। ”*

*और माँ लक्ष्मी उसके घर से चली गई।*

*थोड़ी देर बाद वे रूप बदल कर पुनः सेठ के स्वप्न मेँ यश के रूप में आयीं और बोलीं ,” सेठ मुझे पहचान रहे हो?”*

*सेठ – “नहीं महोदय आपको नहीँ पहचाना।*

*यश – ” मैं यश हूँ , मैं ही तेरी कीर्ति और प्रसिध्दि का कारण हूँ । लेकिन अब मैँ तुम्हारे साथ नहीँ रहना चाहता क्योँकि माँ लक्ष्मी यहाँ से चली गयी हैं अतः मेरा भी यहाँ कोई काम नहीं। ”*

*सेठ -” ठीक है , यदि आप भी जाना चाहते हैं तो वही सही। ”*

*सेठ जी अभी भी स्वप्न में ही थे और उन्होंने देखा कि वह दरिद्र हो गए है और धीरे-धीरे उनके सारे रिश्तेदार व मित्र भी उनसे दूर हो गए हैं। यहाँ तक की जो लोग उनका गुणगान किया करते थे वो भी अब बुराई करने लगे हैं।*

*कुछ और समय बीतने पर माँ लक्ष्मी धर्म का रूप धारण कर पुनः सेठ के स्वप्न में आयीं और बोलीं , ” मैँ धर्म हूँ। माँ लक्ष्मी और यश के जाने के बाद मैं भी इस दरिद्रता में तुम्हारा साथ नहीं दे सकता , मैं जा रहा हूँ। ”*

*” जैसी आपकी इच्छा। ” , सेठ ने उत्तर दिया।*

**और धर्म भी वहाँ से चला गया।*

*कुछ और समय बीत जाने पर माँ लक्ष्मी सत्य के रूप में स्वप्न में प्रकट हुईं और बोलीं ,”मैँ सत्य हूँ।*

*लक्ष्मी , यश, और धर्म के जाने के बाद अब मैं भी यहाँ से जाना चाहता हूँ. “*

*ऐसा सुन सेठ जी ने तुरंत सत्य के पाँव पकड़ लिए और बोले ,” हे महाराज , मैँ आपको नहीँ जानेँ दुँगा। भले ही सब मेरा साथ छोड़ दें , मुझे त्याग दें पर कृपया आप ऐसा मत करिये , सत्य के बिना मैँ एक क्षण नहीँ रह सकता , यदि आप चले जायेंगे तो मैं तत्काल ही अपने प्राण त्याग दूंगा। “*

*” लेकिन तुमने बाकी तीनो को बड़ी आसानी से जाने दिया , उन्हें क्यों नहीं रोका। ” , सत्य ने प्रश्न किया।*

*सेठ जी बोले , ” मेरे लिए वे तीनो भी बहुत महत्त्व रखते हैं लेकिन उन तीनो के बिना भी मैं भगवान् के नाम का जाप करते-करते उद्देश्यपूर्ण जीवन जी सकता हूँ , परन्तु यदि आप चले गए तो मेरे जीवन में झूठ प्रवेश कर जाएगा और मेरी वाणी अशुद्ध हो जायेगी , भला ऐसी वाणी से मैं अपने भगवान् की वंदना कैसे कर सकूंगा, मैं तो किसी भी कीमत पर आपके बिना नहीं रह सकता।*

*सेठ जी का उत्तर सुन सत्य प्रसन्न हो गया ,और उसने कहा , “तुम्हारी अटूट भक्ति नेँ मुझे यहाँ रूकनेँ पर विवश कर दिया और अब मैँ यहाँ से कभी नहीं जाऊँगा। ” और ऐसा कहते हुए सत्य अंतर्ध्यान हो गया।*

*सेठ जी अभी भी निद्रा में थे।*

*थोड़ी देर बाद स्वप्न में धर्म वापस आया और बोला , “ मैं अब तुम्हारे पास ही रहूँगा क्योंकि यहाँ सत्य का निवास है .” सेठ जी ने प्रसन्नतापूर्वक धर्म का स्वागत किया।*

*उसके तुरंत बाद यश भी लौट आया और बोला , “ जहाँ सत्य और धर्म हैं वहाँ यश स्वतः ही आ जाता है , इसलिए अब मैं भी तुम्हारे साथ ही रहूँगा।*

*सेठ जी ने यश की भी आव -भगत की।*

*और अंत में माँ लक्ष्मी आयीं।*

*उन्हें देखते ही सेठ जी नतमस्तक होकर बोले , “ हे देवी ! क्या आप भी पुनः मुझ पर कृपा करेंगी ?”*

*“अवश्य,जहां,सत्य,धर्म और यश हों वहाँ मेरा वास निश्चित है। ”, माँ लक्ष्मी ने उत्तर दिया।*

*यह सुनते ही सेठ जी की नींद खुल गयी। उन्हें यह सब स्वप्न लगा पर वास्तविकता में वह एक कड़ी परीक्षा से उत्तीर्ण हो कर निकले थे।*

*मित्रों, हमें भी हमेशा याद रखना चाहिए कि जहाँ सत्य का निवास होता है वहाँ यश,धर्म और लक्ष्मी का निवास स्वतः ही हो जाता है । सत्य है तो सिध्दि,प्रसिध्दि और समृद्धि है..!!*
   *🙏🏼🙏🏽🙏🏻जय श्री कृष्ण*🙏🏿🙏🙏🏾
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*विश्वास (believe) तथा विश्वास (trust) में अंतर*
     
     *एक बार, दो बहुमंजिली इमारतों के बीच, बंधी हुई एक तार पर लंबा सा बाँस पकड़े, एक कलाकार चल रहा था ।*

*उसने अपने कन्धे पर अपना बेटा बैठा रखा था ।  सैंकड़ों, हज़ारों लोग दम साधे देख रहे थे।* 

*सधे कदमों से, तेज हवा से जूझते हुए, अपनी और अपने बेटे की ज़िंदगी दाँव पर लगाकर, उस कलाकार ने दूरी पूरी कर ली।*

*भीड़ आह्लाद से उछल पड़ी, तालियाँ, सीटियाँ बजने लगी ।   लोग उस कलाकार की फोटो खींच रहे थे, उसके साथ सेल्फी ले रहे थे। उससे हाथ मिला रहे थे*

*वो कलाकार माइक पर आया, भीड़ को बोला, "क्या आपको विश्वास है कि मैं यह दोबारा भी कर सकता हूँ ??"*

*भीड़ चिल्लाई, "हाँ हाँ, तुम कर सकते हो ।"*

*उसने पूछा, क्या आपको विश्वास है,भीड़ चिल्लाई हाँ पूरा विश्वास है,हम तो शर्त भी लगा सकते हैं कि तुम सफलता पूर्वक इसे दोहरा भी सकते हो ।*

*कलाकार बोला,पूरा पूरा विश्वास है ना।भीड़ बोली,हाँ हाँ*

*कलाकार बोला, "ठीक है, कोई मुझे अपना बच्चा दे दे,*

*मैं उसे अपने कंधे पर बैठा कर रस्सी पर चलूँगा।"*

*फिर एक दम खामोशी, शांति,चुप्पी सी फैल गयी।*

*कलाकार बोला,"डर गए...!"*

*अभी तो आपको विश्वास था कि मैं कर सकता हूँ। असल में आप का यह विश्वास  है, पर मुझमेँ विश्वास नहीं है । दोनों विश्वासों में फर्क है साहेब !*

*यही कहना है, "ईश्वर हैं !" ये तो विश्वास है !*

*परन्तु ईश्वर में सम्पूर्ण विश्वास नहीं है ।*

*अगर ईश्वर में पूर्ण विश्वास है तो चिंता, क्रोध और तनाव क्यों ??? जरा सोचिए !!!*

*हम करते वो हो जो हम चाहते हो।परन्तु होता वो है जो वो चाहता है।*

*करो वैसा जो वो चाहता है,फिर होगा वो जो हम चाहते है..!!*
   *🙏🏾🙏🙏🏿जय श्री कृष्ण*🙏🏻🙏🏽🙏🏼
[बरसाने के एक संत की कथा

एक संत बरसाना में रहते थे और हर रोज सुबह उठकर यमुना जी में स्नान करके राधा जी के दर्शन करने जाया करते थे यह नियम हर रोज का था। जब तक राधा रानी के दर्शन नहीं कर लेते थे,तब तक जल भी ग्रहण नहीं करते थे। दर्शन करते करते तकरीबन उनकी ऊम्र अस्सी वर्ष की हो गई।

आज सुबह उठकर रोज की तरह उठे और यमुना में स्नान किया और राधा रानी के दर्शन को गए। मन्दिर के पट खुले और राधा रानी के दर्शन करने लगे।
दर्शन करते करते संन्त के मन मे भाव आया की :- "मुझे राधा रानी के दर्शन करते करते आज अस्सी वर्ष हो गये लेकिन मैंने आज तक राधा रानी को कोई भी वस्त्र नहीं चड़ाये लोग राधा रानी के लिये, कोई नारियल लाता है, कोई चुनरिया लाता है, कोई चूड़ी लाता है, कोई बिन्दी लाता है, कोई साड़ी लाता है, कोई लहंगा चुनरिया लाता है। लेकिन मैंने तो आज तक कुछ भी नहीं चढ़ाया है।"

यह विचार संत जी के मन मे आया की "जब सभी मेरी राधा रानी लिए कुछ ना कुछ लाते है, तो मैं भी अपनी राधा रानी के लिए कुछ ना कुछ लेकर जरूर आऊँगा। लेकिन क्या लाऊं? जिससे मेरी राधा रानी खुश हो जाये ? 

तो संन्त जी यह सोच कर अपनी कुटिया मे आ गए। सारी रात सोचते सोचते सुबह हो गई उठे उठ कर स्नान किया और आज अपनी कुटिया मे ही राधा रानी के दर्शन पूजन किया।

दर्शन के बाद मार्केट मे जाकर सबसे सुंदर वाला लहंगा चुनरिया का कपड़ा लाये और अपनी कुटिया मे आकर के अपने ही हाथों से लहंगा-चुनरिया को सिला और सुंदर से सुंदर उस लहंगा-चुनरिया मे गोटा लगाये। जब पूरी तरह से लहंगा चुनरिया को तैयार कर लिया तो मन में सोचा कि "इस लहंगा चुनरिया को अपनी राधा रानी को पहनाऊगां तो बहुत ही सुंदर मेरी राधा रानी लगेंगी।"

यह सोच करके आज संन्त जी उस लहंगा-चुनरिया को लेकर रा
: चार मिले चौसठ खिले,,,--बीस रहे कर जोड़,,,
प्रेमी प्रेमी दो मिले,,,,--खिल गए सात करोड़,,,

अभी अभी एक बुजुर्ग ने यह कहावत पूछी मुझसे,,, काफी सोच विचार के बाद भी मैं तो बता नहीं पाया,,, मैंने कहा बाबा आप ही बताइए न,,,

तब एक रहस्यमय मुस्कान के साथ समझाने लगे--देखो भगवन,, यह बड़े रहस्य की बात है,, चार मिले--मतलब जब भी कोई मिलता है तो सबसे पहले दोनों के नयन मिलते हैं आपस में,, इसलिए कहा चार मिले,, फिर कहा चौसठ खिले--यानी बत्तीस बत्तीस दांत,, दोनों के मिलाकर चौसठ हो गए,, चार मिले चौसठ खिले,,

बीस रहे कर जोड़--दोनों हाथों की दस उंगलियां,, दोनों व्यक्तियों की 20 हुई,, बीसों मिलकर ही एक दूसरे को प्रणाम की मुद्रा में हाथ बरबस उठ ही जाते हैं,,,

प्रेमी प्रेमी दो मिले--जब दो प्रेम करने वाले मिले,, यह बड़े रहस्य की बात है,, क्योंकि मिलने वाले प्रेमी न हुए तो न बीस रहे कर जोड़ होगा और न चौसठ खिलेंगे,,,

शरीर में रोम की गिनती करनी असम्भव है वैसे तो लेकिन मोटा मोटा साढ़े तीन करोड़ कहते हैं कहने वाले,,,तो कवि ने अंतिम रहस्य भी प्रकट कर दिया--प्रेमी प्रेमी दो मिले--खिल गए सात करोड़,,

जब कोई मिलता है ऐसा अन्तर्हृदय में बसा हुआ तो रोम रोम खिलना स्वाभाविक ही है भाई,,, जैसे ही कोई ऐसा मिलता है तो अंतिम पंक्ति में पूरा रस निचोड़ दिया है,,खिल गए सात करोड़,, यानी रोम रोम खिल जाना स्वाभाविक ही है,,,

भई वाह आनंद आ गया,,, कहावतों में कितना सार छुपा है,,,एक एक शब्द चासनी में डूबा हुआ,,,हृदय को भावविभोर करता हुआ,,,🙏🌹
 *आप सभी को जन्माष्टमी की हार्दिक शुभकामनाएं*

*भगवान कृष्णा से जुडी एक लीला* 

भगवान कृष्ण की माखन लीला ( कथा सार )
भगवान जब चलने लगे तो पहली बार घर से बाहर निकले. ब्रज से बाहर भगवान की मित्र मंडली बन गयी. सुबल, मंगल, सुमंगल, श्रीदामा, तोसन, आदि मित्र बन गये. सब मिलकर हर दिन माखन चोरी करने जाते. चोर मंडली के अध्यक्ष स्वयं माखन चोर श्रीकृष्ण थे.सब एक जगह इकट्टा होकर योजना बनाते कि किस गोपी के घर चोरी करनी है . 

आज ‘चिकसोले वाली’ गोपी की बारी थी.भगवान ने गोपी के घर के पास सारे मित्रों को छिपा दिया और स्वयं उसके घर पहुँच गये.दरवाजा खटखटाने लगे,भगवान ने अपने बाल और काजल बिखरा लिया. गोपी ने दरवाजा खोला, तो श्रीकृष्ण को खड़े देखा.

गोपी बोली – ‘अरे लाला! आज सुबह-सुबह यहाँ कैसे? 

कन्हैया बोले – ‘गोपी क्या बताऊँ! आज सुबह उठते ही, मैया ने कहा लाला तू चिकसोले वाली गोपी के घर चले जाओ और उससे कहना आज हमारे घर में संत आ गए है मैंने तो ताजा माखन निकला नहीं, चिकसोले वाली तो बहुत सुबह ही ताजा माखन निकल लेती है उनसे जाकर कहना कि एक मटकी माखन दे दो, बदले में दो मटकी माखन लौटा दूँगी .

गोपी बोली – लाला! मै अभी माखन की मटकी लाती हूँ और मैया से कह देना कि लौटने की जरुरत नहीं है संतो की सेवा मेरी तरफ से हो जायेगी .झट गोपी अंदर गयी और माखन की मटकी लाई और बोली - लाला ये माखन लो और ये मिश्री भी ले जाओ. 

कन्हैया माखन लेकर बाहर आ गए और गोपी ने दरवाजा बंद कर लिया .भगवान ने झट अपने सारे सखाओ को पुकारा श्रीदामा, मंगल, सुबल, जल्दी आओ, सब-के-सब झट से बाहर आ गए भगवान बोले जिसके यहाँ चोरी की हो उसके दरवाजे पर बैठकर खाने में ही आनंद आता है, झट सभी गोपी के दरवाजे के बाहर बैठ गए, भगवान ने सबकी पत्तल पर माखन और मिश्री रख दी. और बीच में स्वयं बैठ गए सभी सखा माखन और मिश्री खाने लगे. माखन के खाने से पट पट और मिश्री के खाने से कट-कट की, जब आवाज गोपी ने अंदर से सुनी तो वह सोचने लगी कि ये आवाज कहाँ से आ रही है और जैसे ही उसने दरवाजा खोला तो सारे मित्रों के साथ श्रीकृष्ण बैठे माखन खा रहे थे. 

गोपी बोली – ‘क्यों रे कन्हैया! माखन संतो को चाहिए था या इन चोरों को? 

भगवान बोले -'देखो गोपी! ये भी किसी संत से कम नहीं है सब के सब नागा संत है देखो किसी ने भी वस्त्र नहीं पहिन रखे है, तू इन्हें दंडवत प्रणाम कर. 

गोपी बोली - अच्छा कान्हा! इन्हें दंडवत प्रणाम करूँ, रुको, अभी अंदर से डंडा लेकर आती हूँ .गोपी झट अंदर गयी और डंडा लेकर आयी.

भगवान ने कहा- 'मित्रों! भागो, नहीं तो गोपी पूजा कर देगी.

एक दिन जब मैया ताने सुन सुनकर थक गयी तो उन्होंने भगवान को घर में ही बंद कर दिया जब आज गोपियों ने कन्हैया को नहीं देखा तो सब के सब उलाहना देने के बहाने नंदबाबा के घर आ गयी और नंदरानी यशोदा से कहने लगी- यशोदा तुम्हारे लाला बहुत नटखट है, ये असमय ही बछडो को खोल देते है, और जब हम दूध दुहने जाती है तो गाये दूध तो देती नहीं लात मारती है जिससे हमारी कोहनी भी टूटे और दुहनी भी टूटे.घर मै कही भी माखन छुपाकर रखो, पता नहीं कैसे ढूँढ लेते है यदि इन्हें माखन नहीं मिलता तो ये हमारे सोते हुए बच्चो को चिकोटी काटकर भाग जाते है, ये माखन तो खाते ही है साथ में माखन की मटकी भी फोड़ देते है*. 

यशोदा जी कन्हैया का हाथ पकड़कर गोपियों के बीच में खड़ा कर देती है और कहती है कि ‘तौल-तौल लेओ वीर, जितनों जाको खायो है, पर गली मत दीजो, मौ गरिबनी को जायो है’. जब गोपियों ने ये सुना तो वे कहने लगी - यशोदा हम उलाहने देने नही आये है आपने आज लाला को घर में ही बंद करके रखा है हमने सुबह से ही उन्हें नही देखा है इसलिए हम उलाहने देने के बहाने उन्हें देखने आए थे. जब यशोदा जी ने ये सुना तो वे कहने लगी- गोपियों तुम मेरे लाला से इतना प्रेम करती हो, आज से ये सारे वृन्दावन के लाल है
( बोलो कृष्ण कन्हैया की जय जय जय श्री राधे ....)

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