Monday, 2 October 2023

श्राद्ध की वस्तुएं पितरों को कैसे मिलती हैं?*श्राद्ध का अर्थ : - ‘श्रद्धया दीयते यत् तत् श्राद्धम्।’‘श्राद्ध’ का अर्थ है श्रद्धा से जो कुछ दिया जाए। पितरों के लिए श्रद्धापूर्वक किए गए पदार्थ-दान (हविष्यान्न, तिल, कुश, जल के दान) का नाम ही श्राद्ध है। श्राद्धकर्म पितृऋण चुकाने का सरल व सहज मार्ग है। पितृपक्ष में श्राद्ध करने से पितरगण वर्षभर प्रसन्न रहते हैं।

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*श्राद्ध की वस्तुएं पितरों को कैसे मिलती हैं?*

श्राद्ध का अर्थ : - ‘श्रद्धया दीयते यत् तत् श्राद्धम्।’

‘श्राद्ध’ का अर्थ है श्रद्धा से जो कुछ दिया जाए। पितरों के लिए श्रद्धापूर्वक किए गए पदार्थ-दान (हविष्यान्न, तिल, कुश, जल के दान) का नाम ही श्राद्ध है। श्राद्धकर्म पितृऋण चुकाने का सरल व सहज मार्ग है। पितृपक्ष में श्राद्ध करने से पितरगण वर्षभर प्रसन्न रहते हैं।

श्राद्ध-कर्म से व्यक्ति केवल अपने सगे-सम्बन्धियों को ही नहीं, बल्कि ब्रह्मा से लेकर तृणपर्यन्त सभी प्राणियों व जगत को तृप्त करता है। पितरों की पूजा को साक्षात् विष्णुपूजा ही माना गया है।

श्राद्ध की वस्तुएं पितरों को कैसे मिलती हैं?

प्राय: कुछ लोग यह शंका करते हैं कि श्राद्ध में समर्पित की गईं वस्तुएं पितरों को कैसे मिलती है? कर्मों की भिन्नता के कारण मरने के बाद गतियां भी भिन्न-भिन्न होती हैं–कोई देवता, कोई पितर, कोई प्रेत, कोई हाथी, कोई चींटी, कोई वृक्ष और कोई तृण बन जाता है। तब मन में यह शंका होती है कि छोटे से पिण्ड से अलग-अलग योनियों में पितरों को तृप्ति कैसे मिलती है? इस शंका का स्कन्दपुराण में बहुत सुन्दर समाधान मिलता है।

एक बार राजा करन्धम ने महायोगी महाकाल से पूछा–’मनुष्यों द्वारा पितरों के लिए जो तर्पण या पिण्डदान किया जाता है तो वह जल, पिण्ड आदि तो यहीं रह जाता है फिर पितरों के पास वे वस्तुएं कैसे पहुंचती हैं और कैसे पितरों को तृप्ति होती है?’

भगवान महाकाल ने बताया कि–विश्वनियन्ता ने ऐसी व्यवस्था कर रखी है कि श्राद्ध की सामग्री उनके अनुरुप होकर पितरों के पास पहुंचती है। इस व्यवस्था के अधिपति हैं अग्निष्वात आदि। पितरों और देवताओं की योनि ऐसी है कि वे दूर से कही हुई बातें सुन लेते हैं, दूर की पूजा ग्रहण कर लेते हैं और दूर से कही गयी स्तुतियों से ही प्रसन्न हो जाते हैं। 

वे भूत, भविष्य व वर्तमान सब जानते हैं और सभी जगह पहुंच सकते हैं। पांच तन्मात्राएं, मन, बुद्धि, अहंकार और प्रकृति–इन नौ तत्वों से उनका शरीर बना होता है और इसके भीतर दसवें तत्व के रूप में साक्षात् भगवान पुरुषोत्तम उसमें निवास करते हैं। इसलिए देवता और पितर गन्ध व रसतत्व से तृप्त होते हैं। शब्दतत्व से रहते हैं और स्पर्शतत्व को ग्रहण करते हैं। पवित्रता से ही वे प्रसन्न होते हैं और वर देते हैं।

पितरों का आहार है अन्न-जल का सारतत्व!!!!

जैसे मनुष्यों का आहार अन्न है, पशुओं का आहार तृण है, वैसे ही पितरों का आहार अन्न का सार-तत्व (गंध और रस) है। अत: वे अन्न व जल का सारतत्व ही ग्रहण करते हैं। शेष जो स्थूल वस्तु है, वह यहीं रह जाती है।

किस रूप में पहुंचता है पितरों को आहार ?

नाम व गोत्र के उच्चारण के साथ जो अन्न-जल आदि पितरों को दिया जाता है, विश्वेदेव एवं अग्निष्वात (दिव्य पितर) हव्य-कव्य को पितरों तक पहुंचा देते हैं। यदि पितर देवयोनि को प्राप्त हुए हैं तो यहां दिया गया अन्न उन्हें ‘अमृत’ होकर प्राप्त होता है। यदि गन्धर्व बन गए हैं तो वह अन्न उन्हें भोगों के रूप में प्राप्त होता है।

 यदि पशुयोनि में हैं तो वह अन्न तृण के रूप में प्राप्त होता है। नागयोनि में वायुरूप से, यक्षयोनि में पानरूप से, राक्षसयोनि में आमिषरूप में, दानवयोनि में मांसरूप में, प्रेतयोनि में रुधिररूप में और मनुष्य बन जाने पर भोगने योग्य तृप्तिकारक पदार्थों के रूप में प्राप्त होता हैं।

जिस प्रकार बछड़ा झुण्ड में अपनी मां को ढूंढ़ ही लेता है, उसी प्रकार नाम, गोत्र, हृदय की भक्ति एवं देश-काल आदि के सहारे दिए गए पदार्थों को मन्त्र पितरों के पास पहुंचा देते हैं। जीव चाहें सैकड़ों योनियों को भी पार क्यों न कर गया हो, तृप्ति तो उसके पास पहुंच ही जाती है।

श्रीराम द्वारा श्राद्ध में आमन्त्रित ब्राह्मणों में सीताजी ने किए राजा दशरथ व पितरों के दर्शन!!!!!

श्राद्ध में आमन्त्रित ब्राह्मण पितरों के प्रतिनिधिरूप होते हैं। एक बार पुष्कर में श्रीरामजी अपने पिता दशरथजी का श्राद्ध कर रहे थे। रामजी जब ब्राह्मणों को भोजन कराने लगे तो सीताजी वृक्ष की ओट में खड़ी हो गयीं। ब्राह्मण-भोजन के बाद रामजी ने जब सीताजी से इसका कारण पूछा तो वे बोलीं–

‘मैंने जो आश्चर्य देखा, उसे आपको बताती हूँ। आपने जब नाम-गोत्र का उच्चारणकर अपने पिता-दादा आदि का आवाहन किया तो वे यहां ब्राह्मणों के शरीर में छायारूप में सटकर उपस्थित थे। ब्राह्मणों के शरीर में मुझे अपने श्वसुर आदि पितृगण दिखाई दिए फिर भला मैं मर्यादा का उल्लंघनकर वहां कैसे खड़ी रहती; इसलिए मैं ओट में हो गई।’

श्राद्ध में तुलसी की महिमा!!!!!!

तुलसी से पिण्डार्चन किए जाने पर पितरगण प्रलयपर्यन्त तृप्त रहते हैं। तुलसी की गंध से प्रसन्न होकर गरुड़ पर आरुढ़ होकर विष्णुलोक चले जाते हैं।

पितर प्रसन्न तो सभी देवता प्रसन्न!!!!!

श्राद्ध से बढ़कर और कोई कल्याणकारी कार्य नहीं है और वंशवृद्धि के लिए तो पितरों की आराधना ही एकमात्र उपाय है—

आयु: पुत्रान् यश: स्वर्ग कीर्तिं पुष्टिं बलं श्रियम्।
पशुन् सौख्यं धनं धान्यं प्राप्नुयात् पितृपूजनात्।। (यमस्मृति, श्राद्धप्रकाश)

यमराजजी का कहना है कि–

–श्राद्ध-कर्म से मनुष्य की आयु बढ़ती है।
–पितरगण मनुष्य को पुत्र प्रदान कर वंश का विस्तार करते हैं।
–परिवार में धन-धान्य का अंबार लगा देते हैं।
–श्राद्ध-कर्म मनुष्य के शरीर में बल-पौरुष की वृद्धि करता है और यश व पुष्टि प्रदान करता है।
–पितरगण स्वास्थ्य, बल, श्रेय, धन-धान्य आदि सभी सुख, स्वर्ग व मोक्ष प्रदान करते हैं।
–श्रद्धापूर्वक श्राद्ध करने वाले के परिवार में कोई क्लेश नहीं रहता वरन् वह समस्त जगत को तृप्त कर देता है।

श्राद्ध न करने से होने वाली हानि????*

शास्त्रों में श्राद्ध न करने से होने वाली हानियों का जो वर्णन किया गया है, उन्हें जानकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं। शास्त्रों में मृत व्यक्ति के दाहकर्म के पहले ही पिण्ड-पानी के रूप में खाने-पीने की व्यवस्था कर दी गयी है। यह तो मृत व्यक्ति की इस महायात्रा में रास्ते के भोजन-पानी की बात हुई। परलोक पहुंचने पर भी उसके लिए वहां न अन्न होता है और न पानी। यदि सगे-सम्बन्धी भी अन्न-जल न दें तो भूख-प्यास से उसे वहां बहुत ही भयंकर दु:ख होता है।

आश्विनमास के पितृपक्ष में पितरों को यह आशा रहती है कि हमारे पुत्र-पौत्रादि हमें अन्न-जल से संतुष्ट करेंगे; यही आशा लेकर वे पितृलोक से पृथ्वीलोकपर आते हैं लेकिन जो लोग–पितर हैं ही कहां?–यह मानकर उचित तिथि पर जल व शाक से भी श्राद्ध नहीं करते हैं, उनके पितर दु:खी व निराश होकर शाप देकर अपने लोक वापिस लौट जाते हैं और बाध्य होकर श्राद्ध न करने वाले अपने सगे-सम्बधियों का रक्त चूसने लगते हैं। फिर इस अभिशप्त परिवार को जीवन भर कष्ट-ही-कष्ट झेलना पड़ता है और मरने के बाद नरक में जाना पड़ता है।

मार्कण्डेयपुराण में बताया गया है कि जिस कुल में श्राद्ध नहीं होता है, उसमें दीर्घायु, नीरोग व वीर संतान जन्म नहीं लेती है और परिवार में कभी मंगल नहीं होता है।

धन के अभाव में कैसे करें श्राद्ध?

ब्रह्मपुराण में बताया गया है कि धन के अभाव में श्रद्धापूर्वक केवल शाक से भी श्राद्ध किया जा सकता है। यदि इतना भी न हो तो अपनी दोनों भुजाओं को उठाकर कह देना चाहिए कि मेरे पास श्राद्ध के लिए न धन है और न ही कोई वस्तु। अत: मैं अपने पितरों को प्रणाम करता हूँ; वे मेरी भक्ति से ही तृप्त हों।

पितृपक्ष पितरों के लिए पर्व का समय है, अत: प्रत्येक गृहस्थ को अपनी शक्ति व सामर्थ्य के अनुसार पितरों के निमित्त श्राद्ध व तर्पण अवश्य करना चाहिए।




*शास्त्र में मुख्यतया श्राद्ध के चार अंग बतलाए गए हैं*
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 जिनमें 
पहला अंग है (१)हवन। 
दूसरा अंग (२)पिंडदान। 
तीसरा अंग(३) तर्पण। और 
चौथा अंग (४) ब्राह्मण भोजन। 
वेद कहता है कि—

*वैश्वानरे_हविरिदं_जुहोमि_स_बिभर्ति_पितरं_पिता_महान्।*
    {एते हवनम्}
     (अथर्व१८/४/३५)

अर्थात मैं अग्नि में जो हवि होमता हूं वह मेरे पितृ-पितामहादिकों का पोषण करता है।

*ब्राह्मणा_शुद्धा_उत_पुता_घृतेन_सोमस्यांशवस्तण्डुला_यज्ञिया_इमे।*
*अपःप्रविशत_प्रतिगृह्णातु_वश्चरु_इमं_पक्त्वा_सुकृतामेत_लोकम्।।*
 {एते पिण्डदानम् }
          (अथर्व११/१/१८)
अर्थात् वेद मंत्रों द्वारा शुद्ध किए गए और घृत आदि पदार्थों के सम्मिश्रण से पावन बनाए गए सोम अंश जिनमें प्रचुर मात्रा में विद्यमान हैं ऐसे ये पितृयज्ञ संबंधी चावल के पिण्ड हैं जो अवनेजन और प्रत्यवनेजन आदि श्राद्ध क्रियाओं द्वारा जल में प्रविष्ट किए गए हैं, हे दिवंगत प्राणी ! आप हमारे इस पिण्ड रूप चरु को ग्रहण करो। तथा इसके परिपाक से आप पुण्यात्माओं के लोक को जाओ ।
*एतास्त्वा_धारा_उपयन्तु_विश्वाःस्वर्गेलोके_मधुमत्पिन्वमानाः।*    
{एते तर्पणम्}
      (अथर्व४/३४/७)

अर्थात् तर्पण में प्रदत्त हमारी ये सब जल धाराएं तुम्हें प्राप्त हों ! और ये स्वर्गलोक में मीठी बनकर तुम्हारा प्रीणन करें।

*इममोदनं_निदधे_ब्राह्मणेषु_विष्टारिणं_लोकजितं_स्वर्गम्।*     
 {एते ब्राह्मणभोजनम्}
       (अथर्व४/३४/८)

अर्थात् ये ओदनोपलक्षित-भोज्य पदार्थ में ब्राह्मणों में स्थापित करता हूं (उन्हें खिलाता हूं) जो विस्तार को प्राप्त होकर,लोक-लोकान्तरों को जीतता हुआ स्वर्ग तक पहुँचता है।

नेक_सलाह——

इन्हीं चारों हवन, पिण्डदान, तर्पण एवं ब्राह्मण भोजन क्रियाओं का नाम ही "श्राद्ध"है, जिनके द्वारा मृत पितरों की तृप्ति होती है। मैं अपने शंकावादी नास्तिक महाशयों को उनकी ही भलाई के लिए मैत्रीपूर्ण परामर्श देना चाहता हूं कि यदि उन्हें ब्राह्मणों को खिलाने में ही कुछ आपत्ति हो तो वे श्राद्ध के शेष तीन अंगों को अपने कल्याण के निमित्त कर लिया करें।

         हमारे प्रतिवादी भाई हवन तो प्रायः कर ही सकेंगे। हवन की क्रिया के संपादन में उनको सनातनियों द्वारा की जा सकने वाली संभावित 'तानाजनी' का भी कुछ डर नहीं। सो श्राद्ध के दिन जो हवन किया जाए उसमें 'वायु शुद्धि' होने की तुच्छ अशास्त्रीय भावना को छोड़कर "मेरे मृत पितर तृप्त हों" ऐसी भावना दृढ़ करनी चाहिए, बस ! चार आना भर श्राद्ध हो गया।

      अब रहा पिण्डदान,सो घर में खीर पूरी पकाकर उनका ही कुछ भाग मथकर वार्षिक आदि श्राद्ध के दिन केवल एक पिंड और तीर्थश्राद्ध किंवा कनागत पार्वण श्राद्ध के समय— कुक्कुटाण्ड प्रमाण न सही बदरीफल सन्निभ ही सही अधिक नहीं तो छः ही पिण्ड बनाकर चुपके-चुपके पिता, पितामह, प्रपितामह और मातामह, प्रमातामह, वृद्ध-प्रमातमह, आदि इन छः सपत्नीक पितरों का ध्यान करके घर की गाय को ही खिला दें। गाय खाकर दूध अधिक देगी। इस रीति से कुछ अपव्यय भी ना हुआ और श्राद्ध का एक अंग भी संपन्न हो गया।
     रहा तर्पण, यह तो बड़ा ही सस्ता सौदा है, इन नास्तिकों को चाहिए कि श्राद्ध के दिन किसी नदी किंवा तालाब में स्नान के बहाने डुबकी लगाकर मृत पिता आदि संबंधियों का ध्यान करके तथा मन ही मन उनका नाम लेकर जलाञ्जलि दे डालें। इस गुप्त रीति से संगी साथियों को भी तर्पण करने का पता न चलेगा और श्राद्ध का तीसरा अंग भी संपन्न हो जाएगा।

       उपर्युक्त रीति से 'तानाजनी' से डरने वाले नास्तिक महाशयों का पर्दा भी फाश न होगा और उन्हें बारह आना श्राद्ध कर सकने का भी शुभ अवसर मिल जाएगा, जिससे उनका और उनके मृत आत्मीयों का भी कल्याण हो सकेगा। सो ब्राह्मण भोजन तो चौथाई श्राद्ध है, यदि नास्तिक एक वेदवेत्ता विद्वान ब्राह्मण को एक टाइम भोजन खिला देने मात्र से दिवाला निकल जाने का खतरा अनुभव करते हैं तो वे इस मद को तब तलक जाने दें—— जब तक कि परमात्मा उनको सुबुद्धि प्रदान न करें।

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