*🚩जय श्री सीताराम जी की*🚩
*आप सभी श्रीसीतारामजीके भक्तों को प्रणाम*
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*श्री रामचरित मानस अरण्य काण्ड*
*राम का दंडकवन प्रवेश, जटायु मिलन, पंचवटी निवास और श्री राम-लक्ष्मण संवाद*
*है प्रभु परम मनोहर ठाऊँ।*
*पावन पंचबटी तेहि नाऊँ॥*
*दंडक बन पुनीत प्रभु करहू।*
*उग्र साप मुनिबर कर हरहू॥८॥*
भावार्थ :
हे प्रभो! एक परम मनोहर और पवित्र स्थान है, उसका नाम पंचवटी है।
हे प्रभो! आप दण्डक वन को (जहाँ पंचवटी है) पवित्र कीजिए और श्रेष्ठ मुनि गौतमजी के कठोर शाप को हर लीजिए॥८॥
*बास करहु तहँ रघुकुल राया।*
*कीजे सकल मुनिन्ह पर दाया॥*
*चले राम मुनि आयसु पाई।*
*तुरतहिं पंचबटी निअराई॥९॥*
भावार्थ :
हे रघुकुल के स्वामी! आप सब मुनियों पर दया करके वहीं निवास कीजिए।
मुनि की आज्ञा पाकर श्री रामचंद्रजी वहाँ से चल दिए और शीघ्र ही पंचवटी के निकट पहुँच गए॥९॥
दोहा :
*गीधराज सै भेंट भइ*
*बहु बिधि प्रीति बढ़ाइ।*
*गोदावरी निकट प्रभु*
*रहे परन गृह छाइ॥१३॥*
भावार्थ :
वहाँ गृध्रराज जटायु से भेंट हुई।
उसके साथ बहुत प्रकार से प्रेम बढ़ाकर प्रभु श्री रामचंद्रजी गोदावरीजी के समीप पर्णकुटी छाकर रहने लगे॥१३॥
चौपाई
*जब ते राम कीन्ह तहँ बासा।*
*सुखी भए मुनि बीती त्रासा॥*
*गिरि बन नदीं ताल छबि छाए।*
*दिन दिन प्रति अति होहिं सुहाए॥१॥*
भावार्थ :
जब से श्री रामजी ने वहाँ निवास किया, तब से मुनि सुखी हो गए, उनका डर जाता रहा।
पर्वत, वन, नदी और तालाब शोभा से छा गए।
वे दिनोंदिन अधिक सुहावने (मालूम) होने लगे॥१॥
*खग मृग बृंद अनंदित रहहीं।*
*मधुप मधुर गुंजत छबि लहहीं॥*
*सो बन बरनि न सक अहिराजा।*
*जहाँ प्रगट रघुबीर बिराजा॥२॥*
भावार्थ :
पक्षी और पशुओं के समूह आनंदित रहते हैं और भौंरे मधुर गुंजार करते हुए शोभा पा रहे हैं।
जहाँ प्रत्यक्ष श्री रामजी विराजमान हैं, उस वन का वर्णन सर्पराज शेषजी भी नहीं कर सकते॥२॥
*एक बार प्रभु सुख आसीना।*
*लछिमन बचन कहे छलहीना॥*
*सुर नर मुनि सचराचर साईं।*
*मैं पूछउँ निज प्रभु की नाईं॥३॥*
भावार्थ :
एक बार प्रभु श्री रामजी सुख से बैठे हुए थे।
उस समय लक्ष्मणजी ने उनसे छलरहित (सरल) वचन कहे- हे देवता, मनुष्य, मुनि और चराचर के स्वामी! मैं अपने प्रभु की तरह (अपना स्वामी समझकर) आपसे पूछता हूँ॥३॥
*मोहि समुझाइ कहहु सोइ देवा।*
*सब तजि करौं चरन रज सेवा॥*
*कहहु ग्यान बिराग अरु माया।*
*कहहु सो भगति करहु जेहिं दाया॥४॥*
भावार्थ :
हे देव! मुझे समझाकर वही कहिए, जिससे सब छोड़कर मैं आपकी चरणरज की ही सेवा करूँ।
ज्ञान, वैराग्य और माया का वर्णन कीजिए और उस भक्ति को कहिए, जिसके कारण आप दया करते हैं॥४॥
दोहा :
*ईस्वर जीव भेद प्रभु*
*सकल कहौ समुझाइ।*
*जातें होइ चरन रति*
*सोक मोह भ्रम जाइ॥१४॥*
भावार्थ :
हे प्रभो! ईश्वर और जीव का भेद भी सब समझाकर कहिए, जिससे आपके चरणों में मेरी प्रीति हो और शोक, मोह तथा भ्रम नष्ट हो जाएँ॥१४॥
*🚩जय श्री सीताराम जी की🚩*
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