यम-नियम || ध्यान (प्रेम) तक पहुँचने से पहले || १ ||
‘यम’ स्वयं के प्रति प्रेम की पहली सीढ़ी है।
लोग बिना यम के ही ध्यान तक पहुँच जाना चाहते हैं। महर्षि पतंजलि ने अष्टांग योग में यम को ही योग की नींव की तरह सबसे पहले क्यों रखा यह हमें सोचना होगा। अगर यम ज़रूरी नहीं होता तो पतंजलि जी बोलते कि जाओ सीधे ध्यान करो; आओ सीधे ध्यान की क्लास से शुरू करते हैं। अनेक Yoga Studios यही करते हैं। वहाँ लोग सीधे ध्यान कर रहे होते हैं। उसमें क्या कर रहे होते हैं वह मैं नहीं कह सकता।
यम का अर्थ निषेध है। यानि; रुको! ठहरो!
अष्टावक्र गीता में अष्टावक्र जी का पहला उत्तर इस यम से ही शुरू होता है। भगवान महावीर जिस अहिंसा को सबसे ऊपर रखते हैं वह यम का ही एक अंग है। भगवान बुद्ध के धम्मपद में न जाने कितने पद इस ही यम का निरूपण करते हैं। यम सिर्फ़ कोई मोरल साइंस नहीं है कि यह-वह नहीं करना है बल्कि हम जो अपने जीवन में लगातार ज़हर घोल रहे हैं, उसके प्रति सावधान करके पहले उस ज़हर को रोकना है। किसी रोग के उपचार में दवा से ज़्यादा ज़रूरी परहेज़ होता है। यम वही परहेज़ है। परहेज़ तो हम भी करते हैं लेकिन हमारा परहेज़ सिर्फ़ खान-पान की कुछ आदतों तक सिमट कर रह गया है। हमने यम का अर्थ सिर्फ़ प्याज़-लहसुन न खाने और कुछ कामों को न करने तक ही सीमित कर दिया है। हम प्याज़-लहसुन न खाकर उनसे कई गुना ज़्यादा विषाक्त चीज़ें अपने मन से ग्रहण कर रहे हैं इसीलिए यम में उन सभी चीज़ों को रखा गया है जो पहले से ही हमारे मन में एक बहुत बड़ा स्थान ग्रहण कर चुकी हैं और हमें उनसे कोई आपत्ति भी नहीं है बल्कि उन्हें ही हम अपने जीवन का आधार मानने लगे हैं।
यम और नियम एक तरह से ऐसे ही हैं जैसे कि कोई कहे कि बुरी (असत) संगति को छोड़ो क्योंकि अभी तक कि सारी बुराई तुम्हारे अंदर उस की ही वजह से है और अच्छी (सत) संगति करना शुरू करो क्योंकि मन को सदा एक आलम्बन चाहिए और इस आलम्बन से तुम्हारे मन के ज़ख्मों को शीतलता मिलेगी, वे जल्दी भरेंगे।
यम के दस अंगों और उनके व्यापक अर्थ पर हम अगले लेख में विचार करेंगे।
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