*प्रसंग वश...✍🏻*
*छावला दुष्कर्म केस:- क्या न्याय हुआ है मीलॉर्ड ???*
*देश की न्यायलयों ने समय - समय पर बहुत से अचंभित करने वाले निर्णय लिए हैं, साथ ही ऐसे निर्णय भी लिये हैं जिनकी आलोचना करते हुए आम नागरिक के पास शब्द ही न बचें। अभी हाल ही में कुछ दिनों पूर्व मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय, इंदौर बेंच ने एक बलात्कार के दोषी की सजा को आजीवन कारावास से 20 साल के कारावास में परिवर्तित इस आधार पर कर दिया कि उसने 4 साल की पीड़िता को जघन्य कृत्य करने के पश्चात जान से मारा नहीं था।*
अब इसी क्रम में दो दिन पूर्व ही सुप्रीम कोर्ट ने एक संवेदनहीन, अतार्किक एवं विस्मय कर देने वाला निर्णय लिया है। 7 नवंबर, 2022 को, सुप्रीम कोर्ट ने उन सभी तीन दोषियों को बरी कर दिया, जिन्हें दिल्ली के पास छावला में एक 19 वर्षीय महिला के साथ 2012 के बलात्कार और हत्या के मामले में दिल्ली के उच्च न्यायालय अदालत ने फांसी की सज़ा सुनाई थी।
*दरअसल यह घटना फरवरी 2012 की है, निर्भया कांड से लगभग 10 महीने पहले, लेकिन इसने मीडिया का उस हद तक ध्यान आकर्षित नहीं किया, जितना की बाद की घटना ने किया। यह घटना 9 फरवरी 2012 को दिल्ली के कुतुब विहार फेज-2 में घटित हुई थी। पीड़िता उत्तराखंड के पौड़ी गढ़वाल की एक अप्रवासी थी, जो अपने माता-पिता और दो छोटे भाइयों के साथ दक्षिण-पश्चिम दिल्ली के द्वारका में दूसरे चरण के कुतुब विहार में रहती थी। वह एक शिक्षिका बनना चाहती थी और दिल्ली के एक कॉलेज में स्नातक की पढ़ाई कर रही थी। उसने अपने पिता के कम वेतन को बढ़ाने के लिए गुड़गांव के साइबर सिटी में डेटा इनपुट ऑपरेटर के रूप में भी काम किया। उस भयानक रात में, लड़की उसी पड़ोस में रहने वाली तीन महिला सहयोगियों के साथ अपनी जॉब से बस द्वारा घर लौट रही थी।*
शाम करीब साढ़े आठ बजे लड़कियों को बस से उतार दिया गया। वहां से, उन्हें अपने-अपने घरों तक पहुंचने के लिए गलियों की एक जाली से चलना था। जब वो एक चौराहे पर पहुंचे तो लाल रंग की इंडिका में तीन लोगों ने उसे घेर लिया और अभद्र टिप्पणी करने लगे। पुरुषों के डर से पीड़िता मदद के लिए चिल्लाईं। लेकिन कोई उसकी मदद के लिए आगे नहीं आया। तभी तीन लोगों ने लड़की को कार में बिठा लिया और फरार हो गए। फिर उसे हरियाणा के रोधई गांव में लगभग 30 किलोमीटर दूर एक सरसों के खेत में ले जाया गया, जहां तीन अपराधियों- रवि, विनोद और राहुल ने बारी-बारी से उसके साथ बलात्कार किया और उसके साथ बर्बरता की।
*अपराधियों को पकड़ने में पुलिस को तीन दिन का समय लगा। तीनों अपराधी, लड़की के पड़ोस के रहने वाले थे और घटना से कुछ दिन पहले ही तिहाड़ जेल से छूटे थे। पीड़िता के परिवार ने उसी रात अपहरण की सूचना दी थी। अपहरण की जांच के लिए वहां पहुंचे पुलिस कर्मियों के अनुचित व्यवहार से पीड़िता के पिता सहम गए। पुलिस अधिकारियों में से एक ने पीड़िता के पिता का उपहास करते हुए उनसे कहा कि - "हमें एक कार दिलाओ और फिर हम अपहरणकर्ताओं का पीछा करेंगे।"*
जब पुलिस द्वारा तीनों आरोपियों से पूछताछ की गई तो घटना का चौंकाने वाला खुलासा हुआ। बलात्कारियों ने पीड़िता की आंखों में तेजाब डाला और उसकी योनि में शराब की एक बोतल डाली और उसे मरने के लिए हरियाणा में सरसों के खेत में छोड़ दिया। लड़की के शव परीक्षण के अनुसार, उसका शव मिलने से कुछ घंटे पहले 13 फरवरी को उसकी मौत हो गई थी। तीन दिनों से अधिक समय तक, लड़की की मौत हो गई और फोरेंसिक परीक्षण ने बलात्कार की पुष्टि की।
*न्याय के लिए तरस रहे पीड़िता के परिवार ने सुप्रीम कोर्ट के निर्णय पर कहा कि इस फैसले ने उन्हें घोर कष्ट पहुंचाया है। 19 वर्षीय की शोक संतप्त माॅं ने सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय पर निराशा व्यक्त की कि, कहा - "सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले के लिए कोई स्पष्टीकरण दिए बिना फैसला सुनाया और कहा कि उन्हें पता नहीं कि न्याय पाने के लिए अब किस दरवाजे पर दस्तक देनी है।"*
बता दें कि फरवरी 2014 में, दिल्ली की एक अदालत ने 2012 में 19 वर्षीय एक महिला के साथ निर्ममता से बलात्कार करने और उसकी हत्या करने के दोषी पाए जाने के बाद तीन लोगों को फांसी की सजा सुनाई थी। इंडियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट के अनुसार, सुप्रीम कोर्ट का निर्णय इस प्रकार था कि, "जैसा कि पहले देखा गया था, अपीलकर्ता -आरोपियों की गिरफ्तारी के संबंध में सबूत, उनकी पहचान, आपत्तिजनक वस्तुओं की खोज और बरामदगी, इंडिका कार की पहचान, वस्तुओं को जब्ती, नमूनों का संग्रह, चिकित्सा और वैज्ञानिक साक्ष्य, डीएनए प्रोफाइलिंग की रिपोर्ट, सीडीआर के संबंध में साक्ष्य आदि को प्रॉसिक्यूशन पक्ष द्वारा सिद्ध नहीं कर पाए थे।"
*पीड़िता के पिता अपनी बेटी को न्याय दिलाने के लिए दर-दर भटक रहे हैं। उन्होंने मदद के लिए दिल्ली की तत्कालीन मुख्यमंत्री शीला दीक्षित से संपर्क किया, लेकिन इन्होंने यह उत्तर दिया कि "ऐसी घटनाएं होती रहती हैं।" उन्होंने दावा किया कि मुख्यमंत्री कार्यालय के अधिकारियों ने उन्हें एक लाख रुपये का चेक दिया और उन्हें जाने के लिए कहा। इसके अलावा उसे कोई अन्य सहायता या किसी प्रकार का मुआवजा तक नहीं दिया गया।*
उन्होंने यह भी कहा कि न तो अरविंद केजरीवाल और न ही राहुल गांधी ने उनकी बेटी के लिए प्रदर्शन में रुचि दिखाई। वे कहते हैं कि - “मैं अपनी बेटी के साथ हुए व्यवहार के विरोध में दिल्ली के जंतर मंतर पर गया था। एक तरफ अरविंद केजरीवाल भाषण दे रहे थे। दूसरी ओर, राहुल गांधी धरने में शामिल हो रहे थे। उनमें से कोई भी नहीं आया और मेरे साथ अपनी एकजुटता व्यक्त नहीं की।"
*चाहे उच्च न्यायालय हो या शीर्ष न्यायालय, दोनों ने ही सतत बहुत से केसेज में अकल्पनीय फैसले सुनाए हैं, जिनके मूल पर हम विचार करें तो सामने आता है कि कोर्ट के यह अतार्किक एवं संवेदनहीन निर्णय किसी विशिष्ट दबाव अथवा तुष्टिकरण के चलते लिए जाते हैं।*
अभी पिछले माह में ही इलाहाबाद हाई कोर्ट ने नाबालिग लड़की से रेप के आरोपी को जमानत दे दी और आदेश दिया कि वह 15 दिन के अंदर जमानत पर बड़ा होने के बाद लड़की से विवाह करे। उससे कुछ दिन पूर्व दिल्ली उच्च न्यायालय ने एक व्यक्ति को उसके विरुद्ध बलात्कार की प्राथमिकी रद्द करने की शर्त के रूप में दो अनाथालयों को "स्वच्छ और अच्छी गुणवत्ता वाले बर्गर" प्रदान करने का निर्देश दिया है। बता दें कि उस व्यक्ति पर अपनी पूर्व पत्नी के साथ बलात्कार, पीछा करने और आपराधिक धमकी देने का आरोप था।
*इन जघन्य अपराधों में न्यायालयों द्वारा सुनाए जाने वाले ऐसे निर्णयों से एक प्रश्न जो स्वाभाविक रूप से उठता है कि क्या ऐसा ही कोई निर्णय तब भी आया होता जब पीड़िता का संबंध किसी राजनीतिक घराने या फिर न्यायिक तंत्र से जुड़े किसी न्यायधीश से होता ? अव्वल तो ये कि सवा सौ करोड़ के देश में जो एक लुटियन्स की दुनिया है वहां ऐसे अपराध देखने सुनने को नहीं मिलते इसलिए अपनी सीमित दुनिया से पृथक घट रहे जघन्य से जघन्य अपराधों के प्रति हमारे न्यायिक तंत्र का न्याय केवल दंड संहिता की धाराओं एवं आसानी से प्रभावित होने वाली जांच के साक्ष्यों में उलझ कर रह जाता है।*
वे ये भूल जाते हैं कि ऐसे प्रकरणों में जन भावना एवं करुणा का भी स्थान है, वे ये भूल जाते हैं कि सामान्य व्यक्ति के भीतर भी एक न्यायाधीश होता है, संभव है कि उसके द्वारा विचार की गई सजा भावनात्मक तौर पर ली गईं हों, किंतु कईं बार उसके द्वारा विचार की गई सज़ा न्यायोचित भी हो सकती है।
*ऐसे में इस प्रकार के जघन्य अपराधों पर जनता द्वारा की गई आशा के ठीक विपरीत सजा देना जनता के हृदय को व्यथित कर देता है। इतने गंभीर विषयों पर न्यायालयों द्वारा यह निर्णय किस आधार पर लिए जाते हैं, यह समझने हेतु संभवतः किसी विशेष विषय का निर्माण करके उसका अध्ययन करना होगा, तभी यह गुत्थी सामान्य व्यक्ति के समझ में बैठेगी, तब तक के लिए तो बस यही की क्या न्याय हुआ है मीलॉर्ड ?*
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