*सम्पादकीय*
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*उम्र से क्या अंदाजा लगाना इंसान की समझदारी का*,!------
*हकीकत तो हरकत बताएगी ठोकरों का तजुर्बा कैसा है*!!
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ज़िन्दगी की राहों में रंजोगम के मेले है!आज भी अकेला हूं कल भी अकेले थे! यह लाईन जीवन की प्रासंगिकता को प्रदर्शित करती है। इन्सान हर वक्त तन्हा है! उसका उद्भव भी तन्हाई के वातावरण से ही प्रस्फुटित हुआ है!वक्त का खेल है साहब कदम कदम पर ठोकरों के बाद भी शिकायतों का दौर जारी रहता! एक दुसरे को नीचा दिखाने की आदत से शुमार आदमी दुसरे के सुख को देखकर बीमार हो जाता है। कितनी शिद्दत से मुद्दत बाद मानव जीवन मिला लेकिन इस जीवन के अनमोल लम्हों को सत्कर्म के बजाय मतलबी इन्सान व्यर्थ अनर्थ के राह पर चलकर गंवा देता है।इतिहास गवाह है तमाम बलशाली इस धरती को खाली कर गये! जिनके गुर्राहट से थर्रआहट मच उठती थी!जिनकी तलवार की चमक से आसमान धमक उठता था! आज वो राजमहल विरान हैं! जिनके कदमों की आहट से अकुलाहट बढ़ जाती थी! जिनके गौरव की शौर्य पताका गगन भेदी अट्टहास करती थी! जिनके बाजुओं में हाथियों का बल था! जिनके भुजाओं में वह कौशल था की दुश्मन पल भर में धाराशाई हो जाते थे!आज इतिहास के पन्नों में सिमट कर रह गये है!धरती वही है! गगन वहीं है!दिशाएं वहीं है! मगर हालात इस कदर बदल गये की अब हर तरफ विरानी का पहरा है! न कहीं वह कौतूहल है! न कहीं वह दरबार है! न वह राजसी महल है!सब कुछ समय के गर्त में समा गया। साहब
यह तो आनी जानी दुनियां है! प्रारब्ध से उपलब्ध उम्र को इस नश्वर संसार में निर्धारित अवधि तक गुज़राना है। यह तो अपने कर्म पर निर्भर करता है कौन कितना समाज में अपनी पहचान बना पाता है।वक्त बदलता है यह तो हर किसी को पता है! मौत निश्चित है यह भी सार्वभौम सत्य है! इस जहां से कुछ भी साथ नहीं जायेगा यह भी अकाट्य सत्य है !फिर भी जब तक इस लोक में स्वयं के निहितार्थ स्वार्थ की बस्ती में समय गुजारना है तब तक भाग्य की जमीन पर कर्म की उपयोगी खेती कर पारलौकिकता के बाजार में प्रारब्ध के तराजू पर वजन कायम कर पारितोषिक प्राप्त करना ही पड़ता है!यह एक निश्चित तय सुदा प्रकृति का निर्धारित नियम है! इससे कोई नहीं बच सका है!मगर मतलबी मानव इससे इतर हटकर द्वेश के दरख्तों के तरह सामाजिक धरातल पर काटे बोने से बाज नहीं आता!विश्वास की धरती पर जब गद्दारी का विषाक्त पानी तेजाबी बाणी का वर्षांत बनकर बह निकलता है उस समय
अनर्थ का एहसास हो ही जाता है!भरोशा की मेढ़ टूट ही जाती है! नदी और मनमुटाव का उद्गम बहुत छोटा होता है मगर जैसे जैसे आगे बढ़ते हैं बिशाल रूप धारण कर लेते हैं। ऐसे में मनुष्य की सहनशीलता और सम्वेदन शीलता उसकी मानसिक शक्ति व बौद्धिक सामर्थ्य के सर्वोच्च स्तर को प्रतिबिंबित करती है।ज़िन्दगी बहुत खूबसूरत है यह दुःख और सुख का मेल है दुःख आए तो टूटना मत सुख आए तो उड़ना मत, ठहराव में रहना ही असली जीवन है।इन्सान सौ सुख पाकर भी सुखी नही हो पाता है पर एक ग़म का दुःख हमेशा मानता है! तभी तो ऐसी करामात करती है कुदरत लाश तो तैर जाती है पानी में पर जिन्दा आदमी डूब जाता है। चन्द पल भी अपना नहीं फिर घमंड इतना की सारा जहां हमारा! अकड़ जलन इन शब्दों में कोई मात्रा नहीं होती लेकिन एक अलग अलग मात्रा में हर ब्यक्ति में पाई जाती है। उम्र को देखकर अन्दाज़ किसी का भी नहीं लगाया जा सकता जब बाणी मुख से प्रस्फुटित होती है तब संयम सद विचार अहंकार का पता चलता है। कुछ भी अपना नहीं है मुगालते से बाहर निकलिए। इन्सानियत के राह का अनुगामी बने साथ कुछ नहीं जायेगा! हमेशा याद रखें ज़िन्दगी में दो ब्यक्ति जीवन को नई दिशा दे जाते हैं! एक वह जो मौका देता है! दुसरा वह जो धोखा देता है।
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