Monday, 29 September 2025

बचपन के जन्मदिन – मोहल्ले के शहंशाह। ....…….........….......... news no2 :साँप को दूध पिलाओ, तो ज़हर ही बढ़ेगा

 बचपन के जन्मदिन – मोहल्ले के शहंशाह

आया है मुझे याद वो ज़ालिम गुज़रा ज़माना — बचपन का।
बचपन के जन्मदिन भी क्या ग़ज़ब हुआ करते थे! असली मज़ा तो उसी में था, जब मम्मी-पापा को पता भी नहीं होता था और साहबज़ादे पूरे मोहल्ले के बच्चों को निमंत्रण बाँटकर आ जाते थे।

नए कपड़ों के लिए मम्मी से रोज़ाना ज़िद – “नए नहीं मिले तो मैं पार्टी ही नहीं दूँगा!” और बड़े केक के लिए विनती – “मम्मी, कम से कम डेढ़ किलो वाला चाहिए, नहीं तो दोस्तों को क्या मुँह दिखाऊँगा?”
जब केक घर आता, तो ऐसा लगता मानो खज़ाना मिल गया हो। और फिर चोरी-छुपे उंगली घुसाकर क्रीम निकालकर चाट लेना – वाह! वही तो असली रस्म थी।

जन्मदिन की पार्टी दो घंटे बाद होनी है, लेकिन हम पहले से ही नए कपड़े पहनकर मोहल्ले में घूमते रहते। हर आंटी से कहना – “आंटी, आज मेरा बड्डे है!” और मुस्कुराकर शहंशाहों जैसा हाथ हिलाना। उस दिन की खासियत यह थी कि मोहल्ले के क्रिकेट मैच में आउट होने के बाद भी हमें “नॉट आउट” करार दे दिया जाता। क्यों? क्योंकि दोस्तों को मालूम होता – अगर नाराज़ हो गए तो पार्टी से वंचित रह जाएँगे।

गुब्बारे फुलाने का काम दोस्तों पर होता। और जैसे ही गुब्बारे फूल जाते, उनकी जेबों की तलाशी ली जाती – कहीं कोई “गुब्बारा चोर” तो नहीं! लेकिन दोस्त बुरा नहीं मानते थे, उल्टा हँसते हुए कहते – “शाम को ज़रूर आऊँगा और बड़ा वाला पीस खाऊँगा।”

और हाँ, जन्मदिन से दो दिन पहले ही दर्जी की दुकान के सामने चक्कर लगाना – “भैया, कपड़े सिल गए क्या?”
दर्जी मुँह बनाकर कहता – “अभी तो दो दिन ही हुए हैं कपड़े दिए हुए, तुम्हारे जन्मदिन के बाद सिल दूँगा।”
यह सुनते ही वहीं दुकान पर रोना शुरू कर देना और फिर दर्जी की कैंची उठाकर उसे कैंची की कसम दिलवाना – “जन्मदिन से पहले मेरे कपड़े ज़रूर सिल देना!”

भाई साहब, किसी ने सही कहा है – “मुर्गी दे अंडा, खाए उसे फकीर।”
जन्मदिन हमारा, केक हमारा, लेकिन केक काटने के समय मोमबत्ती जलाई गई और बुझाने के समय में तैयार खड़ा था कि सब लोग तालियाँ बजाएँगे। मैं तो मोमबत्ती बुझा ही नहीं पाया – मेरे पास खड़े दोस्तों ने मुझसे पहले ही मोमबत्ती बुझा दी!

अब तो मैं यही कहूँगा – “कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन।”
अब जन्मदिन आते हैं तो खुशी कम और टेंशन ज़्यादा लेकर आते हैं। क्योंकि दिन-ब-दिन केक पर मोमबत्तियों की संख्या बढ़ती जा रही है और सर पर से बालों की संख्या कम होती जा रही है। सर पर चाँद निकल आया है – अगर कोई गलती से सर पर मोमबत्ती लगा दे तो लोगों को दूर से केक नज़र आएगा। अब तो हाल यह हो गया है कि केक दिखता ही नहीं, सिर्फ़ मोमबत्तियाँ ही मोमबत्तियाँ नज़र आती हैं।

अब तो सोच लिया है – जन्मदिन मनाते रहेंगे और आप सबसे दुआएँ लेते रहेंगे। जैसे आज आप सबने मेरे जन्मदिन पर प्यार और स्नेह दिखाया है, आगे भी ऐसे ही प्यार और स्नेह की बारिश करते रहिएगा।

अंत में मैं सिर्फ़ इतना ही कहूँगा –
“कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन।”

– मोहम्मद जावेद खान
संपादक, भोपाल मेट्रो न्यूज़

: साँप को दूध पिलाओ, तो ज़हर ही बढ़ेगा

शत्रु तो शत्रु ही रहता है। जैसा कहा जाता है— “साँप को जितना दूध पिलाओ, ज़हर उतना ही बढ़ता है।”
क्रिकेट में दक्षिण अफ्रीका पर अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट खेलने पर प्रतिबंध लगाया गया था, क्योंकि वहाँ काले लोगों से भेदभाव होता था और उनके साथ अत्याचार किया जाता था। यही कारण था कि दक्षिण अफ्रीका को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रतिबंध का सामना करना पड़ा।

लेकिन अगर पाकिस्तान की बात करें, तो उसकी घिनौनी हरकतें जगजाहिर हैं— आतंकवाद को बढ़ावा देना, भारत के मासूम नागरिकों की हत्या करना, शांति और सद्भाव को बिगाड़ना, दहशत का माहौल पैदा करना। भारत वैसे भी शांति प्रिय देश है, और उसकी शांति को भंग करने की कोशिशें पाकिस्तान लगातार करता आया है। क्या ये कारण पर्याप्त नहीं हैं पाकिस्तान जैसे देश को अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट से प्रतिबंधित करने के लिए?

हमने न तो हाथ मिलाया और न ही ट्रॉफी उठाई। लेकिन उन्हें क्या फर्क पड़ा? करोड़ों रुपये कमाए गए; और वही पैसा आतंकवादियों के काम आएगा— बंदूकें खरीदी जाएँगी, गोलियाँ खरीदी जाएँगी। उन गोलियों पर लिखा होगा— “निर्दोष भारतीयों का नाम।”

इसी बीच भारतीय टीम ने अपनी जीत की पूरी राशि उन पीड़ित परिवारों को समर्पित कर दी, जिन्होंने पहलगाम में अपने अपनों को खो दिया था। यही अंतर है फ़रिश्तों और दानवों में।

भारतीय टीम ने ऑपरेशन सिंदूर पूरा किया। यह युद्ध न तो बंदूक़ों और तलवारों से लड़ा गया और न ही छिपकर किया गया। यह ऐसा युद्ध था जिसके गवाह 140 करोड़ भारतीय बने। हमारे गेंदबाज़ों की गेंदें मानो मिसाइल बन चुकी थीं, और इन मिसाइल-रूपी गेंदों के सामने दुश्मन लड़खड़ा रहे थे— माथे पर पसीना, चेहरे पर डर और काँपते हुए हाथ। हमने बदला लिया— एक बार नहीं, बल्कि तीन बार। इसमें कोई दो राय नहीं।

इसलिए हमें गर्व महसूस करना चाहिए और यह संदेश देना चाहिए कि हमारी जीत केवल खेल की नहीं, बल्कि इंसानियत, न्याय और सहानुभूति की भी है। हमें न केवल जश्न मनाना है बल्कि उन परिवारों के साथ भी खड़ा रहना है जिन्होंने अपने अपनों को खो दिया। उनकी मदद करना, उनकी आवाज़ बनना और यह सुनिश्चित करना कि जीत की हर एक राशि सही हाथों तक पहुँचे।

इसलिए हमें खेल को हथियार बनने से रोकना है और अपनी एकता, हौसले और संवेदनशीलता से उन दानवों के इरादों को नाकाम करना है। जिस तरह मैदान पर भारतीय खिलाड़ियों ने कड़ी मेहनत दिखाई, उसी तरह हमें समाज में सच्ची इंसानियत दिखानी होगी।

फ़रिश्तों ने बाँटी अपनी खुशियाँ ग़मगीनों में,
आतंकवाद का नाम मिटा देंगे भारत के नक्शे से।

✍️
मोहम्मद जावेद खान
संपादक
भोपाल मेट्रो न्यूज़
📞 900962619

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