Monday, 2 October 2023

2 अक्टूबर 1994: उत्तराखंड का काला दिन..जानिए वो पूरी कहानी, चश्मदीद की जुबानी ! हम उत्तराखंडियों के लिए 2 अक्टूबर का दिन इतिहास के पन्नों में काला दिवस के नाम से जाना जाता है । हमारी माँ- बहनों के साथ क्या हुआ ? हमारे राज्य आंदोलनकारियों पर कैसे गोलियाँ दागी गई ?🥲 हर एक उत्तराखंडी अवश्य पढ़े ! “रामपुर तिराहा काण्ड “

✍️ 2 अक्टूबर 1994: उत्तराखंड का काला दिन..जानिए वो पूरी कहानी, चश्मदीद की जुबानी ! 
हम उत्तराखंडियों के लिए 2 अक्टूबर का दिन इतिहास के पन्नों में काला दिवस के नाम से जाना जाता है ।  हमारी माँ- बहनों के साथ क्या हुआ ?  हमारे राज्य आंदोलनकारियों पर कैसे गोलियाँ दागी गई ?🥲 हर एक उत्तराखंडी अवश्य पढ़े ! 
“रामपुर तिराहा काण्ड “
02 अक्टूबर 1994 रामपुर तिराहा कांड को अपनी आँखों से देखने वाले सुरेन्द्र कुकरेती की ज़ुबानी !
"उत्तराखण्ड राज्य की मांग को लेकर हमनें गांधी जयंती के दिन दिल्ली राम लीला मैदान में प्रदर्शन करना तय किया। अन्य राज्यों से लोग दिल्ली में एकत्रित होने लगे थे। कुमाऊं क्षेत्र से लोग बिजनौर होते हुए दिल्ली पहुंच रहे थे। ये सब संयुक्त संघर्ष समिति के संरक्षक स्व. इंद्रमणि बडोनी जी के नेतृत्व में हो रहा था। मैं इस समिति का सचिव था। हम लोग देहरादून से आ रहे थे। चमोली, टिहरी, रुद्रप्रयाग के लोग भी दिल्ली के लिए निकल चुके थे। इन सभी लोगों को रात 02 बजे ऋषिकेश के चुंगी नंबर एक के मैदान पर हम लोगों के साथ एकत्रित होना था, लेकिन ये सीधा दिल्ली के लिए निकल पड़े थे। हमने इन लोगों तक संदेश भिजवाया कि ये लोग नारसन पर रुक जाएं। ये लोग लगभग रात 03 बजे वहां पहुंच चुके थे। इन लोगों के पहुंचने से पहले घटनास्थल पुलिस और पीएसी से पूरी तरह भर चुका था। हमारी 300 से अधिक बसें और सैकड़ों छोटी गाड़ियां घटनास्थल पर पहुंची थी। हम लोग लगभग सुबह 05 बजे नारसन पहुंचे। वहां पहुंचते ही हमें माहौल गड़बड़ लगने लगा था। हमारी गाड़ियों को आगे नहीं बढ़ने दिया गया। हम इतने आक्रोशित थे कि पैदल ही आगे बढ़ गए। हमें अपने सामने आग में जलती हुई बस दिखाई दी। लगभग तीन किलोमीटर चलने के बाद हमें गन्ने के खेतों से महिलाओं का रोना और चिल्लाना सुनाई दिया। हम दौड़कर गन्ने के खेतों में कूद गए हमारे सामने महिलाएं निर्वस्त्र थीं और कई लोग उन महिलाओं के साथ दुराचार कर रहे थे, उनमें से कुछ लोग पीएसी की वर्दी में और कुछ लोग साधारण कपड़ों में थे। हम उन लोगों के साथ भिड़ गए। हम लोगों ने तुरंत अपने कपड़े उतार कर उन महिलाओं को दिए जिनके साथ वर्दीधारियों और गैर वर्दीधारी गुंडों द्वारा दुराचार किया गया था। लगभग सुबह 06 बजे गोलियां चलनी शुरू हो गयी। सामने ही एक ईंट की भट्टी थी, जहां हमारे कुछ लोग गोलियों से बचने के लिए छिप गए थे। गोलियों से बचने के लिए हमारे लोगों ने ईंटों से हमला करना शुरू कर दिया। हम लोगों के लिए स्थिति भयानक हो चुकी थी। इसी दौरान मेरे सामने खड़े 16 वर्षीय सतेन्द्र चौहान की कनपटी पर गोली लगी और उसकी मृत्यु हो गयी। ये भयानक माहौल कुछ समय ऐसे ही चलता रहा। धीरे-धीरे आसपास के गांव में इस घटना की सूचना पहुंचनी शुरू हो गयी और गांव वाले हमारी मदद को बड़ी संख्या में आने लगे। इस खूनी माहौल के शांत होने तक घटनास्थल से पीएसी की वर्दी में जो लोग थे वो सभी फ़रार हो चुके थे। यदि आसपास के गांव के लोग मदद नहीं करते तो ये भयानक स्थिति और भी बड़ी होती, और भी लम्बी चलती।" - क्रमशः

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