Sunday 9 April 2023

दफना के जज्बातों को यूं गैर कर गए*!*दिल किराए का मकान था खाली कर गए*!!

*सम्पादकीय*
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*दफना के जज्बातों को यूं गैर कर गए*!
*दिल किराए का मकान था खाली कर गए*!!
समय के सागर में उठ रही झंझावात करती लहरों के बीच रिश्तों से लदी सफ़ीना लगातार हिचकोले खाती अपने वजूद को बचाने के लिए संघर्ष करती ज़िन्दगी के साहिल तक अब बड़ी मुश्किल से भी लंगर डालने में कामयाब हो रही है। वास्तविकता के धरातल पर वैमनस्यता की तेज हवा बार बार तबाही का अहसास दिला रही है। रिश्तों के अब मायने बदल गये इस मतलब परस्त दुनियां में अपने बेगाने की परिभाषा बदल गई! चाहत की बस्ती में लोगों की अभिलाषा बदल गई?जरुरत भर साथ के बाद अपने ही बन जा रहे हैं अपवाद!परिवार की संकुचित होती परिभाषा में निराशा का जहर घुलता जा रहा है! हर घर में आजकल यह तमाशा शुरू हो चुका है।जिनके भविष्य के लिए   जीवन भर की कमाई दुखदाई परिवेश में रहकर जिस औलाद पर लुटाई तरक्की की बग्घी पर सवार ज्योही लुगाई आई मां बाप को छोड़ सबसे मुंह मोड़ आधुनिकता की होड़ में एकाकी जीवन से नाता जोड़कर उन सपनों का रौंद जाते हैं जिसको वर्षों दिल के भीतर संजोए रात की तन्हाई मे अश्कों की धार को सिसक सिसक पीते हर पल औलाद की तरक्की की आस में जीते ख्वाबों की बस्ती में आखरी सफर की सुख शांति से चाहत की उम्मीद लगाएं अपनी औलाद के लिए मालिक से हर पल दुवाएं मांगते रहते हैं। आज कल हालात ऐसे  बदल गये की मतलबी धरातल पर हर तरफ हलचल है। कभी कभी ऐसी घटना सामने से गुजर जाती है जो सोचने पर मजबूर कर देती है। आखिर क्या हो गया है लोगों को कुछ भी तो साथ नहीं जायेगा!जिसने पाल पोसकर आंचल की छांव में समाज की संरचना में सारी प्रपंचना से बचाकर सुरक्षित रखा उसी को उपेक्षित कर अपनी अलग दुनियां बसाने की हसरत लिए उस घर को अलविदा कह गये जहां सारा बचपन उसी मिट्टी में नर्तन कर तरक्की की ईबारत लिख दिया!जीवन के सम्बृधि में चक्रबृधि तरक्की कभी सम्भव नहीं जिनके जन्मदाता की अभिलाषा को रौंद दिया गया हो।
हाईप्रोफाइल सैलिब्रिटी आजकल मां बाप को बोझ समझ रहे हैं। समय बदलते ही बृद्धा आश्रम में शिफ्ट कर दे रहे हैं। शायद भूल जा रहे हैं एक दिन उनके साथ भी वही होगा। सामाजिक प्रदुषण का  असर इस कदर बढ़ा की अब शहर बाजार से होते हुए गांवों को भी चपेट में ले लिया। जहां न बृद्धा आश्रम है न कोई सहारा! आखरी सफर में बेसहारा होकर तड़प तड़प कर एकाकी जीवन में दम तोड़ना मजबूरी बन गया है। यह प्रचलन आजकल उफान पर है।साथ तभी तक है जब तक जरूरत है! जरुरत पूरी होते ही हसरत बदल जा रही है। अपना पराया का खेल‌ शुरु' अपना घर किराए का लग रहा है और ससुराल टकसाल लग रही है!नीचता की पराकाष्ठा मे सारा सुख वहीं पर है। घर तो  मुसाफिर खाना बन गया जहां कभी कभी आना जाना है!परिवर्तन की पराकाष्ठा से जो पारितोषिक मिल रहा है उसका असर ज़िन्दगी के हर लम्हा में अपनी अमिट पहचान कायम करता जा रहा है!यह सभी को पता है वक्त सबका हिसाब करता है!आह और बद्दुआ दो ऐसे सार्वभौम शब्द है जो जब जब किसी के टूटे दिल से निकले हैं वो सिर्फ बर्बादी का मंजर पैदा करते हैं।मातृदेवो भव: पितृ देवो भव:का जमाना कबका जा चुका है! अब तो तिरस्कार, दूर्ब्यवहार, का संगम कदम कदम पर स्वागत कर रहा है।इस मायावी लोक में स्वार्थ की प्रदुषित वर्षांत इस कदर कहर बरपा रही है कि इन्सानियत उसी में डूब कर दम तोड रही है।अब किसी से किसी की कोई शिकायत नही है!अब पहले वाली रवायत नही है। मनहूसियत का आवरण है! सबका हो रहा चीरहरण है। वक्त के साथ समझौता कर आखरी सफर के अग्निपथ पर चल कर महाप्रयाण की मन्जिल श्मशान का अनुगामी बनना ही यथार्थ हो गया।इससे इतर जिसने भी अपनों की फिकर किया उसका परिणाम कभी भी सुखद सम्भव नहीं है।

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