Friday 9 June 2023

किस दर्द को लिखते हो इतना डूब कर*!*एक नया दर्द दे दिया उसने पूछकर*!!

*सम्पादकीय*
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*किस दर्द को लिखते हो इतना डूब कर*!
*एक नया दर्द दे दिया उसने पूछकर*!!
हर रोज हकीकत को देखकर जमाने का दस्तूर लिखता हूं! वक्त कितना बदल गया रिश्तों का नया चलन जरूर लिखता हूं! यूं तो जमाना मुस्कराते हुए आगे आगे चल रहा है! दर्द का कारवां उसके पीछे पीछे- खुशियां भी साथ है मगर लगती पराई है- मायूस चेहरा बता रहा है अपनों के दिए जख्म से आंख डब डबाई है!जब भी सच कभी दिल की बस्ती से मायूस होकर निकलता है उदास मंजर के बीच कराहती आहें मजबूर कर देती है जमाने का सच  लिखने को! वर्ना कौन है जो जग हंसाई कराता! हर रोज आखरी सफर के कठिन पड़ाव में लग रही ठोकरों से निकलते लहू को सरेयाम दिखाता!आधुनिकता की चकाचौंध मे अन्धा हो चला आदमी मगरुरीयत के आवरण में तन्हाई का सम्बरण पाले अकेले जीवन के उस पथ का अनुगामी बन रहा है!जिसका अन्त तो सन्त के लिए भी सुखद नहीं होता है! कभी कभी मन- मन के अशान्त सागर में उठती लहरों के बीच जुझती दुर्भाग्य के सफ़ीना पर कर्म की फसल लादे वादों के पतवार के सहारे किनारे पहुंचने की कोशिशों के बीच डूबता देकर हताश निराश हो जाता है। जीवन के अनन्त पथ पर चलकर अथक मेहनत से जिस दौलत को पाने के लिए रात दिन प्रयास उपवास रहकर किया, वहीं दौलत जब तबाही की ईबारत बंटवारे के कोरे कागज पर लिखने लगती है तब समझ में आता है की इस मतलब परस्त बस्ती में रिश्ते जरूरत भर स्वार्थ के शानिध्य में ही पनाह पाते हैं!वर्ना कोई भी नहीं अपना है! हालात जिस तरह बदल रहे है उसको देखकर तो कहीं नहीं लगता आने वाला कल सफल जीवन का सूत्र सौहार्द के पवित्र पर्यावरण में आचरण का सूत्र पात करेगा! इतना जहरीला रिश्ता अपनों का हो गया है कि उसका शानिध्य ही हृदय घात के लिए वातावरण बना रहा है!जरा सोचिए हम आप कहां जा रहे हैं! संस्कार ,आचार, बिचार, सब कुछ बदल रहा है! जिसका असर आधुनिक लोगों पर साफ दिख रहा है! टूटते रिश्ते बिखरता परिवार! आज गांव से लेकर शहर तक कर रहा है विस्तार!------!
*दिल के टुकड़े मजबूर करते हैं कलम चलाने को वर्ना*!
*हकीकत में कोई खुद का दर्द लिखकर खुश नहीं होता*!!
आज के परिवेश में एकाकी जीवन की सनक रिश्तों की दहलीज पर तन्हाई की जिस बिप्लवी लकीर को खींच रही है वहीं लकीर उसके तकदीर में आखरी फैसला भी कराती है!
 दिल को छूने वाली मर्मस्पर्शी घटनाएं जब वास्तविकता के धरातल से टकराती है तब जो आवाज होती है वह आज के समाज की आधुनिक रीति-रिवाज की हकीकत को खोल दे रही है! सबकी नजर एक बार जरुर उधर उठ जाती है? कितना गिर गया है आदमी जिसने जीवन की सम्पूर्णता का आभास कराया वहीं सफर के आखरी पडाव पर असहाय हो गया! हर रोज इस हकीकत को फंसाना बनता देख रहा है जमाना!आजकल बृद्धा आश्रमों में खुद से चले जाने का प्रचलन तेजी से पांव पसार रहा है!इन्सानियत कराह रही है! लोगों की बदलती सोच को देखकर अनायास‌ ही मन कहने  लगता है हम तो चले जायेंगे इस मतलबी जहां से लेकिन तेरा क्या होगा! जिस बीज को अंकुरित कर रहे हो उसकी छांव भी शायद तुझे नसीब नही होगी! पश्चाताप की धूप में झुलस झुलस कर सिसकना तेरी मजबूरी होगी! आज  का विषाक्त परिवेश कितना घिनौना हो गया इसको करीब से जानने के लिए एक बार बृद्धा आश्रम पर जरूर जाएं शायद दिमाग खोलने की चाभी वहीं मिल जाए अगर वहां करिमाई चाभी न मिले तो श्मशान घाट पर कुछ पल बैठ जाईए‌! ज़िन्दगी भर के कर्मों का हिसाब किताब सामने दिखने लगेगा आटोमेटिक दिमाग का ताला खुलने लगेगा! अपना पराया करते जीवन गुजार दिए धन-दौलत महल अटारी  साज-सज्जा का सामान मोहकी महानगरी में सजाते रहे ! जब तक उम्र का पानी चढ़ान पर था रिश्तों की कटान को समझ नहीं पाये ज्योही उम्र का पानी सूखा सच सामने आ गयी जिधर देखो केवल धोखा ही धोखा! हर तरफ विरानी  खत्म हो गयी अपनों की निशानी! महज चार दिन का जीवन उसका भी भरोशा नहीं तब भी अज्ञानी बना मूढ़ मानव अपना वजूद भूल जाता है। नेकी के राह पर चल कर इन्सानियत का पैगाम वक्त के साथ हमराह बनकर नवजीवन के प्रवाह का साक्षी बनेगा। यहां कोई नही अपना! आप के नेकी का लिबास आप के बदन को ढक सकेगा! सुना है उपर वाले के घर कपड़ों की दूकान नहीं है।-----,!!
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