मेगस्थनीज़ ने अपनी भारत यात्रा के दौरान लिखा है- भारत में कोई भी आक्रांता कभी खेत फसल आदि को नुक़सान नहीं पहुँचाता- जलाशय आदि को दूषित नहीं करता। महिलाओं और आम जनता को हानि नहीं पहुँचाता। युद्ध होते है - जय पराजय होती है लेकिन ये जंघयय कुकर्म नहीं होते। ऐसा था भारतीय समाज। फिर कुछ सदियो बाद हरा आक्रमण होता है । भारतीय समाज का पाला अब ऐसे लुटेरों से है जो केवल लूटने नहीं आये- वो विध्वंस मचाने आये है।
ये लुटेरे टिड्डी दल खेत खलियान, पशुओं को हानि पहुँचाते है- मंदिर तोड़ने में गर्वित महसूस करते है। मुग़लों तक आते आते ये पैटर्न भारत में आम हो चुका है- तालाबो में विष मिला दो, कुआँयो में मरे पशु डाल दो- गौधन का क़त्ल वाजिब दीनी प्रैक्टिस घोषित कर दो। मंदिरों को तोड़ उनका स्वरूप बदल दो। स्थानीय लोगो द्वारा बनायी इमारतो पर अपनी चिप्पी चिपका दो। पूरी दुनिया में यही पैटर्न है- स्पेन से लेके तुर्की से लेके भारत तक।
कोई अचरज नहीं जब नसीरुद्दीन उर्फ़ खैरू मियाँ मुग़लों को लुटेरों का ओहदा नहीं देना चाहते। माइंडसेट कैसे बदलोगे?
और खैरु मियाँ- तुम जैसे पाँच पाँच रुपये देके सड़क किनारे दैहिक सुख प्राप्त करने वाले भांडों से कोई उम्मीद भी नहीं है।
नोट- नसीरुद्दीन शाह ने अपनी आत्मकथा में खुलासा किया है वो पाँच दस रुपये दे सड़क किनारे बंजारा औरतों से संबंध बनाया करता था।
फाइव रूपीस पीपल!
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