*पसमांदा आंदोलन का एक नाजुक मोड़*
हालिया दिनों में बीजेपी की पसमांदा मुसलमानों तक पहुंचने के लिए किए गए प्रयासों, जिसमें स्नेह यात्रा, महत्वपूर्ण पदों पर पसमांदा तबके के लोगों की नियुक्ति, राजनैतिक भागीदारी देकर बीजेपी ने पसमांदा मुहिम पर एक नई बहस छेड़ दी। निसंदेह यह बीजेपी की गंभीर कोशिश है और इस पर अन्य दलों से लेकर मुस्लिम समाज में भी हलचल होना बहुत स्वाभाविक है । प्रधानमंत्री का यह नारा "सबका साथ सबका विकास" के तहत एक नया वोट बैंक बनाने की पहल भी कही जा सकती है।
मुसलमानों का अशराफ तबका यानी कि कुलीन वर्ग ये तो कहता है कि इस्लाम में जातिवाद नहीं है किंतु भारतीय उपमहाद्वीप में सामाजिक और सांस्कृतिक संरचना के तहत मुस्लिम समाज में भी जाति व्यवस्था पर्याप्त रूप से मौजूद है। पसमांदा की अनुमानित संख्या का एक बड़ा हिस्सा जैसे नाई, कुम्हार, बुनकर, आदि अन्य पिछड़ा वर्ग में समाहित है। पसमांदा कोई एक खास जाति ना होकर एक ऐसा समूह है जिसका वर्गीकरण पिछड़ेपन के आधार पर कर सकते हैं। मुसलमानों में अशराफ वर्ग ने हमेशा बाबरी मस्जिद मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड और धार्मिक मुद्दों पर अधिक बल दिया, लेकिन पसमांदा के मुख्य सवाल रोजी-रोटी, शिक्षा और धार्मिक संगठनों में प्रतिनिधित्व इन सब बातों को दरकिनार किया और यही एक मुख्य वजह हो सकती हैं कि जो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पसमांदा को लेकर एक पहल शुरू की तो पसमांदा मुसलमान उनके साथ जुड़ने लगा। साथ ही साथ पसमांदा मुसलमानों के लिए महत्वपूर्ण मुद्दे जैसे राजनीतिक रूप से समुचित भागीदारी और उनके आर्थिक सशक्तिकरण के मुद्दों का भी हल भाजपा ने किया।
कुछ अशराफ संगठन और नेता पसमांदा समाज के दलित के आरक्षण के लिए आर्टिकल 341 पैरा 3 का राग अलाप कर इसे हिन्दू-मुस्लिम यानी सांप्रदायिक मुद्दा बनाने का प्रयास कर रहें हैं। ऐसा कर अशराफ एक तीर से दो निशाना हासिल करना चाहता है पहला सांप्रदायिकता माहौल बना कर पहले से पिछड़े पसमांदा पर वर्चस्व को और मजबूत करना और दूसरा उन्हें भीड़ बना सरकार पर दबाव डाल अपने सत्ता एवं वर्चस्व को बनाएं और बचाएं रखना। अगर इसे न रोका गया तो पसमांदा आंदोलन के इस महत्वपूर्ण मांग का भी हाल अशराफ बाबरी मस्जिद वाला कर देंगे और पूरे देशज पसमांदा समाज को सरकार से लड़वा कर स्वयं मलाई खायेंगे अगर अशराफ वाकई चिंचित है तो वो पहले अपने संगठनों और संस्थाओं में पसमांदा दलित को भागेदारी क्यों नही दे देता ?
प्रधानमंत्री उज्ज्वला योजना, प्रधानमंत्री जनधन योजना आदि ऐसी योजनाएं रही जिससे सभी तबके के साथ-साथ विशेष करके पसमांदा मुसलमान अधिक लाभान्वित हुए और बीजेपी ने इस बात को पर्याप्त रूप से प्रसारित भी किया कि लाभार्थियों में पसमांदा मुसलमान संख्या में पर्याप्त है। अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के कुलपति तारीक मंसूर कहते हैं कि स्थिरता सदा हितकारी नहीं होती है खासकर तब जब बात बराबरी की हो और उनका मंतव्य कि प्रतिक्रिया देने से पहले पसमांदा मुसलमानों को एक बार अपने निर्णय को लेकर सोचना चाहिए जिससे उनकी विरोधात्मक प्रतिक्रियाओं से उनके वास्तविक प्रश्न यानी की रोजी- रोटी के मुद्दे, रोजगार के मुद्दे, शिक्षा के मुद्दे आदि चीजें प्रभावित ना हो।
पसमांदा मुसलमानों को त्वरित प्रतिक्रिया के बजाय अपनी सामाजिक हिस्सेदारी, आर्थिक सशक्तिकरण और देश के विकास में शैक्षिक भूमिका पर विचार करने की आवश्यकता है जबकि अशराफ वर्ग हमेशा की तरह कहीं ना कहीं से उन्हें संप्रदायिकता और धर्म से जुड़े मुद्दों में उलझाने की कोशिश करेगा ताकि उसकी पकड़ मुस्लिम समाज के बड़े हिस्से यानी पसमांदा वर्ग पर हमेशा की तरह बनी रहे और वर्तमान राजनीतिक पहल को लेकर की जा रहे संवादों के मंच पर उनकी संख्या का इस्तेमाल कर सके। याद रखें किसी भी हालत में समाज का नेतृत्व अशराफ वर्ग के हाथ में नहीं जाने देना है।
फरहत अली खान अध्यक्ष मुस्लिम महासंघ m.a. गोल्ड मेडलिस्ट
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