यवांकुर उगाना भी है देवी आराधना
मेवाड़ के देहात में नवरात्र को कहा जाता है :
नौरतां। साल में दो नौरतां है :
चेती और
आसोजी।
हर बार नौरतां बैठती हैं और उठती हैं। बैठना यानी ज्वारे बोना। यह जरूरी नहीं कि नौ दिनों की ही नौरतां हों। कहीं आठ, कहीं नौ, कहीं ग्यारह, कहीं तेरह तो कहीं पूर्णिमा को नौरतां उठती हैं।
जब नौरता उठती है तो जवारों के पात्र सिर पर उठा कर सरोवर का मार्ग प्रशस्त किया जाता है और देवी आयुधधारी अपने पुरुष पुजारी में भावाविष्ट होकर निर्भय करती हैं...।
✍🏻 श्रीकृष्ण जुगनू
कृषक के चार महीने के परिश्रम तप, तितिक्षा, सेवा, समर्पण के फल स्वरूप देवी के दर्शन होते हैं,
नवरात्र में यह भी एक रूप है देवी के प्राकट्य का,
जो प्राण शक्ति की रक्षा, पोषण, और वर्धन हेतु आशीर्वाद देती है, आत्मस्थ होकर !!
यह उल्लास ही पर्व बन प्रकट हो जाता है !
सीता धरती पुत्री है, उनका स्वर्ण लंका से स्वतन्त्र हो अयोध्या आगमन प्रतीक है - पूंजीपति के गोदाम की कैद को अन्नपूर्णा द्वारा ध्वस्त कर जन जन तक पहुँच कर सुख समृद्धि प्रसाद प्रदान करने का ...
✍🏻सोमदत्त
हो सकता है इस वर्ष भी कुछ मासूम पूछने लगें कि दुर्गा पूजा में जय श्री राम क्यों कह रहे हो? तो ऐसा है कि शारदीय नवरात्र को अकाल बोधन कहते हैं। ऐसा इसलिए कहते हैं क्योंकि राम-रावण युद्ध से पहले श्री राम ने इसी समय उपासना की, तो इसी समय होने की परंपरा शुरू हुई। इसलिए शारदीय नवरात्रों में जय श्री राम भी कहते हैं।
संजीव सान्याल की ट्वीट से पता चला कि हाल के एक अध्ययन में मौसम वैज्ञानिकों को पता चला कि कई हजार साल पहले मौसम में अचानक से भारी बदलाव हुए थे। मानसून हवाएं जो दो बार बहती हैं (एक बार आती और एक बार जाती हुई) उनमें भारी बदलावों से भारत के क्षेत्र पर गंभीर असर हुए। भारत के त्योहारों का मौसम जो सीधा कृषि आधारित है (अप्रैल और नवम्बर) का उनपर भी इसका असर हुआ होगा क्या?
पहली बार जब बदलाव हुए तो हड़प्पा की बरसात पर आधारित कृषि बदली। उनके लिए अप्रैल-मई के आस पास के फसल से पैदावार बेहतर आने लगी। जब दोबारा बदलाव हुए तो जाड़ों में (अक्टूबर-नवम्बर की कटाई से) आने वाली फसलें बेहतर होने लगीं। भारतीय परम्पराओं के हिसाब से देखेंगे तो पुराने जमाने में वसंत-ग्रीष्म काल के त्यौहार ज्यादा महत्वपूर्ण होते थे। दुर्गा पूजा के जो चार नवरात्र होते थे, उनमें ये ज्यादा महत्वपूर्ण था, और इसे ही मनाया जाता।
“राम की शक्ति पूजा” से ये परम्परा बदल गयी। उनकी शारदीय नवरात्र की उपासना को इसी कारण अकाल बोधन भी कहा जाता है। हम अभी अकाल बोधन, यानी असमय जागृत किये जाने के काल में ही है। मुद्दों को “असमय” उठाये जाने जैसे सवाल क्यों हैं फिर?
आखिरकार एक दिन हमने “राम की शक्ति पूजा” को पूरा पढ़ डाला। कविता पढ़ने के बाद समझ में आया कि ये श्री राम के देवी दुर्गा की उपासना पर लिखी कविता है। कहानी तो बिलकुल सीधी सी थी। इसमें श्री राम के रावण से युद्ध के एक दिन का वर्णन है। दिन में कैसे जोर-शोर से युद्ध हुआ, फिर कैसे देवी दुर्गा युद्धक्षेत्र में आयीं, और उनके रावण के सहयोग के लिए आते ही श्री राम के दिव्यास्त्र भी नाकाम होने लगे, इसपर कविता शुरू होती है। वानर सेना और श्री राम के शिविर में लौटने, दल के दूसरे यूथपतियों की स्थिति की बात होती है।
श्री राम कुछ हतोत्साहित दिखते हैं, और देवी के रावण की सहायता से रुद्रावतार हनुमान क्रुद्ध होते हैं। फिर उन्हें देवी की उपासना का मशवरा मिलता है और एक सौ आठ कमल लेकर श्री राम पूजा पर बैठते हैं। अंतिम समय में देवी एक कमल गायब कर देती है। पूजा पूरी करने के लिए श्री राम अपना एक नेत्र जिसके कारण वो राजीव-नयन या कमल लोचन भी कहलाते थे, वही चढ़ाने को तैयार हो जाते हैं। देवी उनके भाव से प्रसन्न, प्रकट होकर उन्हें वर देती हैं और अगले दिन युद्ध में श्री राम की विजय होती है।
बांग्ला में लिखी गयी “कृतवास रामायण” से प्रसंग लेकर ये कविता लिखी गयी थी, ऐसा माना जाता है। पहले कभी चैत्र का #नवरात्र प्रमुख था और शरद में देवी का सुषुप्त होने का काल था। बाद के समय में शारदीय नवरात्र ज्यादा प्रमुखता से मनाया जाने वाला पर्व बना। यही वजह है कि कभी-कभी कुछ लोग शारदीय नवरात्र को “अकाल बोधन” कहते भी सुनाई दे जायेंगे। ऐसा माना जाता है कि श्री राम ने रावण पर विजय के लिए देवी के सुप्तावस्था वाले काल में उन्हें याद किया।
गलत समय पर यानी अकाल ही आह्वाहन करने के कारण इसे “अकाल बोधन” कहा गया। चूँकि हिन्दुओं के लिए श्री राम आदर्श होते हैं, इसलिए उनके अकाल बोधन को भी मान्यता मिली और नवरात्री अब शरद ऋतु में ही अधिक हर्षोल्लास के साथ मनाई जाती दिखती है। इससे याद आता है कि खुद को ज्ञानी मनवाने पर तुले कुछ आयातित विचारधारा वाले धूर्त पिछले ही शारदीय नवरात्र पर व्यथित थे।
उनकी कुंठा ये थी कि भला दुर्गा पूजा पर उन्हें “जय श्री राम” का उद्घोष क्यों सुनना पड़ रहा है? भाई, साधारण सी तो बात थी! कोई राकेट साइंस नहीं! जब शारदीय नवरात्रि का मनाया जाना उन्हीं के कारण मान्यता पाता है, तो फिर उनकी जय भी तो लोग करेंगे ही! “साइंटिफिक टेम्परामेंट” या वैज्ञानिक सोच का दावा ठोकने वाले मक्कारों की ये अदा भी खूब है। सूर्य के उदय या अस्त पर वैज्ञानिक सोच उसके उदय अस्त का कारण ढूंढती है, ना कि उसके उदय-अस्त पर “ऐसा क्यों?” कहकर शोक में डूबती है।
रामायण को वैज्ञानिक आधार पर परखने के लिए स्वामी करपात्री जी ने कुछ समय पहले “रामायण मीमांसा” लिखी थी। कुछ-कुछ मानवीय आधार देने का प्रयास हाल में नरेंद्र कोहली जी की लिखी “अभ्युदय” में भी दिखता है। हाल ही में संजीव सान्याल की ट्वीट से पता चला कि एक अध्ययन में मौसम वैज्ञानिकों को पता चला कि कई हजार साल पहले मौसम में अचानक से भारी बदलाव हुए थे। मानसून हवाएं जो दो बार बहती हैं (एक बार आती और एक बार जाती हुई) उनमें भारी बदलावों से भारत के क्षेत्र पर गंभीर असर हुए। भारत के त्योहारों का मौसम जो सीधा कृषि आधारित है (अप्रैल और नवम्बर) उनपर भी इसका असर हुआ होगा क्या?
पहली बार जब बदलाव हुए तो हड़प्पा की बरसात पर आधारित कृषि बदली। उनके लिए अप्रैल-मई के आस पास के फसल से पैदावार बेहतर आने लगी। जब दोबारा बदलाव हुए तो जाड़ों में (अक्टूबर-नवम्बर की कटाई से) आने वाली फसलें बेहतर होने लगीं। भारतीय परम्पराओं के हिसाब से देखेंगे तो पुराने जमाने में वसंत-ग्रीष्म काल के त्यौहार ज्यादा महत्वपूर्ण होते थे। दुर्गा पूजा के जो चार नवरात्र होते थे, उनमें वसंत वाला ज्यादा महत्वपूर्ण था, और इसे ही मनाया जाता। शारदीय नवरात्रों की परंपरा अभी भी “अकाल बोधन” कहलाती है।
तिथियों का बदलना, या बदला जाना ऐसी कोई विकट घटना नहीं होती, जो संभव ही ना हो। दूसरे छोटे-मोटे पंथों के मुकाबले भारत और सनातन धर्म का इतिहास कहीं अधिक लम्बा रहा है। यहाँ ये भी सोचना महत्वपूर्ण होगा कि सांस्कृतिक-धार्मिक तौर पर गुलाम बना लिए गए देश कभी वापस अपने पुराने सांस्कृतिक जड़ों की ओर नहीं लौटे। भारत और यहाँ के हिन्दू संभवतः वो एकमात्र सभ्यता है जो हमलावरों से छूटी भी और अपनी सांस्कृतिक विरासत को बचाए रखने में कामयाब भी हुई।
बाकी स्कूल का जमाना भी याद आता है जब कॉपी पर “पहला पन्ना राम का, बाकी पन्ना काम का” कहते हुए पन्ना सादा छोड़ दिया जाता था। जिनके नाम से दीपावली-विजयदशमी जैसे पर्वों की तिथियाँ तय होती हों, उनके लिए तिथि और मुहूर्त निकालने मत बैठिये भाई!
पुरानी सी कहावत “बूढ़ा तोता राम-राम नहीं रटता” कई अलग रूपों में भारत में प्रचलित है। जैसे मैथिलि में इसके लिए “सियान कुकुर पोस नै मानै छै” कहा जाता है, जिसका मतलब होता है कि कुत्ता बड़ा हो जाए तो उसे पालतू नहीं बनाया जा सकता। ये कहावत भी हिन्दुओं की मूर्खता करने और कर के फिर उसी पर अड़े रहने की विकट क्षमता दर्शाती है। बचपन से ही सिखाना होगा ये जानने के बाद भी ज्यादातर सनातनी परंपरा के लोग अपने धर्म के बारे में अपने बच्चों को कुछ भी सिखाने का प्रयास नहीं करते।
शायद उन्हें लगता होगा कि इस काम के लिए कोई पड़ोसी आएगा, ये उनकी जिम्मेदारी नहीं है। ऐसी ही वजहों से अगर आज किसी ऐसे आदमी से, जो गर्व से खुद को सनातनी कहता हो, उस से पूछ लें कि अगली पीढ़ी को अपने धर्म के बारे में बताने के लिए आपके घर में कौन सी किताबें हैं? तो वो बगलें झाँकने लगेगा। नौकरी-काम के सिलसिले में आप चौबीस घंटे बच्चे के लिए उपलब्ध नहीं हैं, दादी-नानी भी दूर कहीं रहती हैं, तो आपको तो सिखाने के लिए किताबें या कुछ घर में रखनी चाहिए थीं।
इतने प्रश्न बहुत सरल भाषा में, मधुर वाणी में और मुस्कुराते हुए ही पूछियेगा। क्योंकि इतने सवालों पर आपको सनातनी मूर्खता के बचाव में विकट तर्क सुनाई देने लगेंगे। वो बताएगा कॉमिक्स पढ़कर बच्चे बिगड़ जाते हैं, महंगी भी होती हैं इसलिए अमर चित्र कथा उसने नहीं ली है। वो ये भी बताएगा कि पञ्चतंत्र के नाम में ही तंत्र है, उसका ऐसी चीज़ों पर विश्वास नहीं, फिर पुराने जमाने कि इस किताब से आज के बच्चे क्या सीखेंगे? इसलिए वो पंचतंत्र जैसी किताबें भी नहीं लाया।
आपको तो पता ही है कि भगवद्गीता पढ़कर पड़ोस के कितने ही लोग साधू हो गए हैं! दस-बीस ऐसे लोग जो पहले पन्ने से आखरी पन्ने तक भगवद्गीता पड़कर साधू हुए हैं, ऐसे सनातनियों को कौन नहीं पहचानता? रोज ही दिख जाते हैं, इसलिए वो भगवद्गीता भी घर में नहीं रखता। महाभारत घर में रखने से झगड़े होते हैं, रामायण कहाँ ढूंढें पता ही नहीं, कोई चम्मच से मुंह में डाल देता, मेरा मतलब पढ़ा देता तो सीख कर एहसान भी कर देते। अब बच्चों कि किताबों में रूचि भी नहीं रही, कोई किताबें नहीं पढ़ता।
ऐसे तमाम तर्क सुनने के बाद आप आक्रमणकारियों की सनातनी से तुलना कर के देखिये। डेविड बर्रेट और जेम्स रीप के “Seven Hundred plans to Evangelize the world; the rise of a Global Evangilization movement” के मुताबिक चर्च के पास 1989 में 41 लाख पूर्णकालिक थे जो आत्माओं की फसल काटते थे। Soul Harvesting करते थे, आपका शराफत वाला “धर्म-परिवर्तन” मासूम सा शब्द है। उनके पास 13,000 बड़े पुस्तकालय थे, 22,000 पत्रिकाएँ छापी जाती थी और 1800 इसाई रेडियो/टीवी चैनल भी वो चला रहे थे।
पिछले तीस साल में ये गिनती कितनी बढ़ी होगी ये सोचने में जितना समय लगे उतने में उसी स्रोत से ये भी बता दें कि उस वक्त 400 मिशन एजेंसी थी जो आत्मा जब्त करने का काम करती थी। इन आत्मा जब्ती के संस्थानों में 262300 आत्मा के लुटेरे मिशनरी थे और ये 8 बिलियन डॉलर के करीब के खर्च से चलने वाला काम था। सिर्फ आत्मा-खसोट पर साल भर में 10000 किताबें और लेख आते हैं। ये सब प्रत्यक्ष हो ऐसा जरूरी नहीं, जातिवाद को उभारने, असंतोष भड़काने के लिए जो लेख लिखवाए उसे भी इसमें जोड़िएगा।
जब ये कर चुके हों तो फिर से बता दें कि ये जानकारी तीस साल पुरानी है। इस नव नवरात्रि के दौरान, अगर आप एक दो किताबें भी घर नहीं लाये हैं, कुछ पढ़ने कि कोशिश भी नहीं की है तो सोचिए आप अपने बच्चों को क्या दे रहे हैं ? शींचेन, एनीमे, कार्टून और 20 साल बाद अंग्रेजी स्कूलों में पढ़ा एक रेडी टू कन्वर्ट नौजवान ??
पूरे देश में लागू होने वाले धर्म-परिवर्तन पर नजर रखने लायक कानून तो बने नहीं हैं, जबकि संवैधानिक तौर पर ये केंद्र सरकार का ही विषय है, ये शायद आपने नहीं सोचा होगा।
ध्यान रहे कि इनका निशाना अक्सर गरीब-पिछड़ा तबका होता है तो ये आपके घर काम करने वाली के मोहल्ले में पहले आयेंगे। आपकी काम वाली बाई कब मुन्नी से मुन्नी बेगम हो जाएंगी, आपको पता भी नहीं चलेगा ।
सोचिये, सोचना चाहिए!
✍🏻 आनन्द कुमार जी की पोस्टों से
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