Monday, 20 November 2023

छठ के बारे में दुष्प्रचार से बचें !छठ के संबंध में कुछ बातों का ध्यान रखिये ताकि कोई आपके बरगला नहीं सके। विशेषकर मुँह पर पाउडर पोत के बकबक करने वाले टीवी एंकर आपको भ्रम में न डाल सकें।

छठ के बारे में दुष्प्रचार से बचें !

छठ के संबंध में कुछ बातों का ध्यान रखिये ताकि कोई आपके बरगला नहीं सके। विशेषकर मुँह पर पाउडर पोत के बकबक करने वाले टीवी एंकर आपको भ्रम में न डाल सकें। 

1. हिन्दुओं का प्रत्येक पर्व लोक आस्था का पर्व है, केवल छठ ही नहीं। होली, दीपावली, दशहरा जैसे लोक आस्था के महापर्वों के सामने छठ की व्यापकता बहुत ही कम है। 

2. वैदिक ऋषियों की ही देन है छठ। यदि कोई आपको कहे कि यह ब्राह्मणों की देन नहीं, बल्कि लोक -मानस की उपज है तो आप जोर से खिलखिला कर हँस दीजिये।

स्कंद की षण्मातृकाओं में से एक हैं षष्ठी (छठी) मैया। स्कंद का एक नाम कार्त्तिकेय है और यह कार्त्तिक मास उन्हीं के नाम पर है। षण्मातृकाओं में से छठी माता हैं। इनका नाम देवसेना है। संतान जन्म होने के बाद छठे दिन छठियार में भी इन्हीं की पूजा होती है। षष्ठी देवी संतान के लिए अत्यंत कल्याणकारी हैं और कुष्ठ जैसे दुःसाध्य रोगों का निवारण करती हैं। ये सूर्य की शक्ति की एक अंश हैं जो कार्त्तिक शुक्ल पक्ष षष्ठी तिथि के दिन सूर्यास्त के समय और सप्तमी के सूर्योदय के समय तक विशेष रूप से प्रस्फुटित रहती हैं। यह सब ज्ञान और विधान ब्राह्मण ऋषियों की देन है। शाकद्वीपीय अर्थात् सकलदीपी ब्राह्मणों से पहली बार यह विधि श्रीकृष्ण-पुत्र साम्ब ने सीखी थी। श्रीकृष्ण ने अपनी संतान साम्ब के जीवन की रक्षा के लिए उन्हें निमंत्रित कर के उसे यह सिखवाया था।

हमारे ब्राह्मणों के विरुद्ध विषवमन करने वाले वामपंथी लोगों ने हमारी संस्कृति और सभ्यता को तोड़ने के लिए यह दुष्प्रचार शुरू किया कि यह ब्राह्मणों द्वारा नहीं दिया गया है।

3. छठ व्रत में बिचौलिए ही नहीं, कईचौलियो की जरूरत पड़ती है यानि अकेले कर पाना अत्यंत दुष्कर है। इसका कर्मकांड बहुत ही विस्तार लिए चार दिनों तक फैला हुआ है। बहुत सारे लोग रहें तभी कोई व्रती इसे सही ढंग और सहूलियत से कर सकता है। यह कोई आसान पूजा नहीं है जिसे बस एक पुरोहित बुलाकर झट से निपटा दिया।

4. डूबते सूर्य को अर्घ्य देना तो हिन्दुओं का अनिवार्य दैनिक कर्म है। दैनिक गायत्री संध्या-आह्निक में प्रतिदिन डूबते और उगते सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है। त्रिसंध्या जो नहीं करता वह व्रात्य है यानि धर्म से पतित। और त्रिसंध्या में उदय होते, अस्त होते सूर्य के अतिरिक्त मध्याह्म में भी सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है।

5. किसी भी कर्मकाण्ड और पूजा विधान में पुजारी की आवश्यकता नहीं है, यदि आप उसे स्वयं ही कर पा रहे हैं। यज्ञ एवं अनन्त प्रकार के जो विधान ब्राह्मण ऋषियों ने दिए हैं उन सबमें से लगभग सभी को व्यक्ति द्वारा स्वयं ही करने का विधान है। जो स्वयं कर पाने में असक्षम है उन्हें ही मदद के लिए पुरोहितों की व्यवस्था है। पर यह स्पष्ट बताया गया है कि स्वयं करने से ही अधिकतम लाभ है।

6. का दो छठ में जटिल मंत्रों की आवश्यकता नहीं!!-- केवल जटिल भोजपुरी गीतों की आवश्यकता है जिनका अर्थ अधिकांश लोग समझते ही नहीं !! आज तक शायद ही किसी ने छठ में 'बहँगी' का उपयोग देखा हो पर 'कॉंच ही बाँस के बहँगिया...' गाए बिना छठ सम्पन्न हो ही नहीं सकता !!........ ये मंत्र भोजपुरी में  हैं। 

मैं यह सब इसलिये लिख रहा हूँ कि छठ में भाव - विभोर होते हुए हमें कोई बरगला कर हानिकारक एवं अंट- शंट बातें न सिखा दे !!
✍🏻यशेन्द्र प्रसाद

छठ में पंडे-पुरोहित की जरुरत नहीं होती है। बहुत सही बात है। अब ये बताइये कि कुछ ही दिन पहले जो भाई दूज (भातृ-द्वितीय या भरदुतिया) किया था, या करते आ रहे हैं, उसमें कौन से पुरोहित बुलाये जाते हैं? मंदिरों के आयोजन छोड़ दें तो नवरात्री पर घरों में कौन से पंडित बुलाये जाते हैं? मंदिरों या सार्वजनिक स्थलों पर किसी का एकाधिकार नहीं होता इसलिए वहाँ यजमान के साथ एक पुरोहित बैठता है। ऐसे ही दीपावली पर व्यावसायिक प्रतिष्ठानों को छोड़ दें, तो कितने घरों में पंडित पूजा के लिए बुलाये जाते हैं? कोई अनुष्ठान करने के लिए पंडित रक्षाबंधन पर नहीं बुलाये जाते, होलिका दहन या होली पर भी नहीं बुलाये जाते। हिन्दुओं के अधिकांश आयोजन तो पंडितों के बिना ही होते हैं।

विवाह जैसे आयोजनों में भी देखेंगे तो पाएंगे कि मंत्रपाठ का जिम्मा भले पंडित का हो लेकिन सारे विधि-विधानों का जिम्मा तो किसी नाई और किसी घर की ही महिला के हाथ में होते हैं। वट-सावित्री अभी-अभी बीती है, करवाचौथ को भी अधिक समय नहीं हुआ। किसी में पंडित को बुलाकर पूजा करवाना याद आता है क्या? हिन्दुओं के तमाम आयोजन पंडितों के बिना ही होते हैं। विधियों को शास्त्रोक्त और शुद्ध रखने के लिए कभी-कभार पंडितों को बुला लिया जाए ऐसा हो सकता है। आयोजन अधिक वृहत हो, तो घर के लोग आने वाले अतिथियों-आगंतुकों को अधिक समय दे सकें इसके लिए पंडितों को बुलाया जाता है।

ये बिलकुल वैसा ही है जैसे आपके विवाह के आयोजनों में होने लगा है। थोड़े समय पहले तक गाँव में कोई टेंट हाउस तो होता नहीं था। पूरी बरात के लिए खाना पकाना हो तो अड़ोस-पड़ोस के घरों से बर्तन जुटते थे। शहर पलायन करके आ गए लोगों की इतनी जानपहचान ही नहीं होती कि बर्तन जुटाए जा सकें, इसलिए किराये पर बर्तन आने लगे। पहले लोग मानते थे की लड़की के विवाह की सूचना ही आमंत्रण है। बिना बुलाये ही लोग कुर्सियां सजाने से लेकर जूठी पत्तलें उठाने तक आ जुटते थे। आज संयुक्त परिवार तक तो है नहीं, चार लोगों के घर में उतने लोग इकठ्ठा ही नहीं होंगे इसलिए किसी कैटरर को बुलाया जाता है। वो खाना परोसने-खिलाने में जुटा होता है तो घर के लोग मेहमानों का स्वागत कर पाते हैं। 

अब आप कहेंगे, नहीं-नहीं जी, हमारा तो मतलब था कि आडम्बर नहीं होता जी! बड़ी सीधी प्रक्रिया है जी! कोई भी कर सकता है जी! तो भइये ऐसा है कि इतना झूठ तो ना कहें! जैसे बिना नहाये हर कोई दूसरी किसी तथाकथित विधि-विधान वाली पूजा का सामान नहीं छू सकता, उससे थोड़ी बढ़ी-चढ़ी पाबन्दी तो छठ के लिए आये सामान पर लागू होती है। घर के जिस हिस्से में रखा होता है, वहाँ जाना बच्चों के लिए भी प्रतिबंधित होता है। जैसे कठिन उपवास छठ के लिए होते हैं, वैसा ही कठिन उपवास तो जिउतिया, वट-सावित्री जैसी बिना पंडित वाले व्रतों में भी होता है न?

पंडित जी वाली पूजा में जैसे दूब चाहिए, शंख चाहिए, वैसे ही यहाँ गुड़ के बदले चीनी डालकर काम तो चलाते नहीं। लौकी-कद्दू के बदले आलू-गोभी बनाने लगे हैं क्या? सूप और दौरी-छिट्टा, डगरा जैसे बांस के बने के बदले प्लास्टिक वाला प्रयोग में लाने लगे हैं? मुहूर्त अगर पंडित जी वाली पूजा में होता है तो छठ में भी सूर्योदय से पहले घाट पर जाने के बदले आठ बजे सोकर उठने के बाद दस बजे ऊँघते हुए घाट पर नहीं जाते हैं। सूर्यास्त के पहले पहुँचने के बदले आठ बजे ऑफिस का काम निपटाकर या दुकान बढ़ाने के बाद नहीं पहुँचते। मुहूर्त का ध्यान भी रखते हैं।

ज़ात-पांत नहीं पूछी जाती का बेकार का राग भी मत अलापिये। होली में आपपर कौन रंग डालेगा, कौन नहीं, ये अगर आप ज़ात पूछकर तय करते थे तो आप घनघोर असामाजिक तत्व हैं। बल्कि ऐसा करते आपको छोड़ देने के कारण सिर्फ आप नहीं आपका पूरा खानदान असामाजिक है। पंडाल लगाकर पूजा करना बहुत बाद में आई व्यवस्था है। इसलिए अगर सरस्वती पूजा, या दुर्गा पूजा जैसे अवसरों पर आपने ज़ात पूछकर किसी को पंडाल में आने से रोका होता तो आप ऐसे ही एससी/एसटी एक्ट में जेल में चक्की पीसिंग एंड पीसिंग कर रहे होते। तो वहाँ भी ज़ात-पांत तो होती नहीं।

छठ के बारे में बताना ही है तो ये बताइये कि जैसे हिन्दुओं के सभी त्यौहार सामाजिक रूप से मनाये जाते हैं, ये भी वैसा ही है। जैसे रावण दहन या होलिका दहन के लिए समाज इकठ्ठा होता है, रामलीला के आयोजनों में सभी आते हैं, वैसे ही यहाँ भी सभी सम्मिलित होते हैं। जैसे हिन्दुओं का कोई भी त्यौहार, कोई भी मंदिर, समाज के सभी वर्गों के लिए आय सुनिश्चित करने का साधन है, चाहे वो हलवाई की हो, फूल बेचने वाले की हो, बिलकुल वैसे ही यहाँ भी सूप बनाने वाले से लेकर कृषक तक सभी वर्गों के पास त्यौहार पर खर्च करने को कोई अतिरिक्त आय हो, इसका ध्यान रखा जाता है।

बाकी जैसे दूसरे पर्व त्योहारों में आप ब्राह्मणों को कोसते हैं, उसे दक्षिणा क्यों नहीं मिलनी चाहिए, इसके कारण बताते हैं, बिलकुल वैसे ही छठ के बहाने भी ब्राह्मण को आय न हो, उसे कोसा जा सके, इसके बहाने निकाले जाते हैं। इसमें भी आधुनिक काल के हिन्दुओं के त्योहारों से समानता है, वो भी देख लीजिये।
✍🏻आनन्द कुमार

                   
ऋग्वेद में छठ पर्व –

उषस की या सविता की या सूर्य देव की आराधना का "सूर्य षष्ठी पर्व" संसार के सबसे प्राचीन पर्वों में से एक है। यह सामुदायिक स्तर पर मनाया जाने वाला दुनियाँ का प्राचीनतम त्योहार है। छठ पर्व की पूजा-विधि और परंपरा भी विश्व के सबसे प्राचीन, लगभग 6000 BCE के, ऋग्वेद की जन-गीत परम्परा है, जो तबसे आज तक अक्षुण्ण रूप में चली आ रही है। ऋग्वेद की उषस (उषाकाल या dawn) की ऋचाओं के स्वर से छठ-गीतों की लय आज भी बहुत मिलती है। यह हमारा संस्कार-धन दुनिया की सबसे पुरानी धरोहर है।

छठ पूजा के आज के सभी पारंपरिक गीत लगभग उसी रूप में मिलते हैं जैसे ऋग्वेद की ऋचाओं में हैं। 
आज के एक लोकप्रिय छठ-गीत में ऋग्वेदिक ऋचाओं की छाया देखिए। 

एक गीत है-
उगा हो सुरुज देव भेल भिनुसरवाँ
अरघ के रे बेरवा, पूजन के रे बेरवा हो…
हमरो तिवई ले डलरिया 
थाके ले पिया पातर हो..

ऋग्वेद में-
उदु ष्य देव: सविता दमूना हिरण्यपाणि: प्रतिदोषमस्थात्
अयोहनुर्यजतो मन्द्रजिह्व आ दाशुषे सुवति भूरि वामम् ।। 
(ऋग्वेद 6.71.4)

उगो हे सूर्य देव, स्वर्णमय हाथों से देने वाले, भोर की वेला हो गई है ।
हनु (ठुड्डी) की आकृति वाले स्वर्णपात्र (अर्थात् सूप या डाला या डलरिया) से यजन करने वाली, मधुर स्वर में गाती हुई सुव्रती (तिवई) को बहुतायत से धन  प्रदान करो।

छठ पर्व की बधाई और हार्दिक शुभकामनाएं ! 
🙏🌺
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बिहार छठ पूजा का मुख्य केंद्र क्यों –

2013 के बाद के नवीनतम पुरातात्विक अनुसन्धानों और जननिक (जेनेटिक) अध्ययनों से यह तथ्य उद्घाटित हुआ है कि वेदकालीन मनुष्य का प्रारंभिक क्षेत्र, कैलाश-मानसरोवर क्षेत्र के बाद, ब्रह्मावर्त (वर्तमान हरियाणा व राजस्थान) और लघुद्वीप (वर्तमान बिहार व उत्तरप्रदेश जहाँ लहुरादेव के 7500 BCE के अवशेष मिले हैं) रहा है। 
लघुद्वीप में ही मागन क्षेत्र (प्राचीन ईरान का एक भाग) के ऋषियों (मग या शाकद्वीपीय ब्राह्मणों) का भी आवास क्षेत्र बना जिन्होंने वहाँ होने वाली उषस की पूजा को यह विशेष आनुष्ठानिक रूप दिया। 

ऋग्वेद के छठे-सातवें मण्डलों में छठ पूजन की विशेष ऋचाएं हैं, और यही दोनों मण्डल ऋग्वेद के सबसे पहले मण्डल हैं, लगभग 6000 BCE के। अर्थात् जब ऋग्वेद की ऋचाओं का रचा जाना प्रारंभ हुआ तब समाज में इस विशिष्ट सूर्यपूजा की परंपरा स्थापित हो चुकी थी, और छठ पूजा की परंपरा लगभग 8000 वर्षों (6000 BCE) से लगातार चली आ रही है।  
इसी कारण परंपरा से बिहार छठ पूजन का मुख्य केंद्र है।
✍🏻सुनील श्रीवास्तव

छठ : आस्था के साथ वनस्पति का सम्मान भी
* श्रीकृष्ण जुगनू
न कार्तिक समो मास... सचमुच कार्तिक मास पूरा ही प्रकृति में वनस्पति, औषध, कृषि और उसके उत्पाद के ज्ञान की धारा लिए है। अन्नकूट के मूल में जो धारणा रही, वह इस ऋतु में उत्पादित धान्य और शाक के सेवन आरंभ करने की भी है। अन्न बलि दिए बिना खाया नहीं जाता, इसी में भूतबलि से लेकर देव बलि तक जुड़े और फिर गोवर्धन पूजा का दिन देवालय - देवालय अन्नकूट हो गया।

छठ पर्व इस प्रसंग में विशिष्ट है कि कुछ फल इसी दिन दिखते है। डलिए, छाब और छाभ भर भरकर फल निवेदित किए जाते हैं, सूर्य को निवेदित करने के पीछे वही भाव है जो कभी मिस्र, ग्रीक और यूनान तक रहा। सबसे प्रभावी ज्योतिर्मय देव को उत्पाद का अंश दान। छठ तिथि का ध्यान ही फलमय हुआ क्योंकि छह की संख्या छह रस की मानक है। भोजन, स्वाद और रस सब षट् रस हैं। इस समय जो भी फल होते हैं, वो बिना चढ़ाए महिलाएं खाती नहीं है। 

मित्र अत्रि विक्रमार्क जी एक अलग बात भी कहते हैं षष्ठी (मातृका और कार्तिक मास) के बारे में। भाद्रपद शुक्ला षष्ठी हल-षष्ठी नाम से मनती है, यह तिथि बलराम के जन्मदिन से संयुक्त भी मानी गई है, इस दिन महिलायें हल से उत्पन्न अन्न नहीं खाती हैं। इसके 60 दिनों बाद मनाई जाने वाली डाला-छठ भी ऐसा व्रत है जिसमें निराहार रहती हैं। उपज का षष्ठांश राजा ले जाता था ,  हल षष्ठी एवं डाला छठ 60 दिनों में उत्पन्न होने वाली धान की सस्य से जुड़ा हुआ लगता है, एवं षष्ठांश प्रकृति राजा को दिया जाने वाला कर।

चातुर्मास के व्रतों में प्राजापत्यादि व्रत में अन्तिम ३ दिन निराहार रहकर व्रत का निर्देश पुराणों में प्राप्त है। डालाछठ में भी 3 दिनों का व्रत उन्हीं व्रतों का संक्षिप्त रूप ही है। ( इस टिप्पणी के प्रत्युत्तर में नेपाल देश निवासी श्री उद्धब भट्टराई अपनी स्मृति लिखते हैं कि -
जी बिल्कुल सत्य तथ्य आधारित है। मुझे याद है पहले हमारे यहां साठी प्रजाति के धान की चावल से ही आज की शाम भोग में प्रयोग होनेवाली रसीआव रोटी वाली गुड़ प्रयुक्त खीर और उसी साठ़ी चावल के आटे से ही "डाला छठ" पूजा के लिये शुद्ध देशी घी में ठेकूवा प्रसाद तैयार किया जाता रहा।

और, बांस के डलिए भरे फलों में शाक सहित रसदार फल भी होते हैं : केला, अनार, संतरा, नाशपाती, नारियल, टाभा, शकरकंदी, अदरक, हल्दी और काला धान जिसे साठी कहते हैं और जिसका चावल लाल होता है, अक्षत के रूप में प्रयोग होता है। श्रीफल, सिंघाड़ा, नींबू, मूली, पानी फल अन्नानास... सबके सब ऋतु उत्पाद। 

ईख का तोरण द्वार और बांस की टोकरी... यह सब वंश पूर्वक अर्चना है। फिर, चवर्णक और मसालों में गिनिए : पान, सुपारी, लोंग, इलायची, सूखा मेवा... है न रोचक तथ्य और सत्य। प्रकृति ने जो कुछ हमें दिया, उसका अंश हम उत्पादक शक्तियों को निवेदित करके ही ग्रहण करें। यह भाव भारतीयों का अनुपम विचार है जिसका समर्थन गीता भी करती है। 

छठ मैया के लोकगीतों का अपना गौरव और गणित है लेकिन गीत अगणित हैं। उनमें सूर्य नमस्कार के रूप में सुंदर भाव है। सूर्य के बल रूप में जोड़, ताप शमन के रूप में बाकी, अपेक्षा के रूप में गुणा और अनुग्रह के रूप में भाग का भाव मिलता है :
छठी मैया के रोपल जीरवा
जीरवा लहसत जाय,
जीरवा लहसत जाय।
जीरा के रखवार सूरजमल
जीरा लहले सिहोर, 
जीरा लहले सिहोर...।

और भी गीत गाये जाते है जिनमें गंगा है, गंगा की लहरें, पवित्र जलधारा, हिलोर, नैया, नाविक आदि भी हैं : 
गंगाजी बहेली झराझर 
नइयां आवै बहुत, नइयां आवै बहुत।
कलसुपवा भरल नइयां 
आवै बहुत नइयां आवै बहुत...।
🪔
सब मित्रों को छठ पूजा की आत्मिक बधाई...।
✍🏻श्रीकृष्ण जुगनू

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