मेरी एक दोस्त थी, जो किसी लड़के से प्यार किया करती थी, और मुझसे अक्सर चिट्ठियां लिखवाया करती थी। मुझे अजीब लगता था पर लिख दिया करता था और यह सिलसिला सालों साल तक चलता रहा।
सात साल बीत गए और इसी बीच वह दिन भी आ गया जब हमारा 12th का आखिरी पेपर था। घर जाने के लिए सामान की पैकिंग पहले ही हो चुकी थी। सभी को पता था कि यह नवोदय का आखिरी दिन है और अब हम सब शायद ही कभी मिल पाएं।
जूनियर हमसे डायरी लिखवा रहे थे, क्लास के लड़के-लड़कियां एक दूसरे से मिलकर बातें कर रहे थे, हर कोई अपनी पुरानी स्मृतियों को सहजने और नई यादें बनाने में लगा था और एक मैं था जिसे मानो किसी बात की फ़िक्र ही नहीं।
हर दिन की तरह उस दिन भी एग्जामिनेशन हॉल से निकला और सीधे मेस में गया। विदाई का दिन था तो खाना भी अच्छा बना था। जी भरके खीर और पनीर खाया और हर दिन की तरह बेपरवाह पीछे की बॉउंड्री फांदकर नदी पर पहुंच गया। यह वह जगह थी जहां स्कूल की छुट्टी के बाद अक्सर बैठा करता था।
कभी अकेले तो कभी किसी के साथ।
तुम लोगों को कभी यकीन नहीं आएगा पर मैं जन्मजात घुमंतू हूं। मुझे नदी, पहाड़, झरने बचपन से ही अच्छे लगते थे और कई बार अपनी इस चाहत की वज़ह से मैंने मार भी खाई है। तो भला इस आखिरी दिन वहां क्यों नहीं जाता?
नदी पर पहुंच देर तक बैठा उसके बहाव को देखता रहा और जब वापस स्कूल लौटा तो सब जा चुके थे। हॉस्टल में सिर्फ मैं था और मेरा टीन का एक भारी-भरकम बक्सा। कुछ देर बाद नजर दूसरे तरफ गई तो देखा आंख में आंसू लिए वह ख़त लिखवाने वाली मेरी दोस्त भी नज़र आयी।
मैंने उसे जैसे ही देखा और फबककर रोने लगी।
मैंने कहा हुआ क्या? कुछ बताओगी या फिर रोती ही रहोगी? उसने मेरी बात का कोई जवाब नहीं दिया, उसके हाथ में एक छोटा सा कागज़ का डब्बा था, मुझे पकड़ा, एक झटके के साथ वह दरवाजे से बाहर निकल गई।
मुझे कुछ समझ में नहीं आया।
मैं बस खिड़की पर खड़े होकर उसे जाते हुए तब तक देखता रहा जब तक कि वह मेरी आंखों से ओझल नहीं हो गई। ये लड़कियां भी ना एक सवाल की तरह होती हैं, और इनके आंसू? मुझे ना तो कभी एक बार में इनका प्यार समझ में आता है और ना ही नफ़रत।
मैंने हमेशा कि तरह इस बार भी सोचा।
आगे बढ़कर अपना सामान उठाया तो अहसास हुआ कि कुछ छूट रहा है। क्या बस यह नहीं पता चल पाया। ना जाने किस गम में मेरी आँख से भी एक आंसू टूटा और कागज़ के उस डब्बे पर गिर गया।
कोई पास में होता तो नहीं रो पाता।
कोई नहीं था, इसलिए जी भर के रोया और बहुत ही भारी मन से आखिरी बार उस स्कूल को देखा जहां सात साल बिताया था, जहां वर्षों से हंसा और रोया था, जहां शरारतें की थी और जी भर के बदमाशियां भी। जहां मैंने प्यार करना सीखा था।
बस गलती ये हो गई कि जताना नहीं सीख पाया और इस बात का अहसास भी उस आखिरी वक़्त में हुआ जब सब जा चुके थे। ना तो कोई कुछ कहने वाला बचा था और ना ही कोई सुनने वाला।
मैंने सामान उठाया, साथ उस दोस्त का दिया हुआ कागज़ का बॉक्स, एक पल को उसका ख़्याल भी आया। मैंने हमेशा की तरह उस दिन भी उसके ख्याल को दूर झटकना चाहा, लेकिन एक सवाल के साथ उसके आंसू आड़े आ गए।
आखिर वह रो क्यों रही थी? और यह कागज़ का बॉक्स? इसमें क्या है? मैंने पैकेट खोला तो उसमें बहुत सारे ख़त थे और उन ख़तों के बीच एक छोटी सी पर्ची भी।
मैंने एक-एक करके उन सभी ख़तों को पढ़ने की कोशिश की। यह वही ख़त थे जो उसने किसी के लिए मुझसे पिछले सात सालों में लिखवाया था।
मैं उसके दिये तमाम खतों को अलट पलटकर देख ही रहा था कि पर्ची पर नज़र पड़ी। पर्ची में सिर्फ इतना लिखा था कि तुमको कुछ महसूस नहीं होता? तुम लिखते हो, पर महसूस क्यों नहीं करते? मेरे हृदय और मेरी आंखों की गहराई का तुम्हें अहसास तक नहीं।
और यह खत?
जानना चाहोगे कि वह लड़का कौन था? किसके लिए लिखवाया करती थी। रहने दो, अच्छा लगे तो अपने पास रख लेना अन्यथा जला देना।
मैं भला उन ख़तों का क्या करता? वहीं छोड़कर आ गया और वर्षों तक नहीं समझ पाया कि वह ख़त मेरे लिए थे, वह लड़की मुझसे प्यार करती थी। और जब समझ में आया तो वह बहुत दूर जा चुकी थी। इतनी दूर जहां चाहकर भी नहीं पहुंचा जा सकता।
खैर, वह जा चुकी है। यदि पास होती तो आज सिर्फ उससे इतना कहता कि देखा आजकल मैं जो भी लिखता हूं उसे महसूस करता
... और जीता भी हूं।
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