सुकरात जी हिरासत में थे...
मुकदमा शुरू हो चुका था। आरोप थे- सुकरात नए देवताओं की पूजा करता है। और वह युवाओं को ऐसा संदेश देता है जो प्राचीन मान्यताओं से उनका भरोसा उठा देता है।
आरोपो के साबित होने की सजा मौत थी। औऱ अपनी पैरवी खुद सुकरात को ही करनी थी।
एक दिन जेल में मिलने उसका दोस्त गया। काफी देर बातचीत हुई और सुकरात पहले की ही तरह दुनिया भर के विषयों पर बातचीत करते रहे।
दोस्त ने पूछा- क्या तुम्हें मुकदमे में अपनी दलीलों की तैयारी नहीं करनी चाहिए...?
- तुम्हें क्या लगता है ?
मैं ताजिंदगी और क्या करता रहा हूँ - हंसकर सुकरात ने जवाब दिया...
जो बातें मैं समाज से कहता रहा, जो युवाओं को सिखाता रहा, जो जितनी भी चीजें बताई, उसके कारण दिए, हर बात को तर्क से प्रमाणित किया। पुरानी सोच और पोंगापंथ पर प्रहार किए।
उन सबका नतीजा यह मुकदमा होना ही था। और जो आज तक लोगों से मैंने कहा, वही तर्क, वही बातें, वह सोच.. सब तो इस मुकदमे की दलील हैं।
मैं जीवन भर इसी पल की तैयारी तो करता रहा हूँ।
...
दोस्त अब भी अड़ा था। दोस्त था न...! हमदर्द...!
- मुझे लगता है, तुम तो मरने को तैयार हो। इससे तुम्हारी बातों में एक निर्भयता की ध्वनि आती है।
इसे अहंकार समझा जा सकता है।
जज चिढ़ सकते है, तुम्हें जरा नर्म हो जाना चाहिए। अगर तुम जियोगे, तो और नई बातें सोचोगे। समाज तुमसे सीखेगा। तुम्हारी जरूरत है अभी...
- "हा...हा...हा...मेरी जरूरत है अभी...?"
सुकरात मृत्यु भय से मुक्त थे...
"मेरी जरूरत का ये अहसास ही तो सुकरात की स्मृति होनी चाहिए"
"देखो, मैं अभी स्वस्थ हूँ। अब तक एक अच्छी जिंदगी जी है। आज समाज को मेरी जरूरत है, उसे मुझसे आशायें है। मगर इसके आगे...मेरी वृद्धावस्था है।
आगे मैं कम सोच पाऊंगा, कम बोल सकूंगा। नई नई जानकारियां आएंगी, उनसे तालमेल बिठाने में मुझे कठिनाई होगी। मेरी सक्रियता, उपयोगिता और स्वीकार्यता घटेगी। तो सबसे अच्छा समय यही है पूर्ण विराम लगाने का, चले जाने का।
जब संसार आपके जाने से व्यथित हो, आपके बगैर कुछ ऐसा हो, जो अधूरा प्रतीत हो। सुकरात की मौत से संसार को कुछ खो देने का अहसास हो।
उसे मेरी जरूरत ताजी महसूस हो
तो वह मुझे याद रखेगा।
मेरे प्यारे साथियों...
सुकरात की जरूरत तब थी। सुकरात की जरूरत आज है। इसलिए सुकरात याद किया जाता है। मुकदमा हारने वाला सुकरात, दरअसल संसार जीत लेता है।
तो आज उसे सजा देने वाले जज का नाम किसी को नही मालूम। भगतसिंह को फांसी देने वाले जज का नाम भला कौन जानता है ???
अस्सी की उम्र में सर्दी, बुखार, तपेदिक से मरने वाले गांधी की तुलना में, उन्यासी बरस पर गोडसे की गोलियों से मरा गांधी, उस जीवन की स्क्रिप्ट का शानदार अंत है।
आज वो गोलियां कवच बनकर गांधी की रक्षा करती हैं।
जब तक हिंदुस्तान रहेगा, गांधी रहेगा, वो गोलियां रहेगी।
गांधी का मान रहेगा।
...और विवाद भी...
कब जाना है, कब त्यागना है, कब छोड़ देना है। किस वक्त जाने से स्मृति चिरस्थाई होगी, अमरता मिलेगी, यह केवल प्रबुद्ध जन जानते हैं।
और जो भीतर से खाली हो, जिसकी सत्ता, ताकत, स्वीकृति किसी पद की मोहताज हो, वह उस पर येन केन प्रकारेण, अधिक से अधिक वक्त बैठा रहना चाहता है। ज्यादा जीना चाहता है, ज्यादा भोगना चाहता है।
तो वो आमरण राजा होना चाहता है। अंततः किसी सर्द रात, अपने ही मल मूत्र में डूबा हुआ, स्टालिन की तरह मदद को कराहते, यह दुनिया छोड़ जाता है।
उसकी यहां जरूरत नही थी। तो दुनिया उसके जाने से राहत महसूस करती है।
उस पर मुकदमा, उसके जाने के बाद शुरू होता है। ताकत का भूखा, निर्लिप्त तानाशाह भी इतिहास में भुलाया नही जाता। मगर कभी वो दोबारा लौट आये, ऐसा चाहा भी नहीं जाता।
उधर गांधी, भगत, सुकरात इंसानियत के स्मृतिपटल से कभी नहीं मरते।
अब वो गली गली, मानस मानस खुला घूमते हैं...
हर शख्स के बदन में आकर,थोड़ा थोड़ा रहते हैं...
मगर तानाशाह की आत्मा, दोबारा जीकर लौट न आए.. इस डर से
चिरकाल तक हिरासत में रखी जाती है।
❤️
बड़ा बारीक़ नुक़्ता है अगर समझ पाओ तो,,
सुकरात अगर ज़हर ना पीता तो मर जाता...!!
साभार प्रस्तुति...
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