Monday, 30 December 2024

लीवर हमारे शरीर का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा होता है। यह भोजन पचाने, एनर्जी देने और विषैले पदार्थों को शरीर से बाहर निकालने का पूरी तरह काम करता है। ऐसे में लीवर का स्वस्थ होना बहुत आवश्यक होता है। प्रदूषित वातावरण, गलत खान-पान, सिगरेट और शराब के अत्यधिक सेवन से लीवर में सूजन आ जाती है। ऐसे में कुछ आसान घरेलू उपाय अपनाकर लीवर को स्वस्थ रखा जा सकता है।

लीवर हमारे शरीर का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा होता है। यह भोजन पचाने, एनर्जी देने और विषैले पदार्थों को शरीर से बाहर निकालने का पूरी तरह काम करता है। ऐसे में लीवर का स्वस्थ होना बहुत आवश्यक होता है। प्रदूषित वातावरण, गलत खान-पान, सिगरेट और शराब के अत्यधिक सेवन से लीवर में सूजन आ जाती है। ऐसे में कुछ आसान घरेलू उपाय अपनाकर लीवर को स्वस्थ रखा जा सकता है।


लीवर खराब होने के लक्षण 

पेट में सूजन : जब भी पेट में अत्यधिक सूजन आती है तो यह लीवर खराब होने का संकेत होता है।

मुंह से दुर्गंध आना : कभी कभी मुँह की सफाई करने के बाद भी अगर मुँह से पूरी तरह बदबू आती है तो यह भी लीवर के खराब होने का गंभीर संकेत होता है।

पाचन क्रिया खराब होना : जब कभी भी खाना खाने के बाद अगर पेट में कोई गंभीर समस्या होती है, तो यह लीवर खराब होने का संकेत होता है।

चेहरे और आंखों में पीलापन : अगर आपके चेहरे पर पीलापन दिखाई दे तो यह भी लीवर के खराब होने का संकेत होता है।

यूरिन का रंग बदलना : पेशाब का रंग भी अगर थोड़ा डार्क या हल्का होता है तो यह भी लीवर के खराब होने का गंभीर संकेत होता है।


लीवर को ठीक करने के घरेलू उपाय :

गाजर का जूस : लीवर की सूजन को पूरी तरह कम करने के लिए रोजाना गाजर का जूस पीएं। इसके अलावा गाजर जूस में पालक जूस मिलाकर भी सेवन कर सकते हैं।

मुलेठी : इसके लिए मुलेठी को अच्छी तरह पीसकर पाउडर बना लें और इसे पानी में उबालें। जब पानी ठंडा हो जाए तो इसे छान कर पूरी तरह पी लें। इससे लीवर की सूजन और गर्मी पूरी तरह दूर होगी।


सेब का सिरका : लीवर की सूजन को पूरी तरह कम करने के लिए 1 चम्मच सेब के सिरका और 1 चम्मच शहद को 1 गिलास पानी में अच्छी तरह मिलाकर पीएं। इससे शरीर से विषैला पदार्थ पूरी तरह बाहर निकलेंगे और सूजन कम होगी।

नींबू : इसके लिए 1 गिलास पानी में 1 नींबू का रस और थोड़ा-सा सेंधा नमक मिलाकर पीने से भी बहुत अधिक फायदा होता है। दिन में दो-तीन बार इसका सेवन करने से लीवर की गर्मी पूरी तरह दूर होती है।

छाछ : 1 गिलास छाछ में काली मिर्च, हींग और भूना जीरा डालकर भोजन के साथ अवश्य पीएं। इससे लीवर की सूजन और गर्मी पूरी तरह दूर होगी।


लिवर को स्वस्थ रखने का आयुर्वेदिक उपाय :

आवश्यक सामग्री : भृंगराज, भूमि-आंवला, तुलसी पत्र, कासनी, हरड़, पुनर्नवा मूल, गिलोय, आंवला, रेवतचीनी, वायविडंग, सारपुखा मूल, पितपापड़ा सत, तालीसपत्र, चित्रक छाल, कर्चूर, नीसोथ, मुलेठी, रोहिडा छाल, मकोय, कसोंदि सत, अर्जुन छाल।

लिवर केयर चूर्ण बनाने और सेवन करने की प्रयोग विधि :

ऊपर दि गयी औषधियों को एक करके बारीक़ पीस ले उसके बाद पुनर्नवारिष्ट की दो भावना देकर सुखाकर रख लीजिए । बस हो गया आपका लिवर केयर चूर्ण तैयार। इस चूर्ण की एक चम्मच को एक कप पानी मे डालकर हिला कर छोड़ दे।

फिर एक घंटे बाद हिलाकर पिये इस तरह दिन मे दो  बार लेने से लिवर कब्ज़ तथा हेपटाइटिस बी इन तीनों बीमारियों से छुटकारा मिल जाएगा।

Thursday, 26 December 2024

आज हम बच्चों को क्रिसमस मनाकर उन्हें पाश्चात्य संस्कृति सिखाकर जोकर बना रहे हैं* साध्वी सरस्वती दीदी*दिलीप अग्रवाल ने कहा, हिंदू धर्म की रक्षा के लिए अधिक से अधिक लड़कियों का विवाह कराना मेरा संकल्प है*रिपोर्ट: रवींद्र आर्य

*आज हम बच्चों को क्रिसमस मनाकर उन्हें पाश्चात्य संस्कृति सिखाकर जोकर बना रहे हैं* साध्वी सरस्वती दीदी

*दिलीप अग्रवाल ने कहा, हिंदू धर्म की रक्षा के लिए अधिक से अधिक लड़कियों का विवाह कराना मेरा संकल्प है*

रिपोर्ट: रवींद्र आर्य

यह रिपोर्ट इंदौर में क्षिप्रा नदी के तट पर आयोजित श्रीमद्भागवत कथा के शुभारंभ और उसके दौरान साध्वी सरस्वती दीदी द्वारा व्यक्त विचारों पर आधारित है। कथा के माध्यम से उन्होंने भारतीय संस्कृति, सनातन धर्म और बच्चों के संस्कारों पर जोर दिया।

जो भारतीय संस्कृति और सनातन धर्म के बारे में जागरूकता बढ़ाने के लिए आयोजित श्रीमद्भागवत कथा से संबंधित है। साध्वी सरस्वती दीदी ने अपने वक्तव्य में बच्चों को पाश्चात्य सभ्यता से प्रभावित होने से बचाने और सनातन धर्म के संस्कारों पर जोर देने की बात कही। उन्होंने चिंता जताई कि क्रिसमस जैसे पाश्चात्य त्योहारों को प्राथमिकता देकर बच्चों को भारतीय संस्कृति से दूर किया जा रहा है।

*क्रिसमस का संदर्भ:*
साध्वी सरस्वती दीदी ने कहा कि बच्चों को भारतीय संस्कृति और सनातन धर्म सिखाने की बजाय उन्हें पाश्चात्य सभ्यता की ओर ले जाया जा रहा है।  उन्होंने इसे बच्चों को "जोकर" बनाने की प्रक्रिया के रूप में देखा और सुझाव दिया कि बच्चों को भगवान राम और योगी पुरुष श्री कृष्ण जैसे महापुरुषों के आदर्शों का पालन करना सिखाया जाना चाहिए।

*सनातन धर्म का महत्व:*
उन्होंने बताया कि सनातन धर्म ने पूरे विश्व को जीने का सही रास्ता दिखाया है और इसके सिद्धांतों का पालन करना आवश्यक है। कथा का उद्देश्य मनोरंजन नहीं, बल्कि मोक्ष प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त करना है। यह मनुष्य के दुख, दर्द और पापों का नाश करती है और मोक्ष प्रदान करती है। जिस कथा को सुनने के लिए देवताओं ने सुखदेव जी से प्रार्थना की, वह कथा स्वर्ण के पुण्य का कारण बनकर हजारों भक्तों के पुण्य को जागृत करती है और साथ ही हमारे देश के भावी बच्चों के विचारों को हिंदू धर्म और सनातन के मूल्यों से जागृत करती है।

*धार्मिक विचार:*
साध्वी दीदी ने कहा कि जब बात "खुदा" की आती है, तो वे उसे भगवान के समान ही मानती हैं। लेकिन जब "खुदाई" (जांच) की जाती है, तो हर जगह भगवान के प्रतीक मिलते हैं।

*कन्याओं का विवाह:*
कथा आयोजक दिलीप अग्रवाल ने हिंदू धर्म की रक्षा के लिए अधिक से अधिक कन्याओं का विवाह करवाने का संकल्प लिया। उन्होंने इस प्रयास के लिए सभी से आशीर्वाद और सहयोग की अपील की।

*कथा की भव्यता:*
आयोजन की शुरुआत क्षिप्रा नदी के पवित्र जल के साथ कलश यात्रा से हुई।
कथा आयोजक दिलीप अग्रवाल एवं धार्मिक परिवार ने व्यास पीठ पूजा कर साध्वी सरस्वती दीदी का नगर में भव्य स्वागत अभिनन्दन कर आरती किया गया। जिसमे कथा का संचालन चेतन उपाध्याय ने किया।

*समापन:*
यह आयोजन न केवल धर्म और संस्कृति के महत्व को समझाने का प्रयास था, बल्कि हिंदू धर्म के मूलभूत सिद्धांतों और परंपराओं को जीवंत रखने का भी एक अवसर था।

लेखक: रविंद्र आर्य 9953510133

Tuesday, 24 December 2024

मस्जिद, मंदिर और देश का वातावरण*#

*मस्जिद, मंदिर और देश का वातावरण*

मस्जिद का अर्थ और महत्व
मस्जिद एक अरबी शब्द है जिसका अर्थ है "सजदा करने की जगह" यानी इबादत के लिए सिर झुकाने का स्थान। इस्लाम में मस्जिद वह इमारत होती है जहां सामूहिक रूप से नमाज अदा की जाती है। यदि किसी मस्जिद में जुमे की नमाज भी होती है, तो उसे "जामा मस्जिद" कहा जाता है। पैगंबर मोहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से जब पूछा गया कि धरती पर सबसे पहले कौन सी मस्जिद बनाई गई, तो उन्होंने बताया, "मस्जिद-ए-हरम" (काबा शरीफ), जो सऊदी अरब के मक्का में स्थित है। इसके बाद दूसरी मस्जिद "मस्जिद-ए-अक्सा" (बैतुल मक़दिस) का निर्माण हुआ, जो यरूशलम में स्थित है। दोनों मस्जिदों के निर्माण में 40 वर्षों का अंतर बताया गया है। कुरान शरीफ की सूरा आले-इमरान (3:96) में कहा गया है कि धरती पर सबसे पहला घर जो इबादत के लिए बनाया गया, वह मक्का में है, जो बरकत वाला और पूरी मानवता के लिए मार्गदर्शक है। यह प्रमाणित करता है कि धरती पर पहली मस्जिद आदम अलैहिस्सलाम के द्वारा मक्का में बनाई गई थी।
मस्जिद निर्माण के नियम
इस्लामी शरीयत में मस्जिद उसे कहते हैं जहां कोई एक व्यक्ति या कुछ लोग अपनी संपत्ति से जिसका वह मालिक हैं मस्जिद के नाम से वक्फ कर दे और उसका रास्ता सार्वजनिक रास्ते की ओर खोलकर आम मुसलमानों को उसमें नमाज अदा करने की इजाजत दे दे। जब एक बार अजान व जमात के साथ उस जगह पर नमाज अदा  कर ली जाए तो वह जगह मस्जिद हो जाएगी। फतावा  दारुल उलूम देवबंद,  किताब उल मस्जिद पृष्ट 635/2 । यदि कोई भूमि विवादित हो या उस पर कई मालिकों का हक हो और उनमें से किसी ने असहमति जताई हो, तो वहां मस्जिद नहीं बनाई जा सकती। अगर जबरदस्ती मस्जिद बना दी गई, तो वह "ग़सब" (अन्यायपूर्ण कब्जे) की मस्जिद कहलाएगी। ऐसी मस्जिद में नमाज अदा करना मकरूह (नापसंद) है। फतवा नंबर 83696 3/B=10/1438। किसी अन्य धर्म के धार्मिक स्थल को तोड़कर मस्जिद बनाना शरीयत के खिलाफ है। कुरान कहता है कि अल्लाह के आदेश में यह शामिल है कि पूजा स्थलों की रक्षा की जाए, चाहे वह सन्यासियों के मठ हों, चर्च हों, यहूदियों के साइनागॉग हों या मुसलमानों की मस्जिदें। । सही बुखारी की हदीस के अनुसार जिसने किसी दूसरे की एक इंच भर जमीन पर कब्जा किया तो आखिरत में उसे उतने हिस्से की सात  जमीनों का तौक उसके गले में पहनाया जाएगा( बुखारी हदीस नंबर  106 ) । कुरान की सूरा तौबा (9:107) में मस्जिद-ए-जिरार का उल्लेख है। यह मस्जिद एक मुनाफिक (अबू आमिर) द्वारा फितना और फसाद फैलाने के इरादे से बनाई गई थी। जब पैगंबर मोहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को इस बारे में पता चला, तो उन्होंने इस मस्जिद को तुड़वा दिया। इससे स्पष्ट होता है कि कोई भी मस्जिद जो समाज में फूट डालने के लिए बनाई गई हो और मुसलमान को उससे नुकसान होने का अंदेशा हो, उसे तोड़ा जा सकता है।
देश की वर्तमान स्थिति और समाधान
आज देश में हिंदू और मुसलमानों के बीच यह विवाद उठाया जा रहा है कि कई मस्जिदें मंदिरों को तोड़कर बनाई गई हैं। यदि प्रमाणों के आधार पर यह सिद्ध हो जाए कि किसी मस्जिद का निर्माण किसी मंदिर को तोड़कर हुआ है, तो शरीयत के अनुसार दो समाधान हैं:
1. आपसी सहमति: संबंधित पक्षों से बातचीत करके उचित मुआवजा देकर मस्जिद को वैध बनाया जाए।
2. भूमि का पुनः हस्तांतरण: यदि सहमति न बने, तो मस्जिद को हटाकर भूमि उसके मूल मालिक को लौटा दी जाए।
शरीयत के अनुसार, जब तक इस तरह के विवादित स्थलों पर मस्जिद बनी रहती है और वहां नमाज अदा की जाती है, वह मकरूह होगी और गुनाह में शुमार होगी।

शांति का रास्ता
देश के मौजूदा माहौल को देखते हुए मुसलमानों से अपील है कि इस्लामी शरीयत और कुरान की शिक्षाओं पर अमल करना चाहिए। यदि किसी स्थान पर विवाद हो, तो ईमानदारी से मामले की जांच और हल के लिए आगे आना चाहिए। और दूसरे खुद हिंदुओं को चाहिए कि वह मुसलमानों में शरिया कानूनों का इतना प्रचार प्रसार करें और बताएं ताकि मुसलमान की खुद अंतर आत्मा जाग जाए और मुसलमान उस जगह को छोड़ने के लिए तैयार हो जाएं जो किसी भी कारण से मंदिर को तोड़कर या जबरदस्ती कब्जा करके मस्जिद बना ली गई है । ध्यान रखें, किसी भी विवाद का शांतिपूर्ण समाधान ही देश में शांति और भाईचारे को बनाए रख सकता है। धर्म के नाम पर हो रहे झगड़े केवल अशांति फैलाते हैं और समाज को कमजोर करते हैं।
निष्कर्ष
देश की मौजूदा स्थिति को देखते हुए हिंदू और मुसलमान दोनों भाइयों से यह गुजारिश है के एक तरफ तो मुसलमान को शरिया के हिसाब से अमल करना चाहिए जिसका इस्लाम आदेश देता है और दूसरे खुद हिंदुओं को चाहिए कि वह मुसलमानों में शरिया कानूनों का इतना प्रचार प्रसार करें और बताएं ताकि मुसलमान की खुद अंतर आत्मा जाग जाए और मुसलमान उस जगह को छोड़ने के लिए तैयार हो जाएं जो किसी भी कारण से मंदिर को तोड़कर या जबरदस्ती कब्जा करके मस्जिद बना ली गई है । क्योंकि जब इस्लाम की शिक्षाओं के आधार पर मुसलमानों की अंतरात्मा को जगाया जाए तो यह बवाल भी पैदा नहीं होगा और देश में शांति भी बनी रहेगी और किसी की जान भी नहीं जाएगी।  वरना आज जिस प्रकार से देश का माहौल बन गया है और निरंतर मीडिया के जरिए और कुछ समाज दुश्मन तत्वों के जरिए बनाया जा रहा है यह देश के लिए बहुत ही खतरनाक है।  हिंदू और मुसलमान दोनों का यह काम है कि अपने धर्म कि शिक्षाओं पर अमल करते हुए झगड़े और अशांति का माहौल न बनाकर एक दूसरे को उसके फर्ज को याद दिलाएं। और यह बताएं कि उनका धर्म क्या इस बात की इजाजत देता है। तभी देश में शांति स्थापित हो सकती है। 
 वैज्ञानिक रूप से यह माना जाता है कि इंसान जब खुद किसी काम को करने के लिए तैयार हो जाता है तो फिर बड़ी से बड़ी ताकत से वह लड़ने के लिए भी तैयार हो जाता है, लेकिन जब कोई काम उसके ऊपर उसकी इच्छा के खिलाफ थोपा जाता है तो वह पूरी ताकत से उसका विरोध करता है। आज देश में हिंदू और मुसलमान की स्थिति यही है कि धर्म के नाम पर झगड़े हो रहे हैं और ताज्जुब की बात यह है कि धार्मिक सिद्धांतों और शिक्षाओं को तोड़कर हो रहा है। दावा धर्म का है और काम अधर्म का किया जा रहा है । यह किसी भी परिस्थिति में देश के लिए बेहतर नहीं है।
फरहत अली खान 
एम ए गोल्ड मेडलिस्ट

Tuesday, 17 December 2024

पथ विक्रेता अधिनियम की अवहेलना करते हुए वाराणसी के अधिकारी नहीं लगने दे रहे ठेले

पथ विक्रेता अधिनियम की अवहेलना करते हुए वाराणसी के अधिकारी नहीं लगने दे रहे ठेले

पथ विके्रता (जीविका संरक्षण व पथ विक्रय विनियमन) अधिनियम, 2014 की धारा 2(1)(ङ) के अनुसार, ’प्राकृतिक बाजार,’ से ऐसा बाजार अभिप्रेत है जहां विक्रेता और क्रेता उत्पादों या सेवाओं के विक्रय और क्रय के लिए पराम्परा रूप से एकत्र होते हैं और जिसे शहरी विक्रय समिति की सिफारिशों पर स्थानीय प्राधिकारी द्वारा उस रूप में अवधारित किया गया है।
लंका, वाराणसी में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय मुख्य द्वार से नरिया मार्ग पर करीब पचास पथ विक्रेता कई दशकों से अपने ठेले लगा रहा हैं। इनके पास 1985 की जब वि.वि. इनसे छह माह का रु. 62 शुल्क लेता था उसकी रसीदें हैं। ये, जो वि.वि. से सटी सीमा दीवार के बाहर ठेले लगाते हैं, सीमा के भीतर सर सुंदरलाल अस्पताल के मरीजों एवं तीमारदारों को जरूरी खाने पीने की चीजें मुहैया कराते हैं। किंतु जबसे नरेन्द्र मोदी वाराणसी से सांसद चुने गए हैं इनके लिए तो जैसे मुसीबत का पहाड़ ही टूट गया है। पहले तो जब मोदी का हेलीकाॅप्टर वि.वि. में उतरता था तो एक हफ्ते के लिए इनके ठेले हटा दिए जाते थे। इससे इनको काफी नुकसान होता था। इनके संगठन गुमटी व्यवसायी कल्याण समिति ने प्रधान मंत्री से हुए नुकसान का मुआवजा भी मांगा। अब जब से जी-20 के कार्यक्रम हुए तब से इनका जीना और भी दूभर हो गया है।
जिला नगरीय विकास अभिकरण के 26 जुलाई 2019 के पत्र में परियोजना अधिकारी ने गुमटी व्यवसाय कल्याण समिति के अध्यक्ष चिंतामणि सेठ को नगर पथ विक्रय समिति का सदस्य दर्शाया है। लंका चैक से नरिया मार्ग को 150 धारण क्षमता वाला विक्रय क्षेत्र भी दर्शाया गया है। चिंतामणि सेठ एवं अन्य पथ विक्रेताओं के पास सर्वेक्षण के बाद जारी किए गए प्रमाण पत्र हैं। इनमें से 54 पथ विक्रताओं को प्रधान मंत्री स्वनिधि योजना के तहत ऋण भी दिए गए हैं। यानी ये पथ विके्रता अपना व्यवसाय वैध तरीके से कर रहे थे।
21 अक्टूबर 2023 को अपर जिलाधिकारी ने, पथ विके्रता अधिनियम 2014 व इस अधिनियम के आलोक में बनाई गई उ.प्र. की नियमावली 2017 के प्रावधानों को नजरअंदाज करते हुए, एक पत्र में लिख दिया कि वि.वि. नरिया मार्ग पर अति विशिष्ट व्यक्तियों की आवाजाही होती है व लंका चैराहे पर भीड़-भाड़ रहती है इसलिए इस मार्ग पर ठेला लगाना प्रतिबंधित है। इसी पत्र के बाद लंका के पथ विके्रताओं पर कहर बरपा है।
पथ विके्रता अधिनियम, 2014 की धारा 3(3) के अनुसार, किसी भी पथ विक्रेता उपधारा (1) के अधीन विनिर्दिष्ट सर्वेक्षण के पूरा होने व सभी पथ विक्रेताओं को विक्रय प्रमाण पत्र जारी होने तक, यथास्थिति, बेदखल या पुनःस्थापित नहीं किया जाएगा।
उपर्युक्त अधिनियम की धारा 18(3) के अनुसार, किसी भी पथ विक्रेता को स्थानीय प्राधिकारी द्वारा विक्रय प्रमाण पत्र में विनिर्दिष्ट स्थान से तब तक पुनःस्थापित या बेदखल नहीं किया जाएगा जब तक कि उसे उसके लिए तीस दिन की सूचना ऐसी रीति में, जो स्कीम में, विनिर्दिष्ट की जाए, न दे दी गई हो।
28 दिसम्बर 2023 को अचानक पुलिस व नगर निगम के अधिकारी आए और बिना कोई सूचना दिए करीब 20 ठेले और उनका सामान जब्त कर लिए गए। पहले भी ठेले जब्त होते थे किंतु कुछ वैध-अवैध जुर्माना लेकर नगर निगम द्वारा पथ विके्रताओं के ठेले छोड़ दिए जाते थे। किंतु इस बार नगर निगम कह रहा है कि पहले पुलिस की अनुमति लेकर वे आएं तब उनके ठेले छोड़े जाएंगे। किसी तरह रु. 1000-1500 लेकर ठैले छोड़े गए। रसीद दी गई है प्लास्टिक का उपयोग करने के जुर्माने की।
उपर्युक्त अधिनियम की धारा 19(2) के अनुसार, पथ विक्रेता, जिसका माल, उपधारा (1) के अधीन अभिगृहीत किया गया है, अपने माल को ऐसी रीति में और ऐसी फीस का, जो स्कीम में विनिर्दिष्ट की जाए, संदाय करने के पश्चात वापस ले सकेगा। परन्तु खराब न होने वाले माल की दशा में, स्थानीय प्राधिकारी, पथ विक्रेता द्वारा किए गए दावे के दो कार्य दिवसों के भीतर माल को छोड़ देगा और खराग होने वाले माल की दशा में, स्थानीय प्राधिकारी, पथ विक्रेता द्वारा किए गए दावे के दिन ही माल को छोड़ देगा।
3 सितम्बर, 2024 को पुलिस ने बर्बरतापूर्वक लाठी चला कर ठेले वालों को पुनः हटा दिया। 9 अक्टूबर को भेलूपुर नगर निगम क्षेत्रीय कार्यालय पर धरने के बाद संयुक्त नगर आयुक्त इस बात के लिए तैयार हुए कि अगले दिन से ठेले लगेंगे किंतु पुलिस ने नहीं लगाने दिए। फिर 14 से 17 अक्टूबर लंका पर जहां ठेले लगते थे वहीं धरना हुआ। तब पुलिस आयुक्त इस बात के लिए तैयार हुए कि पथ विक्रय समिति की अगली प्रस्तावित बैठक 8 नवम्बर तक ठेले लगने दिए जाएं ताकि दुकानादर दीपावली मना सकें। 9 नवम्बर को पुलिस ने पुनः बर्बरतापूर्वक ठेलों को हटा दिया। 11 नवम्बर को सूचना के अधिकार अधिनियम के तहत पूछे गए एक प्रश्न के जवाब में लंका थाना लिखता है कि पुलिस द्वारा कोई उत्पीड़न नहीं किया जा रहा है और वेंडरों की आजीविका के सम्बंध में दायित्व नगर महापालिका एवं अन्य विभागों का है। 22 नवम्बर को पुनः पुलिस आयुक्त से मिलने पर उन्होंने साफ कह दिया कि ट्रैफिक बाधित होने की वजह से ठेले नहीं लगने दिए जा सकते। नगर आयुक्त ने, जो पथ विक्रय समिति के अध्यक्ष के नाते तय कर सकते हैं कि ठेले कहां लगेंगे, ने अपनी असमर्थता जता दी है। ठेले न लग पाने के कारण करीब पचास परिवार भुखमरी के कागार पर हैं।
प्रधान मंत्री तो बड़े-बड़े विज्ञापन लगवा कर रेहड़ी पटरी दुकानदारों के लिए स्वनिधि योजना का श्रेय ले रहे हैं किंतु धरातल पर उन्हीं के संसदीय क्षेत्र में दशकों से ठेला लगा रहे दुकानदारों को उजाड़ दिया गया है। जब प्रधान मंत्री के संसदीय क्षेत्र में यह हो सकता है तो बाकी जगह का क्या हाल होगा इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। भारतीय जनता पार्टी की सरकार की यही विशेषता है - विज्ञापन तो रंगीन हैं लेकिन हकीकत स्याह है।
लेखक- संदीप पाण्डेय सोशलिस्ट पार्टी (इण्डिया) के महासचिव हैं।

इस्लाम में जाति व्यवस्था का प्रचलन: दलित मुसलमानों का दृष्टिकोण

इस्लाम में जाति व्यवस्था का प्रचलन: दलित मुसलमानों का दृष्टिकोण

भारतीय मुसलमानों को एक अखंड, समरूप समुदाय के रूप में देखने की धारणा अक्सर समुदाय के भीतर समृद्ध विविधता और गहरी असमानताओं को अतिरंजित कर देती है। इनमें से, जाति-आधारित स्तरीकरण की उपस्थिति इस्लाम द्वारा बताए गए समतावादी लोकाचार के लिए एक स्पष्ट विरोधाभास के रूप में सामने आती है। विश्वासियों के बीच समानता पर धार्मिक आग्रह के बावजूद, भारतीय मुस्लिम समुदाय उपमहाद्वीप के व्यापक सामाजिक-सांस्कृतिक पदानुक्रमों को दर्शाता है, जो एक जाति व्यवस्था को कायम रखता है जो सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक वास्तविकताओं को निर्धारित करना जारी रखता है।

भारतीय मुसलमानों के बीच जाति व्यवस्था, हालांकि इस्लामी सिद्धांतों द्वारा स्वीकृत नहीं है, लेकिन ऐतिहासिक और सांस्कृतिक कारकों में गहराई से निहित है। भारतीय आबादी के बड़े हिस्से का इस्लाम में धर्मांतरण जाति-आधारित समाज के ढांचे के भीतर हुआ। नतीजतन, पहले से मौजूद सामाजिक पदानुक्रम को इस्लामी सामाजिक व्यवस्था में समाहित हो गए, जिससे एक जटिल स्तरीकरण बना जो आज भी कायम है। इस जटिल स्तरीकरण के सबसे निचले पायदान पर अरज़ाल हैं, जिनका स्तरीकरण केवल प्रतीकात्मक नहीं है; यह मूर्त सामाजिक-आर्थिक और सांस्कृतिक असमानताओं में प्रकट होता है। उदाहरण के लिए, अरज़ाल को अक्सर मस्जिदों से बाहर रखा जाता है, उन्हें कब्रिस्तानों में जाने से मना किया जाता है और सामुदायिक स्थानों में अलग-थलग कर दिया जाता है, जो सार्वभौमिक भाईचारे के इस्लामी सिद्धांत का सरासर खंडन करता है। मुसलमानों के बीच जाति-आधारित स्तरीकरण का आर्थिक और सामाजिक गतिशीलता पर गहरा प्रभाव पड़ता है। संसाधनों, शिक्षा और अवसरों तक पहुँच की कमी के कारण दलित मुसलमान गरीबी और हाशिए पर होने के दुष्चक्र में फँसे हुए हैं। उदाहरण के लिए, निचली जाति के कई मुसलमान कलंकित, कम वेतन वाली नौकरियाँ करना जारी रखते हैं जो उनकी सामाजिक-आर्थिक हीनता को और मजबूत करती हैं। उनकी आर्थिक कमज़ोरी शिक्षा से वंचित होने के कारण और भी जटिल हो जाती है, जो अंतर-पीढ़ीगत असमानताओं को और भी गहरा कर देती है। सच्चर समिति की रिपोर्ट (2006) ने समुदाय के भीतर आंतरिक स्तरीकरण की सीमा को उजागर किया, जिसमें दिखाया गया कि निचली जाति के मुसलमानों की स्थिति उच्च जाति के मुसलमानों से काफी खराब है। इन निष्कर्षों के बावजूद, मुस्लिम समुदाय के भीतर जाति-संबंधी असमानताओं को अक्सर नीतिगत चर्चाओं में अनदेखा कर दिया जाता है, जिससे उनकी अदृश्यता बनी रहती है। काका कालेलकर आयोग (1955) और मंडल आयोग (1980) ने कुछ मुस्लिम समुदायों को अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के रूप में मान्यता दी, जिससे उन्हें कुछ हद तक सकारात्मक कार्रवाई मिली। हालाँकि, ओबीसी श्रेणी के तहत मिलने वाले लाभ एससी को दिए जाने वाले लाभों से कम हैं, और कई दलित मुसलमान इससे वंचित रह जाते हैं। रंगनाथ मिश्रा आयोग (2007) ने अनुसूचित जाति के दर्जे को धर्म-तटस्थ बनाने की सिफारिश की थी, लेकिन यह प्रस्ताव अभी तक लागू नहीं हुआ है, जिससे दलित मुसलमानों को मताधिकार से वंचित रखा जा रहा है। दलित मुसलमानों को दोहरे भेदभाव का एक अनूठा रूप झेलना पड़ता है, जहाँ उनकी जातिगत पहचान धार्मिक हाशिए पर होने से जुड़ी होती है। वे अक्सर अपने ही समुदाय के भीतर सामाजिक बहिष्कार और कलंक सहते हैं। यह दोहरा उत्पीड़न एक जटिल नुकसान पैदा करता  है।

मुस्लिम समुदाय के भीतर जाति-आधारित भेदभाव को स्वीकार करना समानता के मिथक को खत्म करने और दलित मुसलमानों के सामने आने वाली अनूठी चुनौतियों का समाधान करने के लिए आवश्यक है। नागरिक समाज संगठनों, नीति निर्माताओं और समुदाय के नेताओं को सामाजिक न्याय और समानता को बढ़ावा देने के अपने प्रयासों में इस मुद्दे को प्राथमिकता देनी चाहिए। दलित मुसलमानों की विशिष्ट कमज़ोरियों को दूर करने के लिए लक्षित हस्तक्षेपों की आवश्यकता है, जैसे छात्रवृत्ति, कौशल विकास कार्यक्रम और स्वास्थ्य सेवा और आवास तक पहुँच। मुस्लिम समुदाय के भीतर, धार्मिक नेताओं और विद्वानों को उन जड़ जमाए हुए जातिगत पूर्वाग्रहों का सामना करना चाहिए जो समानता के इस्लामी लोकाचार का खंडन करते हैं। अंतर-समुदाय एकजुटता और समावेशिता को बढ़ावा देने की पहल जाति पदानुक्रम को खत्म करने और अधिक न्यायसंगत सामाजिक व्यवस्था बनाने के लिए महत्वपूर्ण है। भारतीय इस्लाम के भीतर जाति व्यवस्था मुस्लिम समुदाय के समरूप दृष्टिकोण को चुनौती देने और इसकी आंतरिक विविधताओं और असमानताओं को पहचानने की आवश्यकता को रेखांकित करती है। दलित मुसलमानों द्वारा सामना किया जाने वाला जड़ जमाया हुआ भेदभाव गहरी जड़ें जमाए हुए सामाजिक-सांस्कृतिक पदानुक्रमों को दर्शाता है जो धर्म के बावजूद भारतीय समाज में व्याप्त हैं। इन असमानताओं को संबोधित करना न केवल नैतिक अनिवार्यता है, बल्कि सभी नागरिकों के लिए न्याय, समानता और भाईचारे के सिद्धांतों को बनाए रखना एक संवैधानिक कर्तव्य भी है। मुस्लिम एकरूपता के मिथक को तोड़कर ही हम वास्तव में समावेशी समाज की ओर बढ़ सकते हैं।
फरहत अली खान 
एम ए गोल्ड मेडलिस्ट

सावरकर के ‘हिंदुत्व’ को डॉक्टर अम्बेडकर ने सिर्फ असंगत नहीं, देश के लिए खतरनाक भी बताया था!**(आलेख : उर्मिलेश)*

*प्रकाशनार्थ*

*सावरकर के ‘हिंदुत्व’ को डॉक्टर अम्बेडकर ने सिर्फ असंगत नहीं, देश के लिए खतरनाक भी बताया था!*
*(आलेख : उर्मिलेश)*
संसद के शीतकालीन सत्र में ‘संविधान के 75 वर्ष’ के गौरवशाली मौके पर लोकसभा में दो दिनों की बहुत जीवंत बहस हुई। इसमें तमाम तरह के राजनीतिक और वैचारिक मुद्दे उठे। सत्तापक्ष का जोर समसामयिक राजनीतिक मुद्दों पर रहा।

कई विपक्षी नेताओं ने समकालीन राजनीतिक  मुद्दों के अलावा संविधान और राष्ट्र-निर्माण से जुड़े बड़े वैचारिक सवालों को भी उठाया। स्वाधीनता आंदोलन के दौरान और स्वतंत्र भारत में सक्रिय रहे कुछ बड़े नेताओं और विचारकों के योगदान की भी चर्चा हुई।

इस सिलसिले में वी डी सावरकर और डॉक्टर बी आर अम्बेडकर के नाम बार-बार लिये गये। सत्तापक्ष की तरफ से बहस की शुरुआत करते हुए रक्षामंत्री और वरिष्ठ भाजपा नेता राजनाथ सिंह ने सबसे पहले वी डी सावरकर का नामोल्लेख किया। उनका कहना था कि संविधान सभा में कई बड़े नेता शामिल नहीं थे पर संविधान-निर्माण की वैचारिक-प्रक्रिया में उनके योगदान को भी नहीं भुलाया जाना चाहिए। इस सिलसिले में उन्होंने मदन मोहन मालवीय सहित कई लोगों के साथ वी डी सावरकर का भी नाम लिया। 

निस्संदेह, वी डी सावरकर स्वाधीनता आंदोलन के वैचारिक नेताओं में थे। वह आंदोलन में हिंदुत्व की उस धारा का प्रतिनिधित्व करते थे, जिसका मकसद भारत को ‘हिन्दुस्थान’ या ‘हिन्दोस्थान’ के तौर पर एक ‘हिंदू राष्ट्र’ बनाना था। वह बेहद विवादास्पद भी रहे। ब्रिटिश हुकूमत ने उन्हें अंडमान जेल में रखा। अंततः वहां से उन्हें कई माफीनामों के बाद ‘मुक्ति’ मिली। फिर उन्होंने अपने कामकाज को नये ढंग से संयोजित किया और रत्नागिरी में रहते हुए सामाजिक कामकाज पर ज्यादा ध्यान दिया।

1948 में महात्मा गांधी की नृशंस हत्या में अभियुक्त के तौर पर उनकी गिरफ्तारी हुई। लेकिन मुकदमे की सुनवाई के दौरान साक्ष्यों की कमी का उन्हें फायदा मिला और रिहा कर दिये गये। 

वी डी सावरकर के बारे में यह ज़रूर कहा जा सकता है कि वह ‘हिंदुत्व’ की वैचारिकी के शुरुआती प्रतिपादकों में थे। सन् 1923 में उन्होंने हिंदुत्व की अपनी वैचारिकी को व्याख्यायित करते हुए किताब लिखी। उसी पुस्तक का संशोधित-परिवर्द्धित संस्करण 1928 में छपा। वी डी सावरकर को ‘टू नेशन थियरी’ के प्रतिपादक के तौर पर भी जाना जाता है। मो. अली जिन्ना से भी कुछ साल पहले उन्होंने दो राष्ट्रों के अपने विवादास्पद सिद्धांत को सामने लाया था। पर उनका सिद्धांत मोहम्मद अली जिन्ना के पूर्ण विभाजनकारी सिद्धांत से कुछ अलग था।

भारतीय संविधान की ड्रॉफ्टिंग कमेटी के चेयरमैन और विख्यात विचारक डॉ बी आर अम्बेडकर ने दोनों के विभाजनकारी सिद्धांत को सिरे से खारिज किया था। इस मामले में वह गांधी जी की वैचारिकी के कुछ नजदीक दिखाई देते हैं, जिनसे उनका हमेशा वैचारिक संघर्ष जारी रहा। 

अपने इस आलेख में मैंने वी डी सावरकर और बी आर अम्बेडकर के विचारों की रोशनी में दोनों की भारत-राष्ट्र की बिल्कुल अलग संकल्पना को समझने की कोशिश की है। सावरकर ने अपनी दो राष्ट्रों की सैद्धांतिकी को व्याख्यायित करते हुए अनेक मौकों पर बोला और लिखा।

गांधी जी और कांग्रेस के अन्य उदारपंथी नेताओं से अलग एक हिन्दुत्ववादी नेता के तौर पर उनका मानना था कि इंडिया यानी भारत में दो राष्ट्र हैं-हिन्दू और मुस्लिम। ये दोनों अलग-अलग राष्ट्र हैं। यहां तक उनकी सैद्धांतिकी का जिन्ना की सैद्धांतिकी से साम्य है।

लेकिन सावरकर साहब जिन्ना साहब की तरह इंडिया यानी भारत को भौगोलिक रूप से दो अलग-अलग मुल्कों में बांटने के पक्षधर नहीं हैं। वह कहते हैं कि एक ही भौगोलिक इकाई के तहत दोनों राष्ट्र-हिन्दू और मुस्लिम साथ रह सकते हैं। हिंदू महासभा के सन् 1939 में आयोजित कलकत्ता सम्मेलन में सावरकर ने अपने विचारों को सार्वजनिक तौर पर व्याख्यायित किया।

उन्होंने ‘दो राष्ट्रों के अपने सिद्धांत’ को समझाते हुए कहा, ‘स्वराज का तात्पर्य है कि हिंदुओं के लिए उनका अपना स्वराज्य होना चाहिए, जिसमें उनका हिंदुत्व प्रभावी हो, जिस पर गैर-हिंदू लोगों का प्रभुत्व न हो, चाहे वे हिंदुस्तान की सीमा में रहने वाले हों या उसकी सीमा के बाहर।’

अपने स्वराज्य के लिए सावरकर ने दो बातों पर जोर दिया है, अपने देश इंडिया या भारत का नाम हिंदु्स्थान या हिंदोस्थान बनाये रखा जाय। दूसरी बात कि संस्कृत देव-भाषा के रूप में रहे और संस्कृतनिष्ठ हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाया जाय। संस्कृत भाषा को हमेशा ही हमारे हिंदू युवकों के शास्त्रीय पाठ्यक्रम का अभिन्न अंग बनाए रखा जाना चाहिए। 

संस्कृतनिष्ठ हिंदी से सावरकर का तात्पर्य ‘सत्यार्थ प्रकाश’ की भाषा से है जो दयानंद सरस्वती ने लिखी थी। सावरकर ने साफ शब्दों में कहा: "स्वामी दयानंद जी पहले हिंदू नेता थे, जिन्होंने इस विचार को समझते-बूझते हुए निश्चित रूप दिया कि हिंदी ही भारत की सर्व-हिंदू राष्ट्रीय भाषा हो सकती है। ... इस संस्कृतनिष्ठ हिंदी का तथाकथित संकर हिंदुस्तानी से कोई वास्ता नहीं, जिसे वर्धा स्कीम के अंतर्गत बढ़ावा दिया जा रहा है। यह भाषा की विरूपता के सिवाय और कुछ नहीं और इसे सख्ती से दबा दिया जाना चाहिए। ... न केवल यही, बल्कि हमारा यह भी कर्तव्य है कि हर हिंदू भाषा से, चाहे वह प्रांतीय भाषा हो या कोई बोली, अरबी और अंग्रेजी के अनावश्यक शब्दों को जोरदार ढंग से निकाल दिया जाए।"

सावरकर के भाषा सम्बन्धी विचार न सिर्फ गांधी-नेहरू-पटेल-सुभाष बोस आदि की भाषा सम्बन्धी समझ के बिल्कुल उलट हैं अपितु समूचे दक्षिण भारत और पूर्वोत्तर के लोगों की सोच और मिजाज के विपरीत हैं। उन्होंने अपने भाषण में में जिस वर्धा-स्कीम का उल्लेख किया है, वह गांधी जी से प्रेरित हिन्दुस्तानी भाषा के विकास का प्रकल्प है।

इसी तरह सावरकर की राष्ट्र सम्बन्धी धारणा स्वाधीनता आंदोलन के सभी प्रमुख नेताओं की वैचारिकी के ठीक उलट है। अहमदाबाद के हिन्दू महासभा सम्मेलन (1937) में उन्होंने अपनी धारणा को इन शब्दों में पेश किया- "हमें अप्रिय तथ्यों का बहादुरी से सामना करना चाहिए’। ... आज हिंदुस्तान को एकात्मक और समजातीय राष्ट्र नहीं कहा जा सकता बल्कि इसके ठीक विपरीत यहां हिंदू और मुस्लिम दो प्रमुख राष्ट्र हैं।" श्री सावरकर की दो राष्ट्रों की चर्चित सैद्धांतिकी का यही सार-संक्षेप है। इस विषय पर उन्होंने काफी विस्तार से लिखा है। 

डॉ बी आर अम्बेडकर ने उसी दौर में सावरकर की इन तमाम धारणाओं और सैद्धांतिकियों को सिरे से खारिज किया। ‘पाकिस्तान का हिंदू विकल्प’ शीर्षक अपने लंबे आलेख में बाबा साहेब ने लिखा -- "यह बात सुनने में भले ही विचित्र लगे पर एक राष्ट्र बनाम दो राष्ट्र के प्रश्न पर श्री सावरकर और श्री जिन्ना के विचार परस्पर विरोधी होने के बजाय एक-दूसरे से पूरी तरह मेल खाते हैं। ... दोनों ही इस बात को स्वीकार करते हैं और न केवल स्वीकार करते हैं अपितु इस बात पर जोर देते हैं कि भारत में दो राष्ट्र हैं-एक मुस्लिम राष्ट्र और एक हिंदू राष्ट्र। उनमें मतभेद सिर्फ इस बात पर है कि इन दोनों राष्ट्रों को किन शर्तों पर एक-दूसरे के साथ रहना चाहिए। ... जिन्ना कहते हैं कि हिंदुस्तान के दो टुकड़े कर देना चाहिए-पाकिस्तान और हिंदुस्तान। मुस्लिम कौम पाकिस्तान में रहे और हिंदू कौम हिंदुस्तान में। दूसरी ओर सावरकर इस बात पर जोर देते हैं कि यद्यपि भारत में दो राष्ट्र हैं पर हिंदुस्तान को दो भागों में-एक मुस्लिमों के लिए और दूसरा हिंदुओं के लिए, नहीं बांटा जायेगा। ... ये दोनों कौमें एक ही देश में रहेंगी और एक ही संविधान के अंतर्गत रहेंगी। यह संविधान ऐसा होगा, जिसमें हिंदू राष्ट्र को वह वर्चस्व मिले, जिसका वह अधिकारी है और मुस्लिम राष्ट्र को हिंदू राष्ट्र के अधीनस्थ-सहयोग की भावना से रहना होगा।"

बाबा साहेब सावरकर को उद्धृत करते हुए उनके इन विचारों की धज्जियां उड़ाते हैं, (बाबा साहेब डॉ अम्बेडकर, संपूर्ण वांग्मय, खंड-15, पृष्ठ-132-33)। 

बाबा साहेब ने सावरकर के इस विचित्र दो राष्ट्र की थीसिस को खारिज करते हुए कहा कि बहुत सारे लोगों को लग सकता है कि सावरकर ‘हिंदू और मुस्लिम इन दो राष्ट्रों’ को एक ही राष्ट्रीय-भूभाग में रहने की बात करके कुछ बिल्कुल नयी धारणा या थियरी पेश कर रहे हैं। पर यह भी नकल है।

बाबा साहेब ने कहा। --"श्री सावरकर को यह श्रेय भी नहीं दिया जा सकता कि उन्होंने कोई नया फार्मूला ढूंढ निकाला है। उन्होंने स्वराज की अपनी योजना को पुराने आस्ट्रिया और पुराने तुर्की के नमूने और ढांचे पर आधारित किया है। ... उन्होंने देखा कि आस्ट्रिया और तुर्की में एक बड़े राष्ट्र की छाया में अन्य छोटे राज्य रहते थे, जो एक विधान से बंधे हुए थे और उस बड़े राष्ट्र का छोटे राष्ट्रों पर प्रभुत्व रहता था। फिर वह तर्क देते हैं कि आस्ट्रिया या तुर्की में यह संभव है तो हिंदुस्तान में हिंदुओं के लिए वैसा करना क्यों संभव नहीं?"

सावरकर की उक्त टिप्पणी को उद्धृत करते हुए डॉ. अम्बेडकर उसकी अव्यावहारिकता और विफलता पर लिखते हैं -- "यह बात वास्तव में बड़ी विचित्र है कि श्री सावरकर ने पुराने आस्ट्रिया और पुराने तुर्की को (अपने विचार-प्रतिपादन के लिए) नमूने या आदर्श के रूप में पेश करते हैं। ... ऐसा लगता है कि श्री सावरकर को शायद यह नहीं मालूम कि अब पुराना आस्ट्रिया या पुराना तुर्की बचे ही नहीं। वह नमूना नहीं रहा। शायद उन्हें उन ताकतों का तो बिल्कुल ही नहीं पता जिन्होंने पुराने आस्ट्रिया और पुराने तुर्की के टुकड़े-टुकड़े कर दिये।" (संपूर्ण वांग्मय, खंड-15, पृष्ठ-134)।

बाबा साहेब कहते हैं कि "सावरकर के ऐसे विचार यदि विचित्र नहीं तो तर्कहीन ज़रूर हैं। सावरकर मुस्लिमों को एक अलग राष्ट्र ही नहीं मानते, वे यह भी मान लेते हैं कि उन्हें सांस्कृतिक स्वायत्तता का अधिकार भी है। उन्हें अपना पृथक ध्वज रखने की भी अनुमति देते हैं। ... पर इन सबके बावजूद वह मुस्लिमों को अलग कौमी वतन की अनुमति नहीं देते। यदि सावरकर हिंदुओं को एक राष्ट्र मानते हुए उन्हें एक अलग कौमी वतन की अनुमति देते हैं तो मुस्लिमों को एक अलग राष्ट्र के साथ अन्य अधिकारों को देने के बावजूद अलग कौमी वतन पाने की अनुमति क्यों नहीं देना चाहते?"

डॉ. अम्बेडकर ने सावरकर के ऐसे विचारों को न सिर्फ असंगति-पूर्ण अपितु भारत की सुरक्षा के लिए खतरा भी बताया। उन्होंने लिखा है -- "यदि श्री सावरकर की एकमात्र गलती उनके विचारों और तर्कों की असंगति होती तो ये कोई बहुत चिंता का विषय नहीं होता। ... परन्तु अपनी योजना का समर्थन करके वह भारत की सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा पैदा कर रहे हैं।" (पृष्ठ-133-34)।

अम्बेडकर ने बहुत विस्तार से लिखा है कि सावरकर के ऐसे विचार और बेतुके तर्क भारत की एकता और सुरक्षा के लिए क्यों और कैसे बहुत खतरनाक हैं! हिंदू और मुस्लिम, दोनों को अलग-अलग राष्ट्र बताते हुए भी दोनों को एक ही देश में रखने की बात करने की क्या व्याख्या हो सकती है! ये विचार बेतुके ही नहीं, खतरनाक भी हैं। 

इस तरह बाबा साहेब बी आर अम्बेडकर ने अपने लंबे आलेख में ‘हिंदुत्व के सबसे प्रखर विचारक’ बताये जाने वाले वी डी सावरकर के विचारों और तर्कों के अलावा उनकी पूरी समझ को ठोस तथ्यों और तर्कों के साथ खारिज किया है।

बाबा साहेब ने यह सब सावरकर के सक्रिय जीवनकाल में ही लिखा है। पर सावरकर कभी भी बाबा साहेब के इन अकाट्य तर्कों और तथ्यों का प्रतिकार नहीं कर सके। 
*(उर्मिलेश दिल्ली स्थित पत्रकार-लेखक हैं। वह राज्यसभा टीवी(RSTV) के कार्यकारी संपादक रह चुके हैं।)*

Monday, 16 December 2024

ऊपर वाले का और सिर्फ लखनऊ वाले ही नहीं, दिल्ली वाले ऊपर वाले का भी लाख-लाख शुक्र है कि संभल में खुदाई चल रही है। बल्कि खुदाई से ज्यादा ढुंढाई चल रही है। आखिर, कुछ तो मिलना चाहिए। अब बेचारे लखनऊ और दिल्ली के ऊपर वाले भी क्या करें? खुदाई-वुदाई पर तो सुप्रीम कोर्ट ने कम-से-कम अभी तो रोक लगा दी है। खुदाई छोड़िए, सुप्रीम कोर्ट वालों ने तो सर्वे तक पर रोक लगा दी है। और सिर्फ संभल में ही नहीं, बाकी हर जगह भी सर्वे तक के आदेशों पर तब तक के लिए रोक लगा दी है, जब तक बड़ी अदालत का अगला आदेश नहीं आ जाता है। सच पूछिए, तो शुरू-शुरू में तो संभल का प्रशासन भी इस फरमान से कुछ हैरान-परेशान सा हो गया। शाही मस्जिद तो मस्जिद, उसके आस-पास के इलाके में भी, योगीशाही हाथ-पांव समेट कर बैठ गयी। पर ज्यादा-से-ज्यादा दो दिन। तीसरे दिन तो बुलडोजर बाबा के बुलडोजरों ने बाकायदा मोर्चा संभाल ही लिया।

*प्रकाशनार्थ*

*राजेंद्र शर्मा के तीन व्यंग्य*

*1. हलाल या झटका– तेरा क्या होगा रे जनतंत्र!* 
     
वैसे ये भी अच्छा ही है कि मोदी जी जोर का झटका धीरे से लगाने में विश्वास करते हैं। वन नेशन, वन इलेक्शन का ही देख लीजिए। मोदी जी चाहते तो एक ही झटके में वन नेशन नो इलेक्शन कर सकते थे। कर सकते थे कि नहीं कर सकते थे! था कोई उनका हाथ पकड़ने वाला। संसद में अच्छा-खासा बहुमत है। राष्ट्रपति, मोदी जी जहां कहें, वहीं मोहर लगाने को तैयार हैं। न्यायपालिका बटुए में न सही, जेब में तो जरूर है। विरोध करने वालों के मुंह बंद कराने के लिए ईडी से लेकर सीबीआई, एनआईए तक और नये राजद्रोह कानून से लेकर यूएपीए तक, सारे पुख्ता इंतजामात हैं। मीडिया, गोदी में सवार है। और क्या चाहिए था। 

मगर नहीं किया। एक झटके में वन नेशन मैनी इलेक्शन से वन नेशन नो इलेक्शन नहीं किया। सिर्फ मैनी इलेक्शन से वन इलेक्शन किया; जिससे झटका भले जोर का हो, पर धीरे से लगे। 

इसका मतलब यह नहीं है कि मोदी जी के न्यू इंडिया की प्रगति एक इलेक्शन पर ही रुक जाएगी। आएगा, वन नेशन नो इलेक्शन का भी नंबर आएगा। राम जी ने चाहा, तो जल्द ही आएगा। पर तब तक वन नेशन में वन इलेक्शन। पहले ही कहा, मोदी जी जोर का झटका धीरे से लगाने में विश्वास करते हैं।

वैसे ऐसा भी नहीं है कि मोदी जी हमेशा झटका, धीमे से लगाने में ही विश्वास करते हों। तब तो हलाल का मामला हो जाता और मोदी जी को मुसलमानों के साथ अपना नाम जोड़ा जाना जरा भी पसंद नहीं है। आखिर, मोदी जी के राज में हलाल के सबसे बड़े विरोधी तो उग्र शाकाहारी हिंदू ही हैं। उनकी भावनाओं का आदर तो मोदी जी को भी करना ही पड़ता है। यानी मोदी जी झटके की तरह झटका करना भी बखूबी जानते हैं, हालांकि वह खुद शुद्ध से भी शुद्ध शाकाहारी हैं। 

2002 में गुजरात में क्या हुआ था, भूल गए क्या ? गोधरा में रेल के डिब्बे में आग लगने के बाद, हफ़्तों पूरे गुजरात में हुआ था, उसे हलाल तो किसी भी तरह से नहीं कह सकते हैं। या नोटबंदी में जो हुआ था, उसे? था तो वह भी झटके का ही मामला। एक ही झटके में लोगों को बैंकों की लंबी-लंबी लाइनों में लगा दिया था। और कोरोना काल में भी लॉकडाउन किसी झटके से कम नहीं था। लाखों मजदूरों को पांव-पांव अपने गांव लौटने के लिए, बड़े-छोटे तमाम शहरों से बाहर धकेल दिया गया। रास्ते में पुलिस के डंडे खाए, सो ऊपर से। और तो और, रफाल मामले तक में मोदी जी ने सालों में हुए खरीद के समझौते का झटका कर दिया और छोटे अंबानी के पुंछल्ले वाला, अपना नया सौदा आगे कर दिया।

लेकिन, इस सब का मतलब यह भी नहीं है कि मोदी जी की ज्यादा प्रैक्टिस झटका करने की ही है; कि वन नेशन वन इलेक्शन के मामले में पहली ही बार वह इसका ख्याल रख रहे हैं कि जोर का झटका धीमे से लगे। मोदी जी ने साथ चलाते-चलाते शिव सेना के साथ क्या किया था? अकाली दल के साथ भी। और तेलुगू देशम के साथ। बीजू जनता दल के साथ। अजित सिंह के लोक दल के साथ। और तो और नीतीश बाबू के जदयू के साथ भी। 

हलाल अगर मुसलमानों के साथ चिपकने की वजह से वर्जित नहीं हो गया होता, तो मोदी जी हलाल के भी मास्टर कहलाते। और हलाल का सलूक सिर्फ साथ चलने वाली राजनीतिक पार्टियों तक ही सीमित नहीं था। कश्मीर के मामले में तो मोदी जी ने एक के बाद एक, हलाल और झटका, दोनों ही आजमा डाले। पहले, महबूबा के साथ सरकार में बैठकर उसी डाल पर धीरे-धीरे आरी चलाते रहे, जिस पर बैठे थे। और जब डाल करीब-करीब कट गयी तो, एकदम से डाल से नीचे कूद गए। और गेयर बदलकर डाल को झटके से हलाल कर दिया। फिर भी हो सकता है, मोदी जी का झटके का ही स्कोर ज्यादा बैठे। मध्य प्रदेश, कर्नाटक, महाराष्ट्र, उत्तराखंड आदि में विरोधी सरकारों के विधायक खरीद-खरीद के जो झटका किया है, उसे भी तो हिसाब में लेना पड़ेगा।

सच्ची बात तो यह है कि मोदी जी ने इस मामले में विपक्ष वालों को पूरी तरह से कंफ्यूज कर के रखा हुआ है। बेचारे समझ ही नहीं पा रहे हैं कि मोदी जी देश के संविधान के साथ जो कर रहे हैं, उसे हलाल कहेंगे कि झटका। उन्हें कभी लगता है कि संविधान को हलाल किया जा रहा है और कभी लगता है कि झटका किया जा रहा है। अलबत्ता वन नेशन नो इलेक्शन हो जाता, तो फिर भी विपक्ष वालों को कम से कम कुछ क्लेरिटी तो मिल जाती कि संसदीय जनतंत्र का झटका हो रहा है। लेकिन, उसमें भी मोदी जी ने मामला वन इलेक्शन पर अटका दिया। अब इसे संसदीय जनतंत्र का झटका होना, कहें भी तो कैसे कहें? अब तक कई चुनाव थे, अब एक चुनाव है; फिर भी चुनाव तो है! इसे जनतंत्र का झटका होना कहें भी तो कैसे?

तो क्या जनतंत्र का गला अब भी धीरे-धीरे ही रेता जाएगा—हलाल! हलाल की तोहमत लगवाना मोदी जी को हर्गिज मंजूर नहीं होगा। तभी तो वन इलेक्शन में, मोदी जी ने एक तत्व झटके का भी रखा है। वन नेशन की तुक वन इलेक्शन से बखूबी मिलती तो है, पर वन इलेक्शन में ज्यादा जोर वन पर ही है, इलेक्शन पर नहीं। बेशक, वन इलेक्शन की इजाजत तो होगी, पर यह वन इलेक्शन बार-बार यानी मिसाल के तौर पर हर पांच साल पर हो ही, इसकी कोई गारंटी नहीं है। एक देश है, एक चुनाव है, एक सरकार है, बस। देश क्या हर पांच साल पर बदलता है? नहीं ना। तब हर पांच साल पर सरकार के लिए ही चुनाव कराए जाने की क्या जरूरत है? एक बार चुनाव हो गया, तो हो गया। एक बार सरकार चुन गयी, तो चुन गयी। यानी वन नेशन वन इलेक्शन वह पुल है, जिस से गुजर कर वन नेशन, नो इलेक्शन तक पहुंचा जाना है। यह वह पुल है, जिसके एक ओर संविधान का हलाल किया जाना है और दूसरी ओर झटका। यह पुल, हलाल और झटके को जोड़ने वाला पुल है। यह पुल, संविधान, जनतंत्र, सब को बीच से तोड़ने वाला पुल है। यह पुल इसकी गारंटी का पुल है कि आज अगर संविधान को धीरे-धीरे खोखला किया जा रहा है, तो कल उसे झटके से तोड़ भी दिया जाएगा। हां! अगर पब्लिक ही मोदी जी का खेल बिगाड़ने पर उतर आए, तो बात दूसरी होगी।   
**********

*2. इट इज बहुतै डिफरेंट!*
      
ये लो कर लो बात। मोदी जी की पार्टी और उनकी सरकार ने बांग्लादेश के हिंदुओं के दु:ख-दर्द की जरा सी सुध क्या ले ली, इन सेकुलर वालों के पेट में दर्द शुरू हो गया। बांग्लादेश पड़ौसी सही, पर ये मामला तो अंतर्राष्ट्रीय हुआ। पर पट्ठों ने उसमें भी हिंदुस्तान को घुसा दिया ; जबकि बात-बेबात हरेक चीज में भारत को घुसाने के लिए, बेचारे संघी बेकार में बदनाम हैं। कह रहे हैं कि बांग्लादेश के अल्पसंख्यकों की सुध ली, बड़ा अच्छा किया, पर अपने देश के अल्पसंख्यकों की सुध कब लीजिएगा, हुजूर! बांग्लादेश के अल्पसंख्यकों से मोहब्बत, अपने देश के अल्पसंख्यकों को दुत्कार, यह तो अन्याय है सरकार!

मोदी जी की पार्टी वाले गलत नहीं कहते हैं -- ये सेकुलर वाले मुसलमानों से मोहब्बत करते हों या नहीं करते हों, पर हिंदुओं से नफरत जरूर करते हैं। तभी तो उन मोदी जी के हरेक काम में नुक्स निकालते हैं, जो हिंदुओं को बचाने में जुटे हुए हैं, हिंदुस्तान तो हिंदुस्तान, दूसरे देशों में भी। और मोदी पार्टी यह भी झूठ नहीं कहती है कि हिंदू खतरे में हैं ; सिर्फ हिंदुस्तान में ही नहीं बांग्लादेश वगैरह में भी। सच पूछिए तो हिंदुओं के खतरे में होने को, मोदी-योगी आदि के राज से जोडऩा भी सरासर ज्यादती है। वर्ना बांग्लादेश में तो मोदी जी-योगी जी का राज नहीं है, वहां हिंदू खतरे में कैसे हैं? हिंदुओं के खतरे में होने का कारण है, जॉर्ज सोरेस। जॉर्ज सोरेस है, तो अडानी खतरे में है। अडानी खतरे में है, तो मोदी जी खतरे में हैं। मोदी जी खतरे में हैं, तो हिंदू खतरे में है। हिंदू खतरे में है, हिंदुस्तान तो हिंदुस्तान, बांग्लादेश में भी।

और हां, कम से कम हिंदुओं को यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि बांग्लादेश में तो हिंदू अल्पसंख्यकों पर अत्याचार हो रहे हैं, पर भारत में मुस्लिम अल्पसंख्यकों पर कोई अत्याचार-वत्याचार नहीं हो रहे हैं। माना कि यहां-वहां लिंचिंग हो रही है, मस्जिदों-मजारों को खोदा जा रहा है, घरों पर बुलडोजर वगैरह चल रहे हैं, खास कानून वगैरह बन रहे हैं, पर अत्याचार...कभी नहीं। हिंदुओं के शब्दकोष में अत्याचार का तो शब्द ही नहीं है। हिंदुस्तान में हिंदू जो कर रहे हैं, डिफरेंट है। बांग्लादेश में हिंदुओं के साथ जो हो रहा है, डिफरेंट है। यहां मुसलमान, वहां हिंदू; इट इज बहुतै डिफरेंट!
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*3. जरा गहरा खोदो भाई*

ऊपर वाले का और सिर्फ लखनऊ वाले ही नहीं, दिल्ली वाले ऊपर वाले का भी लाख-लाख शुक्र है कि संभल में खुदाई चल रही है। बल्कि खुदाई से ज्यादा ढुंढाई चल रही है। आखिर, कुछ तो मिलना चाहिए। अब बेचारे लखनऊ और दिल्ली के ऊपर वाले भी क्या करें? खुदाई-वुदाई पर तो सुप्रीम कोर्ट ने कम-से-कम अभी तो रोक लगा दी है। खुदाई छोड़िए, सुप्रीम कोर्ट वालों ने तो सर्वे तक पर रोक लगा दी है। और सिर्फ संभल में ही नहीं, बाकी हर जगह भी सर्वे तक के आदेशों पर तब तक के लिए रोक लगा दी है, जब तक बड़ी अदालत का अगला आदेश नहीं आ जाता है। सच पूछिए, तो शुरू-शुरू में तो संभल का प्रशासन भी इस फरमान से कुछ हैरान-परेशान सा हो गया। शाही मस्जिद तो मस्जिद, उसके आस-पास के इलाके में भी, योगीशाही हाथ-पांव समेट कर बैठ गयी। पर ज्यादा-से-ज्यादा दो दिन। तीसरे दिन तो बुलडोजर बाबा के बुलडोजरों ने बाकायदा मोर्चा संभाल ही लिया।

अब सुप्रीम कोर्ट के ही एक और फैसले को धता बताते हुए, जमीन से ऊपर दुकानों, मकानों वगैरह पर बुलडोजरी खुदाई शुरू हो गयी। न्याय की देवी की आंखों की पट्टी पहले ही खुल चुकी थी, सो बिना किसी मुश्किल से कपड़ों से पहचान-पहचान कर, मुसलमानों के दुकानों, मकानों पर, जमीन के ऊपर वाली बुलडोजरी खुदाई हुई। और जब बुलडोजर ही मैदान में आ गया, फिर बाकी सरकारी अमला पीछे कैसे रह जाता? जिलाधिकारी की लीडरशिप में शाही मस्जिद के इर्द-गिर्द के इलाके में अतिक्रमणों की खुदाई शुरू हो गयी। इससे मन नहीं भरा, तो मस्जिदों वगैरह पर लाउडस्पीकरों की तलाशी शुरू हो गयी। उससे भी संतोष नहीं हुआ, तो बिजली चोरी की ढुंढाई शुरू हो गयी। आखिरकार, यह गहरी खोज सफल हुई। इस इलाके में भी जमीन के ऊपर खुदाई में एक मंदिर निकल आया, वर्षों से बंद पड़ा मंदिर। रहीम दास जी इसलिए तो सैकड़ों साल पहले कह गए थे -- जिन खोजा तिन पाइयां गहरे पानी पैठ। कहीं भी गहरा खोदोगे, मंदिर मिल ही जाएगा!

जब मस्जिद की बगल में मंदिर मिल गया है, तो क्या मस्जिद के अंदर मंदिर नहीं मिल जाएगा? बस जरा तबियत से खुदाई हो जाए। खैर, जब तक मस्जिद के अंदर मंदिर खोदकर नहीं निकाल लिया जाता है, तब तक मस्जिद की बगल वाला मंदिर सही। इस मंदिर की बस एक ही प्राब्लम है। न उसे किसी ने तोड़ा है, न कोई मंदिर को मस्जिद या मजार जैसा कुछ भी बताता है। मंदिर बस मंदिर है, बंद पड़ा मंदिर। यानी न कोई स्टोरी और न कोई विवाद। ऐसा मंदिर किसी के किस काम का? पर व्हाट्सएप इतिहास में इस मंदिर की भी एक स्टोरी है। मंदिर मुसलमानों के इलाके में है और दसियों साल से बंद पड़ा है ; यानी यह जरूर एक हिंदू मंदिर पर मुसलमानों के जबरन कब्जा करने का मामला है। अभी मंदिर पर ताला लगवाया है, एक दिन वहां मस्जिद या दरगाह भी बना देंगे। वह तो योगी जी का डर है, वर्ना कभी की शाही मस्जिद की बगल में, एक नन्ही सी मस्जिद बन गयी होती। बस इस स्टोरी में एक ही समस्या है। मंदिर जिनकी मिल्कियत का हिस्सा है, वे हिंदू खुद कह रहे हैं कि मंदिर पर ताला उनके परिवार वालों ने लगाया था। करते भी तो क्या करते, मंदिर को चलाने के लिए पुजारी मिलता नहीं है और घर वाला कोई अब वहां रहता नहीं है! पर इस समस्या का समाधान भी निकलेगा। मंदिर की मिल्कियत वालों का बयान भी बदलेगा। बस खुदाई जारी रहे। जरा गहरा खोदो भाई! 
*(व्यंग्यकार वरिष्ठ पत्रकार और 'लोक लहर' के संपादक हैं।)*

पानीपत के तीसरे युद्ध में मराठों और दुर्रानी के बीच टकराव अपरिहार्य लग रहा था। इसके ठीक एक वर्ष पहले, करहाड़े जाति के ब्राह्मणों के एक समूह को मराठा राजवंश के राजा छत्रपति के प्रधानमंत्री पेशवा बालाजी बाजी राव ने उनके पैतृक गांव से भगाया था।

*प्रकाशनार्थ*

*एम.एस. गोलवलकर : ‘निराशा के गुरु!*
*(आलेख : शुभम शर्मा -- धीरेन्द्र के. झा द्वारा लिखित 'गोलवलकर : द मिथ बिहाइंड द मैन, द मैन बिहाइंड द मशीन' की समीक्षा, अनुवाद : संजय पराते)*

पानीपत के तीसरे युद्ध में मराठों और दुर्रानी के बीच टकराव अपरिहार्य लग रहा था। इसके ठीक एक वर्ष पहले, करहाड़े जाति के ब्राह्मणों के एक समूह को मराठा राजवंश के राजा छत्रपति के प्रधानमंत्री पेशवा बालाजी बाजी राव ने उनके पैतृक गांव से भगाया था।
पेशवा के ध्यान में यह बात लाई गई थी कि दशहरा की पूर्व संध्या पर गोलवाली के करहाड़े लोगों ने अपने स्थानीय मंदिर की अधिष्ठात्री देवी को संतुष्ट करने के लिए मानव बलि का जघन्य कृत्य किया था। पेशवा, जो ब्राह्मणों के चितपावन वंश से संबंधित थे, लंबे समय से करहाड़े लोगों के खिलाफ़ द्वेष रखते थे। मानव बलि के प्रकरण ने पेशवा को करहाड़ों पर हमला करने का एक अनूठा अवसर प्रदान कर दिया। पेशवा ने करहाड़ों के 72 गांवों पर वंशानुगत अधिकार रद्द कर दिए। अपने नुकसान से दुखी होकर, बाहर जाने वाले ब्राह्मणों ने पेशवाओं को शाप दिया कि उनकी शक्ति जल्द ही नष्ट हो जाएगी। संयोग से, शाप सच साबित हुआ। पेशवा को पानीपत की तीसरी लड़ाई में अहमद शाह अब्दाली के हाथों हार का सामना करना पड़ा।

गोलवाली के ब्राह्मण इधर-उधर घूमते रहे और उपमहाद्वीप के दूसरे हिस्सों में जाकर बस गए। लगभग 150 साल बाद, विस्थापित करहाड़े परिवार में माधव सदाशिव गोलवलकर का जन्म हुआ। चूंकि हिंदुत्व का इतिहास बदला लेने और प्रतिशोध पर केंद्रित है, इसलिए उम्मीद की जा सकती थी कि गोलवलकर चितपावनों के प्रति प्रतिशोधी रवैया रखेंगे। इसके बजाय, वे चितपावन ब्राह्मण वी.डी. सावरकर के वैचारिक प्रभाव में आ गए, जिन्होंने अपने अनुयायियों को धार्मिक अल्पसंख्यकों पर बंदूकें तानने के लिए प्रेरित किया था, खास तौर पर मुस्लिमों के खिलाफ।

धीरेन्द्र झा ने अपनी पुस्तक 'गोलवलकर: द मिथ बिहाइंड द मैन, द मैन बिहाइंड द मशीन' की शुरुआत गोलवलकर उर्फ गुरुजी से जुड़े मिथकों में से एक को ध्वस्त करने से  की है। झा बताते हैं कि गोलवलकर कभी बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू) में प्रोफेसर नहीं रहे। इसके बजाय, वे एक प्रयोगशाला सहायक थे, जो अस्थायी रूप से खाली पद पर काम कर रहे थे, जिसका स्थायी पदधारक छुट्टी पर था।

तुंरत ही, पाठकों को 2014 के लोकसभा चुनाव की याद आ सकती है, जिसमें नरेंद्र मोदी ने अपनी शैक्षणिक योग्यता के बारे में झूठ बोला था। चूंकि झूठ बोलने की आदत गुरुजी से शुरू होती है, इसलिए शिष्य को माफ किया जा सकता है।

झा लिखते हैं, ‘‘ऐसा लगता है कि गोलवलकर स्वयं को एक बुद्धिजीवी के रूप में देखते थे और इस कारण ही उनके मन में एक दिन प्रोफेसर बनने की महत्वाकांक्षा पैदा हुई होगी... यह एक ऐसा पद है, जो समाज में, विशेष रूप से मध्यम और निम्न मध्यम वर्ग में, सम्मान का पद है ... दुनिया को यह बताकर कि वह कभी ‘प्रोफेसर’ थे, उन्होंने एक विद्वान व्यक्ति के रूप में अपनी  लोकप्रियता बढ़ने की आशा की होगी।’’

नरेंद्र मोदी के दिमाग में भी वह निर्वाचन क्षेत्र था, जो कर-सचेत, महत्वाकांक्षी नव-मध्यम वर्ग से बना है, जिसने वैश्विक लक्ष्यों और स्थानीय दृष्टिकोणों को मिलाने की कला में महारत हासिल कर ली है। एक ऐसा नेता जिसने कभी कॉलेज में पढ़ाई नहीं की, वह भारत को विश्वगुरु (दुनिया का शिक्षक) बनाने के महान कार्य के लिए थोड़ा अयोग्य लग सकता था।

सीमित आर्थिक संसाधनों वाले परिवार में जन्मे गोलवलकर, एक प्रतिभाशाली छात्र नहीं थे, जैसा कि उनके जीवनीकारों ने बताया है। उन्होंने मैट्रिक की परीक्षा द्वितीय श्रेणी से उत्तीर्ण की। अंकों की कमी के कारण वे मेडिकल कॉलेज में दाखिला भी नहीं ले पाए।

बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से विज्ञान स्नातक की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद, गोलवलकर मद्रास चले गए। वहाँ, उन्हें एक अज्ञात परोपकारी व्यक्ति ने डॉक्टरेट की पढ़ाई के लिए छात्रवृत्ति देने का वादा किया था। आश्चर्य की बात यह है कि इस परोपकारी व्यक्ति ने कई महीनों तक गोलवलकर से मुलाकात नहीं की।

उस समय मद्रास जाति-विरोधी राजनीति का गढ़ था। ई.वी. रामास्वामी नायकर ‘पेरियार’ की कलम की स्याही उबाल पर थी, क्योंकि उन्होंने हिंदू धर्म और जाति व्यवस्था की कुछ सबसे तीखी आलोचनाएँ लिखी थीं। इस मुक्तिदायी माहौल को न समझ पाने या उससे खुद को जोड़ पाने में असमर्थ गोलवलकर के भीतर रूढ़िवादिता मजबूत होती चली गई। 9 फरवरी, 1929 को गोलवलकर ने अपने मित्र तैलंग को लिखा, ‘‘मुझे मनुस्मृति में अस्पृश्यता का छोटा-सा भी आधार नहीं मिला है।’’ यह याद रखना चाहिए कि बाबासाहेब बी.आर. अंबेडकर ने 1927 में मनुस्मृति को जलाया था।

गोलवलकर जीवन भर जाति व्यवस्था के प्रबल समर्थक रहे। 1956 में उन्होंने जाति व्यवस्था को ‘मानवीय सुख प्राप्त करने के लिए सर्वोत्तम व्यवस्था और श्रम विभाजन पर आधारित सर्वोच्च और वैज्ञानिक सामाजिक व्यवस्था’ घोषित किया था। 1969 में गोलवलकर की इस टिप्पणी, "जाति व्यवस्था भगवान ने बनाई है और हर किसी को अपनी जाति के अनुसार अपना कर्तव्य करना चाहिए," के खिलाफ बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन हुए। विरोध के कारण राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) की बॉम्बे इकाई को गोलवलकर की यात्रा रद्द करनी पड़ी।

पेशेवर रूप से असफल जीवन ने गोलवलकर को आध्यात्म की ओर अग्रसर किया, जो रूढ़िवादी समाज में सम्मान और कुछ प्रतिष्ठा पाने का एकमात्र तरीका है। उनकी भटकन उन्हें रामकृष्ण मिशन तक ले गई, जो नरेंद्रनाथ दत्त उर्फ स्वामी विवेकानंद द्वारा शुरू किया गया भिक्षुओं का एक संघ था।

मिशन में भी गोलवलकर लगभग असफल रहे। मुख्य मठाधीश स्वामी अखंडानंद ने गोलवलकर को  आध्यात्मिक दीक्षा देने से परहेज किया था। अपने जीवन के अंतिम समय में ही स्वामी अखंडानंद ने गोलवलकर को दीक्षा देने का फैसला किया। दीक्षा को सावधानी से आयोजित किया गया था। स्वामी अखंडानंद ने एक अन्य शिष्य अमृतानंद को गोलवलकर को आश्रम से दूर रखने के लिए कहा था।

निराश गोलवलकर नागपुर, महाराष्ट्र लौट आए। जल्द ही एक ऐसा अवसर आया, जिसने गोलवलकर को गुमनामी की जिंदगी से बाहर निकलने में मदद की। शिकागो में विश्व धर्म संसद में दिए गए स्वामी विवेकानंद के प्रसिद्ध भाषण का अनुवाद करके उन्हें स्थानीय स्तर पर प्रसिद्धि मिली।

इसके बाद गणेश 'बाबाराव' सावरकर (वी.डी. सावरकर के बड़े भाई) की मराठी पुस्तक 'राष्ट्रीय मीमांसा वा हिंदुस्थानचें राष्ट्रस्वरूप' अंग्रेजी में अनुवाद करने के लिए गोलवलकर के पास आई थी। यह किताब युवा सावरकर द्वारा पहले से तैयार की गई नफरत की खाद में डूबी हुई थी। किताब का मुख्य दावा यह था कि भारत हिंदुओं का है, धार्मिक अल्पसंख्यकों का नहीं। किसी अस्पष्ट कारण से, बाबाराव की किताब का अंग्रेजी अनुवाद कभी प्रकाशित नहीं हुआ।

अनुवाद की प्रक्रिया ने गोलवलकर पर गहरा प्रभाव डाला। झा लिखते हैं, "इसके अनुवाद में गोलवलकर की भागीदारी ने हिंदुत्व राजनीति के अभिजात वर्ग में उनके एकीकरण की शुरुआत को चिह्नित किया।" यह भी आश्चर्यजनक है कि विवेकानंद का भाषण, जो हिंदू धर्म के बारे में बहुत ही मानवीय और सहिष्णु दृष्टिकोण प्रस्तुत करने के लिए प्रसिद्ध है, गोलवलकर पर उदार प्रभाव नहीं डाल सका।

आरएसएस का केंद्र तब बना, जब बाबाराव 1924 में नागपुर आए और महल इलाके में रहने लगे। अपने लगभग एक साल के प्रवास के दौरान, बाबाराव रोज़ाना युवाओं (लगभग सभी ब्राह्मण) से मिलते थे। जल्द ही युवाओं का एक समूह उभरा, जिसने हिंदुत्व के लिए अपना जीवन समर्पित करने की कसम खाई।

जब बाबाराव नागपुर से चले गए, तो उन्होंने इस समूह की जिम्मेदारी केशव बलिराम हेगड़ेवार को सौंप दी। सितंबर 1925 में हेडगेवार के नेतृत्व में आरएसएस की स्थापना हुई। गोलवलकर ने जल्द ही अपनी शाखा को आरएसएस में मिला लिया।

झा लिखते हैं कि गोलवलकर की महत्वाकांक्षाएं बढ़ रही थीं, "लेकिन हेडगेवार ने उनके अहंकार को तुरंत संतुष्ट नहीं किया, क्योंकि उनके दिमाग में नेतृत्व की भूमिका के लिए कोई और व्यक्ति था।" वह व्यक्ति गोपाल मुकुंद हुद्दार था। हेडगेवार के दुर्भाग्य से और गोलवलकर के सौभाग्य से हुद्दार को कम्युनिस्टों के साथ मिलकर स्पेनिश गृहयुद्ध (1936) में फासीवादियों के खिलाफ लड़ना पड़ा।

कट्टरपंथी हुद्दार भारत लौट आए और हेडगेवार से ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ लड़ने की अपील की। हेडगेवार का अंग्रेजों से रिश्ता और सांप्रदायिकता के प्रति झुकाव इतना प्रबल था कि उन्होंने अपने पसंदीदा शिष्य की सलाह पर ध्यान नहीं दिया। हुद्दार आगे बढ़े और अंग्रेजों के खिलाफ राजनीतिक युद्ध छेड़ने के लिए भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (भाकपा) में शामिल हो गए और गोलवलकर, हेगड़ेवार के करीब आ गए।

हेगड़ेवार की मृत्यु के बाद, झा ने कई क्रॉस-रेफरेंस के ज़रिए दिखाया है कि गोलवलकर ने खुद को आरएसएस के अगले प्रमुख के रूप में ताज पहनाया था। गोलवलकर अपने अंतिम दिनों में हेडगेवार के करीब रहे थे। इससे उन्हें हेडगेवार की अंतिम इच्छा के बारे में एक अपुष्ट कहानी गढ़ने का मौक़ा मिला कि गोलवलकर को आरएसएस का अगला प्रमुख बनाया जाए।

गोलवलकर ने अपनी पुस्तक 'वी ऑर अवर नेशनहुड डिफाइंड' के माध्यम से आरएसएस के भीतर अपनी जगह पक्की की। 1939 में प्रकाशित यह पुस्तक आरएसएस के स्वयंसेवकों के लिए एक पवित्र पुस्तक बन गई। इस पुस्तक में हिंदुओं को नस्ल के गौरव के मामले में नाज़ियों का अनुसरण करने के लिए प्रेरित किया गया था। इसने मुस्लिमों को एक विदेशी जाति के रूप में चिन्हित कर दिया और नाज़ी जर्मनी में यहूदियों के लिए दिए गए उपायों के समान एक ‘अंतिम समाधान’ सुझाया।

पुस्तक के बाद के अध्यायों में झा ने यह दिखाने के लिए कड़ी मेहनत की है कि गोलवलकर द्वारा इस पुस्तक के लेखक होने से इनकार करना आरएसएस द्वारा फैलाए गए कई झूठों में से एक है। मई 1963 में, वी.डी. सावरकर के अस्सीवें जन्मदिन समारोह की पूर्व संध्या पर, गोलवलकर ने जनता से झूठ बोला था कि 'वी ऑर आवर नेशनहुड डिफाइंड' बाबाराव सावरकर की मराठी पुस्तक 'राष्ट्र मीमांसा' का संक्षिप्त अनुवाद है।

झा बताते हैं कि 1956 में प्रकाशित गोलवलकर की जीवनी के दो लेखक थे : बी.एन. भार्गव और एन.एच. पालकर। उन्होंने लिखा था : हम या हमारा राष्ट्रवाद “राष्ट्रवाद के सिद्धांत की एक अप्रतिम व्याख्या है … जो उनके (गोलवलकर के) सिद्धांत की सत्यता को स्थापित करता है”। उन्होंने यह भी लिखा था, “गोलवलकर ने अपनी पुस्तक में जो लिखा है, वह भारत में अल्पसंख्यकों के प्रश्न को देखने का एकमात्र उचित तरीका है … और केवल यही स्थिर और शांतिपूर्ण राष्ट्रीय जीवन सुनिश्चित कर सकता है।”

भारत में समय-समय पर समझदार और धर्मनिरपेक्ष आवाज़ों ने इस किताब की घृणित सामग्री के बारे में चिंता जताई है। उदाहरण के लिए, 1962 में, बैंगलोर में रहने वाले एक सामाजिक कार्यकर्ता पी. कोडंडा राव ने गोलवलकर को पत्र लिखकर पूछा कि किताब  के बारे में उनके क्या विचार हैं।

तब गोलवलकर ने न तो राव के पत्र की प्राप्ति की पुष्टि की और न ही उसका जवाब दिया। तब राव ने आगे बढ़कर जवाहरलाल नेहरू और लाल बहादुर शास्त्री को पत्र लिखकर उन्हें पुस्तक की सांप्रदायिक प्रकृति से अवगत कराया। उन्होंने पुस्तक के बारे में लोगों को अवगत कराने के लिए कई अंग्रेजी दैनिकों और पत्रिकाओं में लेख भी लिखे।

आरएसएस की पहली बड़ी परीक्षा हेडगेवार के निधन के दो महीने के भीतर ही आ गई। अगस्त 1940 में भारत रक्षा अधिनियम 1939 के तहत सरकार ने अर्ध-सैन्य अभियानों के कामकाज पर प्रतिबंध लगा दिए।

अंग्रेजों का विरोध करने के बजाय, गोलवलकर के नेतृत्व में आरएसएस अपने अंदर ही सिमटकर रह गया और काम करने के लिए सुरक्षित ठिकानों की तलाश करने लगा। हिंदू रियासतें जल्द ही आरएसएस और हिंदुत्व की पारिस्थितिकी तंत्र के लिए प्रजनन स्थल बन गईं। झा बताते हैं कि इन छोटे-मोटे राज्यों और प्रमुख राज्यों में भी, आरएसएस ने शासकों की चापलूसी करने के लिए बदले हुए नामों से काम करना शुरू कर दिया।

उदाहरण के लिए, कोल्हापुर इकाई का नाम राज्य के भूतपूर्व शासक के नाम पर ‘राजाराम स्वयंसेवक संघ’ रखा गया। भोर में, आरएसएस इकाई का नाम ‘रघुनाथराव स्वयंसेवक संघ’ रखा गया, जिसका नाम वर्तमान शासक के नाम पर रखा गया। इससे ऐसा लगता है कि स्वयंसेवकों की सेवा और निष्ठा सस्ते में उन लोगों को उपलब्ध थी, जो इसे खरीदना चाहते थे।

जीर्ण-शीर्ण रियासतों के साथ इस जुड़ाव का एक और पहलू आरएसएस द्वारा उनके अलगाववादी सपनों का समर्थन था। भारत के एकमात्र जाट राज्य भरतपुर के राजा बृजेंद्र सिंह ने एक स्वतंत्र राज्य ‘जाटिस्तान’ का नक्शा तैयार किया था। राजा बृजेंद्र सिंह गोलवलकर के बहुत करीबी थे और 1946 में उन्होंने आरएसएस के संघचालकों (प्रबंधकों) का अखिल भारतीय सम्मेलन बुलाया था। भरतपुर आरएसएस के लिए प्रजनन स्थल के रूप में कार्य करता था। बृजेंद्र के छोटे भाई बच्चू सिंह ने भरतपुर में मुस्लिमों  पर क्रूर हमले किए थे।

स्वतंत्रता की पूर्व संध्या पर जब सांप्रदायिकता के उन्मादी राक्षस ने निर्दोष लोगों की जान लेना शुरू किया, तो आरएसएस और हिंदुत्ववादी तत्व उस राक्षस को खुश करने में जुटे नजर आए। अनुमान है कि उपमहाद्वीप में ब्रिटिश क्षेत्रों के विभाजन के समय, भारत में आरएसएस के लगभग 2,50,000  सदस्य सक्रिय थे। झा ने दिल्ली में हुई हिंसा को बखूबी दर्शाया है। उन्होंने दिखाया है कि कैसे आरएसएस ने पश्चिमी पंजाब से आने वाले हिंदू और सिख शरणार्थियों के गुस्से को भुनाया था।

सितंबर 1947 के पहले हफ़्ते में जब हिंसा भड़की, तो आरएसएस ने इसे संगठित करने में अहम भूमिका निभाई। नेहरू ने हिंसा को रोकने की पूरी कोशिश की, लेकिन वे कांग्रेस के भीतर अकेले ही संघर्ष कर रहे थे, क्योंकि पटेल आरएसएस से सहानुभूति रखते थे और उसके गुंडों को बेलगाम होने की अनुमति दे दी थी।

कांग्रेस के भीतर रूढ़िवादी भावना प्रबल थी। कांग्रेस के रूढ़िवादी नेता एम.एस. अणे ने गोलवलकर की पुस्तक 'वी एंड अवर नेशनहुड डिफाइंड' के पहले संस्करण की प्रस्तावना लिखी थी। गांधी जी की दिल्ली वापसी, पटेल को उनकी फटकार, जनवरी 1948 की शुरुआत में उनकी अनिश्चितकालीन भूख हड़ताल और छात्रों, समाजवादियों, कम्युनिस्टों और धर्मनिरपेक्षतावादियों द्वारा उत्पन्न जनांदोलन ने आरएसएस के नियोजित तख्तापलट को रोक दिया।

गांधी की धर्मनिरपेक्ष दृढ़ता के कारण ही हिंदुत्व की ताकतों ने उनकी हत्या का आह्वान किया था। दिल्ली पुलिस के रिकॉर्ड के माध्यम से झा ने दिखाया है कि रोहतक रोड कैंप में आयोजित एक बैठक में, आक्रामक गोलवलकर ने धमकी दी थी कि “गांधी को भी चुप कराया जा सकता है।" गोलवलकर के भाषण के दो महीने से भी कम समय में गांधी को चुप करा दिया गया। लेकिन गांधी को चुप कराने से आरएसएस को दबना  पड़ा, कम से कम राजनीतिक तौर पर। काली टोपी वालों के सिर पर बहुत लंबे समय तक बदनामी का बिल्ला लटका रहा।

यह किताब गोलवलकर के जीवन को उजागर करने में बहुत आगे तक जाती है। यहां तक कि तटस्थ पाठक भी यह निष्कर्ष निकालेंगे कि वह नफरत के सौदागर के अलावा कुछ नहीं थे, जो धूर्ततापूर्ण गोपनीयता का जीवन जीते थे।

पुस्तक से मेरा पसंदीदा उद्धरण जवाहरलाल नेहरू का है। 2 अक्टूबर, 1947 को गांधी जयंती पर कांग्रेस कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए नेहरू ने कहा था : "मैं भारत को हिंदू राज्य बनाने की मांग का पुरजोर विरोध करता हूं। यह मेरा निजी विचार नहीं है, इसे मेरी सरकार और पूरे कांग्रेस संगठन का समर्थन प्राप्त है।" ... हिंदू राज्य की मांग न केवल मूर्खतापूर्ण और मध्ययुगीन है, बल्कि प्रकृति में फासीवादी भी है। जो लोग ऐसे विचार रखते हैं, उनका हश्र हिटलर और मुसोलिनी जैसा ही होगा।"
शुभम शर्मा 

*(अनुवादक अखिल भारतीय किसान सभा से संबद्ध छत्तीसगढ़ किसान सभा के उपाध्यक्ष हैं। संपर्क : 94242-31650)*

जब न्यायाधीश ही हत्यारों की अगुवाई करने लगे!**(आलेख : महेंद्र मिश्र)*

*प्रकाशनार्थ*

*जब न्यायाधीश ही हत्यारों की अगुवाई करने लगे!*
*(आलेख : महेंद्र मिश्र)*
संविधान ही नहीं, अब समय देश बचाने का है। पिछले दस सालों में इस सरकार ने देश को जो जख्म दिए हैं, अब वे मवाद बनकर फूटने लगे हैं। इलाहाबाद हाईकोर्ट में जस्टिस शेखर यादव की घटना उसी का एक रूप है। न्याय की वेदी पर बैठा एक शख्स, जिसके लिए हर नागरिक न केवल बराबर है, बल्कि समान न्याय का हकदार है, वह खुले आम एक जमात को गाली दे रहा है। वह उन्हें उन शब्दों से नवाज रहा है, जिसको कोई अनपढ़ और अशिक्षित शख्स भी किसी सार्वजनिक स्थान पर बोलने से परहेज करेगा। वह खुलेआम मुसलमानों को कठमुल्ला बोलता है। 

और जो बात इस देश की सरकार भी अभी कहने की हिम्मत नहीं जुटा पा रही है कि यह देश बहुसंख्यकों यानि हिंदुओं के नेतृत्व और उसके इशारे पर चलेगा, उसको वह शख्स बेधड़क कह रहा है। जिस जज को इन सारे मसलों पर सरकार से सवाल पूछना था, वह उस काम को छोड़कर, खुद सरकार के पाले में खड़ा हो गया है। और उससे भी चार कदम आगे बढ़कर हिंदुत्व की अगुवाई कर रहा है। जज से ज्यादा बजरंगदली दिखने की यह फितरत जज महोदय के अपने किसी महत्वाकांक्षी कैरियरवादी गेम प्लान का हिस्सा हो सकता है। लेकिन अपनी हरकतों से उन्होंने न केवल संविधान, बल्कि उसकी पूरी गरिमा को तार-तार कर दिया है। 

उन्हें जस्टिस जैसे शब्द से भी संबोधित करना उस शब्द का अपमान है। वैसे भी उनके भीतर उसका रत्ती भर भी अंश मौजूद नहीं है। न ही वह न्याय का क ख ग जानते हैं और न ही उससे उनका दूर-दूर तक कोई रिश्ता है। अनायास नहीं अपने भीतर जमी वर्षों की घृणा को वह एक ही सांस में बाहर निकाल देते हैं। एक ही मंच पर, एक ही भाषण में उन्होंने वह सब कुछ उगल दिया, जिसके बारे में कोई नफ़रती नेता भी बच-बच कर बोलने का प्रयास करता है। दिलचस्प बात यह है कि वह मंच भी उसी न्यायिक परिसर में स्थित था, जिसमें वह न्याय की कुर्सी संभालते हैं। और इसी मंच से उन्होंने मुसलमानों को कठमुल्ला बोलने से लेकर कॉमन सिविल कोड लागू कराने और हिंदुत्व के बहुमत के मुताबिक पूरे देश को संचालित करने के सारे संघी एजेंडे को सामने रख दिया।

ऐसा नहीं है कि उन्होंने यह बात पहली बार कही है। केवल बाहर मंच पर ही नहीं, अपने न्यायिक फैसलों और टिप्पणियों में भी वह अपनी इसी घृणा को प्रदर्शित करते रहे हैं। इसके पहले भी उन्होंने अपनी एक न्यायिक टिप्पणी में गाय को राष्ट्रीय पशु घोषित करने की बात कही थी और उसकी रक्षा को हिंदुओं का बुनियादी अधिकार बताया था। उनका कहना था कि जब देश की संस्कृति और आस्था पर चोट पहुंचती है, तो देश कमजोर होता है। यह सज्जन कोर्ट की कार्यवाहियों में संविधान, उसकी धाराओं और अनुच्छेदों से ज्यादा मनुस्मृति, वेदों और उसकी ऋचाओं का उल्लेख करते हैं। इससे समझा जा सकता है कि वह किस जेहनियत के शख्स हैं और उनके दिमाग में कोई आधुनिक वैज्ञानिक सेकुलर चेतना नहीं, बल्कि गाय का गोबर भरा हुआ है, जिससे वह राष्ट्र के मानस ही नहीं, बल्कि उसके पूरे भविष्य को ही लीप देना चाहते हैं।

उससे भी ज्यादा अचरज की बात यह है कि वह उस कोर्ट तक पहुंच कैसे गए? एक ऐसा शख्स जो इतने घृणित विचारों के साथ पल रहा हो, क्या उसे देश की उच्च न्यायपालिका में स्थान दिया जा सकता है? वह उस कुर्सी के लायक है, जिसे विक्रमादित्य की पीठ के बराबर का दर्जा हासिल है। कहने को तो सुप्रीम कोर्ट की कोलेजियम पूरी छान-बीन के बाद ही किसी जज की नियुक्ति का फैसला लेती है। इनके केस में फिर क्या हुआ? ऐसा नहीं है कि इस छान-बीन में उनकी शख्सियत और उनके विचारों के बारे में पता न चला हो। ज्यादा संभावना इसी बात की है कि सब कुछ जानते हुए ही यह मक्खी निगली गयी है। और इसको निगलवाने में भी सरकार का ही बहुत बड़ा हाथ रहा होगा। 

पूर्व मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई के नेतृत्व में बनायी गयी कोलेजियम ने इनकी नियुक्ति की हरी झंडी दी थी। और रिटायरमेंट के बाद रंजन गोगोई किस नाले में जाकर गिरे, यह पूरा देश न केवल जानता है, बल्कि उसने अपनी नंगी आंखों से उसको देखा है। न्यायाधीशों की नियुक्तियों में सरकार जिस तरह से सीधे हस्तक्षेप कर रही है, इतिहास में उसकी कोई दूसरी मिसाल नहीं मिलेगी। सत्य, न्याय और सेकुलरिज्म के रास्ते पर चलने वाले जजों की संस्तुति वाली फाइलों को दबा दिया जा रहा है और जस्टिस शेखर जैसे लोगों की ऐन-केन प्रकारेण नियुक्तियां करायी जा रही हैं। यही मौजूदा दौर का सच है और यही इस निजाम की नीति है। 

इन सज्जन के न केवल काम पर तत्काल रोक लगायी जानी चाहिए, बल्कि इनके अब तक के दिए गए सारे फैसलों की फिर से समीक्षा की जानी चाहिए। और उसके साथ ही इनके खिलाफ महाभियोग लाकर इन्हें पूरी न्यायपालिका से अलग कर दिया जाना चाहिए। जिससे इस तरह के लोगों को सबक मिल सके कि जो इस तरह के विचार रखते हैं, उनके लिए न्यायपालिका में कोई स्थान नहीं है। इस घटना से यह बात समझ में आती है कि न्यायपालिकाओं में इस तरह के लोगों की संख्या बढ़ती जा रही है और संख्या और विचार के स्तर पर यह वर्चस्व का रूप लेती जा रही है, वरना कोई इस तरह की हिम्मत नहीं कर पाता। समाज में भी कमोबेश इस तरह के घृणित विचारों की स्वीकारोक्ति है। उसी का नतीजा है कि वह खुली सभा में इस तरह की बातों को बोलने की हिम्मत कर सके।  

जगह-जगह संस्थाओं में अपने आदमियों यानी अपनी विचारधारा के लोगों को बैठाना संघ का पुराना एजेंडा रहा है। और अब जब कि सरकार अपनी है, तो वह शिक्षण संस्थाओं से लेकर न्यायपालिकाओं और नौकरशाही से लेकर निचली दूसरी महत्वपूर्ण संस्थाओं पर पूरी तरह से कब्जा कर लेना चाहती है, जिससे अपने हाइड्रा रूपी इस विस्तार के साथ पूरी व्यवस्था को ही अपनी गिरफ्त में लिया जा सके, जिसका आखिरी नतीजा यह होगा कि विरोध में उठने वाली हर आवाज को अभी तो दबाया जा रहा है, आने वाले दिनों में ऐसा करने वालों की जबान काट ली जाएगी। ऐसे में देश में स्वतंत्रता और आज़ादी का जो मतलब आम नागरिकों के लिए था, वह इतिहास हो जाएगा। इस तरह से देश में गुलामों की नई पौध और पीढ़ी तैयार होगी, जिसे चलने और काम करने के लिए महज एक इशारा ही काफी होगा।

देश में बहिष्करण का जो पूरा अभियान चलाया जा रहा है, वह बेहद खतरनाक है। अभी किसी को लग सकता है कि यह केवल मुसलमानों के खिलाफ केंद्रित है। लेकिन सच्चाई यह है कि यह दलितों, पिछड़ों, आदिवासियों और सारे वंचित तबकों के भी खिलाफ है। यहां तक कि यह मध्य वर्ग के एक बड़े हिस्से को भी उसके दायरे से बाहर कर देगा। और अंत में केवल पांच फीसदी के पक्ष में होगा, जिसमें कॉरपोरेट, उच्च मध्य वर्ग और सवर्ण शामिल होंगे। ब्राह्मणवादी हिंदुत्व और कॉरपोरेट की यह जुगलबंदी पूरे देश पर भारी पड़ने जा रही है।

*(महेंद्र मिश्र 'जनचौक' के संपादक हैं।)*

Saturday, 14 December 2024

ऑस्ट्रेलिया की पहली हाइड्रोजन कार बाजार में आ गई है, जिसे चार्ज होने में सिर्फ 5 मिनट लगते हैं। 5 मिनट में चार्जिंग स्टेशन के अंदर जाना आना भी शामिल है। इस कार ने टैंक फुल होने पर 900 किलोमीटर की यात्रा की और आगे बढ़ने पर हवा को पोल्यूट करने की जगह शुद्ध करती है।

ऑस्ट्रेलिया की पहली हाइड्रोजन कार बाजार में आ गई है, जिसे चार्ज होने में सिर्फ 5 मिनट लगते हैं। 5 मिनट में चार्जिंग स्टेशन के अंदर जाना आना भी शामिल है। इस कार ने टैंक फुल होने पर 900 किलोमीटर की यात्रा की और आगे बढ़ने पर हवा को पोल्यूट करने की जगह शुद्ध करती है।
पहली बार, हाइड्रोजन ईंधन सेल तकनीक को एक वाणिज्यिक कार में सीरियल रूप से लागू किया जा रहा है और सबसे बढ़कर, यह बहुत कम चार्जिंग समय के साथ ऐसी महत्वपूर्ण स्वायत्तता की अनुमति दे रहा है।

इसी तरह हुंडई नेक्सो है, एक छोटी-सिलेंडर वाली कार जो दुनिया की सभी कार निर्माताओं को पीछे छोड़ती है। एक स्थिरता रिकॉर्ड स्थापित करती है, जिसमें 6.27 किलोग्राम हाइड्रोजन चार्ज होता है जो यात्रा के दौरान 449,100 लीटर हवा को शुद्ध करता है (जितना कि 33 लोगों के पूरे दिन में सांस लेने की खपत होती है) और यह आपके एग्जॉस्ट पाइप से सिर्फ़ पानी छोड़ती है।

यह कार कोई CO2 या अन्य प्रदूषणकारी उत्सर्जन नहीं करती है; बस सोचें कि एक समान वाहन, जिसमें पारंपरिक दहन इंजन है, उसी दूरी पर लगभग 126 किलोग्राम CO2 उत्सर्जित करता है।  इस प्रकार हाइड्रोजन इंजन ऑटोमोबाइल बाजार में बहुत जल्द प्रवेश करेगा और दुनिया द्वारा अपनाए जा रहे संधारणीय गतिशीलता समाधानों में इलेक्ट्रिक इंजन के साथ शामिल होने का इरादा रखता है। इस प्रकार हुंडई बाजार के लिए हाइड्रोजन ईंधन सेल वाहन का उत्पादन करने वाली दुनिया की पहली ऑटोमेकर बन जाती है।

जैसे-जैसे ऑटो मेकर इस तरह के इंजनों  की डिमांड  शुरू करेंगे वैसे-वैसे भारत की इकोनॉमिक्स की पौ-बारह होनी तय है। क्योंकि वर्ल्ड में सबसे अच्छे और सबसे सस्ते ।

मृत्यु से पूर्व की अतुल की चेक लिस्ट सामने आई है जिसमें उसने वह सारे कार्य लिखे है जिनके पूर्ण होने के बाद उसे आत्महत्या करनी थी

मृत्यु से पूर्व की अतुल की चेक लिस्ट सामने आई है जिसमें उसने वह सारे कार्य लिखे है जिनके पूर्ण होने के बाद उसे आत्महत्या करनी थी

कहते हैं व्यक्ति आत्महत्या करते वक़्त एक भावनात्मक आवेग में होता है, उस 3 या 4 सेकंड अगर उसका ध्यान भटक जाए या वह उस आवेग को दरकिनार कर दे तो फिर वह आत्महत्या नहीं करता है

वह कुछ सेकंड का जुनून ही किसी व्यक्ति की मृत्यु को कन्फर्म कर सकता है या टाल सकता है

लेकिन अतुल के केस में अतुल ने न केवल अच्छे से तैयारी की बल्कि एक एक चीज को शांति से सोच समझ के प्लान किया जो दिखाता है कि अतुल मानसिक तौर पर उस जुनूनी स्तर को पार करके ऐसी स्टेट में पहुंच चुका था कि उसके लिए ये साम्य अवस्था बन चुकी थी

वह शांत रूप से मौत को गले लगाने के लिए तैयार था, उसका दिमाग स्वीकार कर चुका था कि केवल और केवल यही आखिरी उपाय है

जरा लिस्ट को पढिये

वह किसी को भी बिना परेशान किये या भसड़ मचाये बिना गया, वह सिर्फ अपनी बात बताना चाहता था कि वो कितने कष्ट में है

वह इस सिस्टम से थक चुका था, वह इस सड़े हुए न्याय तंत्र से थक चुका था, वह इस समाज से कट चुका था

काश किसी ने उसका दर्द समझने की कोशिश की होती, काश किसी ने उसकी परिस्थिति को समझा होता

काश किसी ने उसकी तड़पती संवेदनाओं को समझने की कोशिश की होती

इतने दिनों की तैयारी दिखाती है कि वो किस हद तक प्रताड़ित था, लेकिन ये छोटी छोटी बातें ये भी बताती है कि वो नही चाहता था कि उसकी वजह से कोई परेशान हो या किसी का नुकसान हो

ऑफिस का लैपटॉप लौटाने से लेकर किश्तें भरने तक का एक एक काम ये दिखाता है कि अतुल खराब इंसान नही था

अतुल एक मासूम दिल का साफ और सच्चा व्यक्ति था वरना समाज में अपने बीवियों और उनके पूरे परिवार भी साफ कर देने वाले केस है दहेज और उत्पीड़न के केस में फसाये जाने वाले पतियों के

ॐ शांतिः अतुल सुभाष मोदी जी

भगवान आपकी आत्मा को शांति प्रदान करें