आत्मा में नश्वर हड्डी नहीं होती..!
-------------------------------------- हवा में हड्डी नहीं होती।इसीलिए वो बह रही है..सांस ली जा सकती है..!
पानी में हड्डी नहीं होती। इसलिए वो भी बहता रहता है।पिया जा सकता है..!यह विराट पृथ्वी भी बिना हड्डी के अंतरिक्ष में निवास करती है।इसीलिए प्रकृति और पुरुष का निवास स्थान इनमें है।आकाश में भी हड्डियों के कंकाल कहीं दिखाई नहीं देते..इसी वजह से आकाश हर वक्त ठंडा और ताजा रहता है!
पर पृथ्वी पर पांच तत्वों से बने हम मनुष्यों का पूरा शरीर हड्डियों से भरा पड़ा है।बल्कि हड्डियों के कंकाल पर ही मनुष्य की मांसल देह को सूर्य ने हम सबके किये बुना है..ऐसा क्यों है..?एक दिन उसने अपने आराध्य देव सूर्य से पूछा-
“तुम्हारा अवलोकन गलत है।तुम केवल अपनी हड्डियों से झांककर मुझे देख रहे हो।जबकि मैं तुम्हारे भीतर युगों से आत्मस्वरूप बैठा हूँ।आत्मा ही तो तुम्हारा केंद्रीय पुरुष है।उसमें कहाँ हड्डी है..तुम उसके भीतर प्रवेश करके जगत को देखो..तब तुम्हें यह हड्डी कहीं भी दिखाई नहीं देगी..!तुम हड्डियों के ढांचे में घुसकर मुझ पर ताक-झांक करना बंद कर दो..तब तुम भी आत्म स्वर को सुन सकोगे ..!"
"पर पृथ्वी पर हड्डियों का ढांचा-इस मनुष्य में तो आपने ही मुझे खड़ा करके मरने को छोड़ दिया है..!"उसकी आँखों में पानी भर आया था..
"जीव के एवोल्यूशन के लिए यह जरूरी था पुत्र..!पर तुमने ध्यान नहीं दिया..मैंने मनुष्य की जीभ में हड्डी नहीं लगाई है..!"सूर्यदेव ने उसे सचेत किया था..!
"ओह हां... आप ठीक कह रहे हैं..पर यहां आपने ऐसा क्यों किया..?"
उस दिगम्बर प्रश्न ने सूर्य देव से पुनः अपने उत्तर पूछे..!
"इसलिए कि जीभ के रूप में मैंने मनुष्य के मुंह में अपने सौरमंडल की निराकार सौर-आकाशगंगा का ही निर्माण किया है..अगर यह आकाशगंगा मनुष्य के मुख में नहीं होती तो द्वापर में वासुदेव श्रीकृष्ण तुम्हें गीता का ज्ञान कैसे देते..?और कैसे पृथ्वी का ऋषि पृथ्वी पर अजरता और अमरता के वेद मंत्रों को आकाश से उतरते हुए देखकर पहली बार प्रकृति के पुस्तकालयों में बोलकर संरक्षित कर पाता...कैसे श्रीराम अपने वचनों की महिमा का श्रीरामचरितमानस युग मनुष्य को सौंप पाते और कैसे श्रीअरविन्द अपनी वाणी से अतिमानस की प्रथम कोशिका को पृथ्वी की स्मृति में स्थायी रूप से संरक्षित कर पाते पाते...? इसीलिए मैंने जीभ की रचना करते समय उसमें हड्डी नहीं लगाई थी..!”
जैसे ही उस दिगम्बर प्रश्न को अपने प्रश्न का समाधान मिला तो तक्षण वो हड्डियों से भरी देहगुफा में किसी सिंह की तरह जाग उठा!
अब सुबह हो गयी थी..!
उसने अपनी आंख खोली।उसने देखा कि सुबह की देह में अब उसे एक भी हड्डी दिखाई नहीं दे रही थी।आकाश में सूर्य चमक रहा था।पर उसकी किरणों में अब उसे प्रकाश की कोशिकाएं पृथ्वी पर अवतरित होती हुई दिखाई दे रही थी..किरणों में किसी प्रकार की हड्डी का नामों निशान नहीं था।फूलों में,खेतों की लहराती फसलों में,फल और सब्जियां तक में उसे कहीं भी हड्डी दिखाई नहीं थी।पर तभी उसे अपने शरीर के भीतर से रीढ़ की हड्डी की आवाज सुनाई दी-
“सूरजदेव झूठ बोल रहे हैं।सूर्यदेव की वजह से हम तुम्हारे शरीर में आज तक सीधी खड़ी हैं ..आप उनसे पुनःबात करें..?”
उसने सिर उठाकर सूर्य देव की ओर देखा ही था कि वे बोल पड़े-
“हे दिगम्बर आत्मा..तू निराकार ईश्वर को जान!मैंने तेरी रीढ़ की हड्डी के समानांतर कुंडलिनी प्रवाह को प्रवाहित किया है..मेरे साकार स्वरूप मनुष्य को इस प्रवाह में अवश्य प्रवेश करना चाहिए..!देह के पांचों तत्वों में प्रवेश करके ही निराकार ईश्वर को पाया जा सकता है..ध्यान रख..मानसिक विचारों में हड्डी होती है- लेकिन आध्यात्मिक प्रवाहों में हड्डी नहीं होती!आध्यात्मिकता एक आकाशगंगा भरा सौरमण्डलीय प्रवाह है..ठीक उसी तरह ,जिस तरह मेरे सौर मंडल में आकाशगंगा का प्रवाह आज भी तरो-ताजा बह रहा है..बहाव ही सृष्टि में सृजन कर सकता है ..तू भी ऐसा प्रवाह बन..देह में स्थित हड्डियों भरी देह से पृथ्वी पर पदयात्रा मत कर बल्कि मेरी तरह अपनी ही धुरी पर प्रदक्षिणा कर..!खुद के भृमण पर निकल..!अपनी देह की हड्डियों का अतिक्रमण करके ही सूर्यपुत्र बना जा सकता है।पूर्ण मनुष्य बन..दंतपंक्ति मत बन.!
दंतपंक्ति की लाइन से बाहर निकल।दन्तकथाओं की अफवाहों की गुफाओं से मुक्त हो जा..!”
तभी किसी आवाज ने उससे कहा-
“अब उठो..जागने का समय हो गया है..!”
सचमुच वो तब हड्डियों के तालों से unlock हो गया था।अब वो देह की हड्डी से मुक्त होकर अपने शरीर की प्रदक्षिणा पर निकल चुका था..!
-रविदत्त मोहता
(श्रीअरविन्द को समर्पित मनुष्य की यह नई कहानी..)
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