Friday, 25 April 2025

प. रविशंकर ने अपने गुरु की बेटी से विवाह किया। वह तो और भी अपरंपरागत हो गया। इसका मतलब यह है कि वर्षों तक उन्‍होंने इस बात को अपने गुरु से छिपाया। जैसे ही गुरु को इस बात का पता चला वैसे ही उन्‍होंने इसकी अनुमति दे दी। और सिर्फ अनुमति ही नहीं दी, साथ में स्‍वयं इस विवाह का आयोजन भी किया।

प. रविशंकर ने अपने गुरु की बेटी से विवाह किया। वह तो और भी अपरंपरागत हो गया। इसका मतलब यह है कि वर्षों तक उन्‍होंने इस बात को अपने गुरु से छिपाया। जैसे ही गुरु को इस बात का पता चला वैसे ही उन्‍होंने इसकी अनुमति दे दी। और सिर्फ अनुमति ही नहीं दी, साथ में स्‍वयं इस विवाह का आयोजन भी किया। 

उनका नाम अल्‍लाउद्दीन खान था। और ये तो रविशंकर से भी अधिक क्रांतिकारी थे। मैं मस्‍तो के साथ उनसे मिलने गया था। मस्‍तो मुझे अनूठे लोगों से मिलाते थे। अल्‍लाउदीन खान तो उन दुर्लभ लोगों में से अति विशिष्ट थे। मैं कई अनोखे लोगो से मिला हूं, किंतु अल्‍लाउदीन जैसा दूसरा दिखाई नहीं दिया। वे अत्‍यंत वृद्ध थे। सौ वर्ष की उम्र पूरी करने के बाद ही उनकी मृत्‍यु हुई।

जब मैं उनसे मिला तो वे जमीन की और देख रहे थे। मस्‍तो ने भी कुछ नहीं कहा। मेरी समझ में कुछ नहीं आया। मैंने मस्‍तो को चिकुटी भरी, किंतु मस्‍तो फिर चुप रहे--जैसे कि कुछ भी नहीं हुआ। तब मैंने मस्तो को आरे भी ताकत से चिकुटी काटी। फिर भी उन पर कोई असर नहीं हुआ। तक तो मैंने चिकुटी काटने में अपनी पूरी ताकत लगा दी। और तब उन्‍होंने कहा : ओह।

उस समय मैंने अल्‍लाउदीन खान की उन आंखों को देखा--उस समय वे बहुत वृद्ध थे। उनके चेहरे की रेखाओं पर अंकित सारे इतिहास को पढ़ा जा सकता था।

उन्‍होंने सन अठारह सौ सत्‍तावन में हुए भारत के प्रथम स्‍वतंत्रता-विद्रोह को देखा था। वह उनको अच्छी तरह से याद था। इससे यह अनुमान किया जा सकता है कि उस समय वे इतने बड़े तो अवश्‍य रहे होंगे कि उस समय की घटनाओं को याद रख सकें। उन्होंने सारी शताब्‍दी को गुजरते देखा था। और  इस अवधि में वे केवल सितार ही बजाते रहे। दिन में कभी आठ घंटे, कभी दस घंटे, कभी बारह घंटे। भारतीय शास्‍त्रीय संगीत की साधना बहुत कठिन है। यदि अनुशासित ढंग से इसका अभ्‍यास न किया जाए तो इसकी निपुणता में कसर रह जाती है। संगीत पर अपना अधिकार जमाए रखने के लिए सदा उसकी तैयारी में लगे रहना पड़ता है। इसके अभ्‍यास मे जरा सी भी लापरवाही नहीं करनी चाहिए, क्‍योंकि इसकी प्रस्‍तुति में वह त्रुटि तत्‍क्षण खटक जाती है।

एक प्रसिद्ध संगीतज्ञ ने कहा है : अगर मैं तीन दिन तक अभ्‍यास न करूं, तो श्रोताओं को इसका पता चल जाता है। अगर मैं दो दिन अभ्‍यास न करूं तो संगीत के विशेषज्ञों को पता चल जाता है। और अगर मैं एक दिन अभ्‍यास न करूं तो मेरे शिष्‍यों को मालूम हो जाता है। जहां तक मेरा अपना प्रश्न है, मुझे तो निरंतर अभ्‍यास करना पड़ता है। एक क्षण के लिए भी मैं इसे छोड़ नहीं सकता। अन्‍यथा तुरंत मुझे खटक जाता है। कि कहीं कुछ गड़बड़ है। रात भी की अच्‍छी नींद के बाद सुबह मुझे कुछ खोया-खोया सा लगा है।

भारतीय शास्‍त्रीय संगीत बहुत ही कठोर अनुशासन है। परंतु यदि तुम इस अनुशासन को अपनी इच्‍छा से अपने ऊपर लागू करो तो यह तुम्‍हें यथेष्‍ट स्‍वतंत्रता भी देता है। सच तो यह है कि अगर समुद्र में तैरना हो तो तैरने का अभ्‍यास अच्‍छी तरह से करन पड़ता है। और अगर आकाश में उड़ना हो तो बड़े कठोर अनुशासन की आवश्‍यकता होती है। लेकिन यह किसी ओर के द्वारा तुम्‍हारे ऊपर थोपा नहीं जा सकता। सच तो यह है कि जब कोई दूसरा तुम पर अनुशासन ला दे तो यह बहुत अप्रिय लगता है। अनुशासन शब्‍द के अप्रिय हो जाने का मुख्‍य कारण यहीं है। अनुशासन शब्‍द वास्‍तव में पर्यायवाची बन गया है माता-पिता, अध्‍यापक जैसे लोगो की कठोरता का, जो अनुशासन के बारे में कुछ भी नहीं जानते। उनको तो इसका स्‍वाद भी मालूम नहीं।

संगीत का वह गुरु यह कह रहा था कि ‘अगर मैं कुछ घंटे भी अभ्‍यास न करूं तो दूसरे किसी को तो पता नहीं चलता परंतु फर्क मालूम हो जाता है। इसलिए इसका अभ्‍यास निरंतर करते रहना होता है--और जितना ज्‍यादा तुम अभ्‍यास करो, उतना ही ज्‍यादा अभ्‍यास करने का अभ्‍यास हो जाता है और वह आसान हो जाता है। तब धीरे-धीरे अनुशासन अभ्‍यास नहीं बल्कि आनंद हो जाता है।

मैं शास्‍त्रीय संगीत के बारे में बात कर रहा हूं, मेरे अनुशासन के बारे में नहीं। मेरा अनुशासन तो आरंभ से ही आनंद है। शुरूआत से ही आनंद की शुरूआत है। इसके बारे में मैं बाद में आप लोगों को बताऊंगा।

मैंने रविशंकर को कई बार सुना है उनके हाथ में स्‍पर्श है, जादू का स्‍पर्श है, जो कि इस दुनिया में बहुत कम लोगों के पास होता है। संयोगवश उन्‍होंने सितार को हाथ लगाया और इस पर उनका अधिकार हो गया। सच तो यह है कि उनका हाथ जिस यंत्र पर भी पड़ जाता उसी पर उनका अधिकार हो जाता। अपने आप में यंत्र तो गौण है, महत्‍वपूर्ण है उसको बजाने बाला।

रविशंकर तो अल्लाउदीन खान के प्रेम में डूब गए। और अल्‍लाउदीन खान की महानता या ऊँचाई के बारे में कुछ भी कहना बहुत मुश्‍किल है। हजारों रवि शंकरों को एक साथ जोड़ देने पर भी वे उन ऊँचाई को छू नहीं सकते। अल्लाउदीन खान वास्तव में विद्रोही थे। वे संगीत के मौलिक स्‍त्रोत थे और अपनी मौलिक सूझ-बूझ से उन्‍होंने इस क्षेत्र में अनेक नई चीजों का सृजन किया था।

आज के प्राय:  सभी भारतीय बड़े संगीतज्ञ उनके शिष्‍य रह चुके है। आदर से उन्‍हें “बाबा” कहा जाता था। ऐसा अकारण ही नहीं है कि उनके चरण-स्‍पर्श करने के लिए दूर-दूर से सब प्रकार के कलाकार--नर्तक, सितारवादक, बांसुरी वादक, अभिनेता आदि आते थे।

मैंने उन्‍हें जब देखा तो वे नब्‍बे वर्ष पार कर चुके थे। उस समय वे सचमुच “बाबा” थे और यही उनका नाम हो गया था। वे संगीतज्ञों को विभिन्‍न वाद्ययंत्र बजाना सिखाते थे। उनके हाथ में जो भी वाद्ययंत्र आ जाता वे उसको इतनी कुशलता से बजाते मानों वे जीवन भर से उसी को बजा रहे है।

मैं जिस विश्‍वविद्यालय में पढ़ता था वे उसके नजदीक ही रहते थे--बस कुछ ही घंटों का सफर था। कभी-कभी मैं उनके पास जाता था। तभी जाता जब वहां कोई त्‍यौहार न होता। वहां पर सदा कोई न कोई त्‍यौहार मनाया जाता था। शायद मैं ही एक ऐसा व्‍यक्ति था जिसने उनसे पूछा कि ‘ बाबा’ मुझे किसी ऐसे दिन का समय दो जब यहां पर कोई त्‍यौहार न हो।

उन्‍होंने मेरी और देख कर कहा : तो अब तुम उन दिनों को भी छीन लेने आ गए हो। और मुस्‍कुरा कर उन्‍होंने मुझे तीन दिन बताए। सारे बरस में केवल तीन दिन ही ऐसे थे जब वहां पर कोई उत्‍सव नहीं होता था। इसका कारण यह था कि उनके पास सब प्रकार के संगीतज्ञ आते थे--ईसाई, हिन्दू, मुसलमान। वे उन सबको अपने-अपने त्‍यौहार मनाने देते थे। वे सच्‍चे अर्थों में संत थे और सबके शुभचिंतक थे।

मैं उनके पास उन तीन दिनों में ही जाता था जब वे अकेले होते थे और उनके पास कोई भीड़-भीड़ नहीं होती थी। मैंने उनसे कहा कि ‘ मैं आपको किसी तरह से परेशान नहीं करना चाहता। आप जो करना चाहें करें--अगर आप चुप बैठना चाहते है तो चुप रहिए। आप अगर वीणा बजाना चाहते है तो वीणा बजाइए। अगर कुरान पढ़ना चाहे तो कुरान पढ़िए। मैं तो केवल आपके पास बैठने आया हूं। आपकी तरंगों को पीने को आया हूं। मेरी इस बात को सुन कर वे बच्‍चे की तरह रो पड़े। मैने उनके आंसुओं को पोंछते हुए उनसे पूछा : क्‍या अनजाने में मैंने आपके दिल को दुखा दिया है।

उन्‍होंने कहा : नहीं-नहीं। तुम्‍हारी बातों से तो मेरा ह्रदय द्रवित हो उठा है और मेरी आंखों से आंसू उमड़ आए है। मेरा इस प्रकार रोना अनुचित है। मैं इतना बूढ़ा हूं। परंतु क्या प्रत्‍येक व्‍यक्‍ति को सदा उचित व्‍यवहार ही करना चाहिए। मैंने कहा : नहीं, कम से कम तब तो नहीं जब मैं यहां हूं। यह सुन कर वे हंस पड़े। उनकी आँखो में आंसू थे और चेहरे पर हंसी थी…दोनों एक साथ। बहुत ही आनंददायी स्थिति थी।

ओशो : स्‍वर्णिम बचपन

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