Wednesday, 24 January 2024

श्री भरत चरित-6 ]* *!! भरत चले प्रयाग की ओर !!* प्रेम भक्ति अनपायनी, देहु हमहीं श्री राम...( श्रीरामचरितमानस )

🙏👋🕉️हर हर महादेव 👋🕉️🙏
🙏🙏जय श्री फूल मुक्तेश्वराए नमः 🙏🙏

🕉️🌅🌄 *सुप्रभातम्* 🌅🌄🕉️

             *[ श्री भरत चरित-6 ]* 

 *!! भरत चले प्रयाग की ओर !!* 

प्रेम भक्ति अनपायनी, देहु हमहीं श्री राम...
( श्रीरामचरितमानस )

धन्य भरत ! 

भरत जैसा कौन हुआ... जिसनें प्रेम की एक अलग ही परिभाषा गढ़ दी ।

सबसे बड़ा धर्म है, सेवा... सबसे बड़ी भक्ति है... सेवक की ।

अपने आपको मिटाना पड़ता है... अपना "आपा" खोना पड़ता है… तब जाकर ये तमगा प्राप्त होता है... कि "तुम सेवक हो" ।

स्वामी का स्वार्थ ही सेवक का स्वार्थ है... स्वामी जिसमें प्रसन्न हैं ..सेवक उसी में राजी है... अपना अहं तो कब का मिटा चुका है... वो सेवक... ।

भरत जब प्रयाग की ओर चलते हैं... तब वह अपनी माँ कौशल्या जी से जो कहते हैं... श्री रामचरितमानस में... वह दृष्टव्य है... 

"सबते सेवक धर्म कठोरा"

माँ ! मेरे पादुका न पहनने की वजह से तुम दुःखी क्यों हो रही हो ?

अरे ! तेरा बेटा जिस धर्म पर चल रहा है... वह सेवक धर्म बहुत कठोर है... स्वामी ने जहाँ अपने चरण रखें हैं... सेवक को वहाँ अपना सिर रखना चाहिए... !

उफ़ ! क्या विलक्षण प्रेम है भरत का !

आगे भरत श्री राम के चरण चिन्हों को जब धरती में देखते हैं तब वहीं बैठ जाते हैं... और रोने लगते हैं... 

नाथ ! ये भरत तो जन्म जन्मों का अपराधी है... नख से शिख तक अपराधों से भरा हुआ है... अब क्या करोगे ?

आपको ऐसा सेवक मिल गया है... जो अपराध ही नहीं करता... अपराध की पोटरी अपने सिर में रख कर चलता है... ।

नाथ ! मैं तो आपको मुँह दिखाने लायक भी नहीं हूँ... फिर भी इस बेशर्म भरत को तो देखो... मुँह उठाये चला आरहा है आपके पास !

साधकों ! यही दैन्यता ही तो प्रेमी का श्रृंगार है... सेवक भाव उच्च भाव है... सेवक और सेव्य... यहाँ सेवक भाव के प्रतीक हैं भरत जी... और उनके सेव्य हैं... श्री राम ।

चलिये... "भरत चरित्र" रूपी प्रेम के सागर में डुबकी लगाएं... मन निर्मल होगा... चित्त की शुद्धि होगी ।

पाँच हजार नौका मंगवाई थीं... निषाद राज ने ।
मतलब जितनी नावें मंगवा सकते थे... उतनी नावें मंगवाई गयीं ।

गुरुदेव वशिष्ठ जी और उनके साथ विप्र गणों को बैठाया... 

एक नाव में माँ कौशल्या और सुमित्रा ही बैठीं... 

कैकेयी जल्दी जल्दी बैठने जा रही थी... पर भरत ने जानबूझ कर उस नौका को आगे बढ़ा दिया ।
आम नर नारियों के साथ कैकेयी बैठी... ।

हाथियों ने गंगा पार किया ।

रथ और घोड़ों के लिए विशेष बड़े बड़े नाव थे... ।
**** आप आगे मार्ग दिखाते हुए चलें... निषाद राज से भरत ने कहा... 

क्यों कि आप इस मार्ग के जानकार हैं... ।

भरत जी !  मेरे सेवक आगे चल रहे हैं... वो मार्ग दिखाएँगे... ।

पर मैं आपके साथ चलूँगा... आपके साथ एक अलग ही आनन्द आता है... और ऐसा आनन्द आता है कि... प्रभु श्री राम के साथ भी ऐसा आनन्द नहीं आया था ।

ये कहते हुए भरत को छुआ निषाद राज ने ।

सारी नावें जा चुकी थीं... अब शत्रुघ्न निषाद और भरत ही रह गए थे... सुमन्त्र जी साथ चलने के इच्छुक थे... पर भरत ने उन्हें ये कहकर आगे भेज दिया कि... आप ही हैं जो प्रजा के सुख दुःख को समझते हैं... आप मन्त्री हैं... आप आगे जाएँ... और किसी को कोई कष्ट न होने पाये... ये ध्यान रखियेगा ।
सिर झुका कर महामन्त्री सुमन्त्र आगे चले गए ।

अब तो आप अपनी पट्टी खोल लीजिये... 

वन प्रान्त में हल्ला है कि... प्रभु श्री राम के भाई भरत आये हैं... और कल ही हमारे यहाँ की मालती के पति उनके दर्शन करके आये... वो कह रहे थे... बिल्कुल प्रभु जैसे ही हैं... शक्ल सूरत बिलकुल प्रभु श्री राम से ही मेल खाती है... ।

और स्वभाव भरत का तो प्रभु श्री राम से भी ज्यादा प्रेमपूर्ण है... ये बातें हमारे राजा निषाद बता रहे थे ।

प्रभु श्री राम में फिर भी कुछ दूरी लगती है... पर ये तो अपने ही लगते हैं... और अपनों की तरह ही प्रेम बरसा रहे हैं... ।

देखो ना !... अब खोल लो ! अपनी पट्टी... आँखों की पट्टी ।

केवट की पत्नी ने अपने पति केवट को आग्रह किया ।
नहीं... मेरी प्रतिज्ञा है कि... प्रभु श्री राम जब मेरे सामने होंगे तभी ये पट्टी खुलेगी ।

केवट जिद्दी है... इतनी जल्दी कैसे माने !

केवट ! ओ केवट !

निषाद राज भरत को लेकर उसकी झोपड़ी में ही आगये थे ।
गंगा के किनारे ही तो थी इसकी झोपड़ी ।

हाँ... महाराज ! 

पत्नी का हाथ पकड़े केवट आया बाहर ।

भरत जी ! ये है श्री राम भक्त केवट... इसी ने गंगा पार करवाया था अपनी नाव से प्रभु को... ।

और पता है... भरत जी ! पार छोड़ कर जब ये वापस आया तो इसने अपनी आँखों में पट्टी ही बाँध ली... कहने लगा था... जिन आँखों से राजीव नयन को देखा हो... उन आँखों से मैं संसार को देखूंगा !... नहीं ।

भरत ने देखा केवट को... ओह ! इसके आँखों की पट्टी में ये लाल लाल क्या है ?

भरत ने पूछा ।

ये दिन रात रोते रहे थे प्रभु श्री राम को पार करके जब वापस आये तब... खूब रोते रहे... कई दिनों तक... इनके आँसू ही नहीं रुके... पर एक दिन... इनके आँखों से रक्त निकलने लगा था... 
केवट की पत्नी ने बताया ।

ओह !... इतना प्रेम ?

भरत दौड़े और केवट को गले से लगा लिया ।

अरे ! ये तो मेरे प्रभु हैं !... हाथों से छूने लगा केवट भरत को ।

इनका स्पर्श तो मेरे प्रभु का ही स्पर्श है...... इनके देह से जो सुगन्ध निकल रही है... वो तो मेरे प्रभु राम के देह से निकलती है ।

भैया केवट ! भरत बोले ।

ओह ! ये तो आवाज भी... वही मीठी आवाज !

अपने आँखों की पट्टी निकाल कर फेंक दी... 

और जब देखा केवट ने... वही सांवला दिव्य देह... मुखारविन्द श्री राम के जैसा ही... नाच उठा केवट ।

भरत ने फिर आगे बढ़कर आलिंगनबद्ध किया केवट को ।

केवट के आनन्द का आज ठिकाना नहीं है... ।

ए केवट ! ये भरत जी, प्रभु श्री राम के पास जा रहे हैं... अन्य लोग निकल चुके हैं... हजारों लोग हैं साथ पर... पर हम लोग तुम्हारी नाव में ही बैठेंगे ।

निषाद राज ने केवट से कहा ।

ना !... मैं बिना उतराई के आप लोगों को पार नहीं लगाऊँगा ।

फिर शरारत में उतर आया ये केवट ।

केवट की पत्नी ने कहा... आप पागल हो गए हो... महाराज निषाद स्वयं आये हैं... और आपके स्वामी प्रभु श्री राम के भाई भरत जी हैं साथ में... उनसे आप उतराई लोगे ?

मैंने तो अपने स्वामी श्री राम से भी उतराई ली थी… फिर इनसे क्यों नहीं ?

देखो ! मैं साफ साफ कह देता हूँ... उतराई तो मुझे चाहिए... केवट बोला ।

भरत ने अब मन्द मुस्कुराते हुए पूछा... स्वामी श्री राम से आपने क्या उतराई ली थी ?

केवट ने कहा... मैंने उनसे लिया था... जैसे मैं मुफ़्त में इस गंगा से आपको पार कर रहा हूँ... ऐसे ही मुझे भी मुफ़्त में (बिना किसी साधना के)... उस "भव सागर" से पार कर देना... बस ।
भरत भावुक हो गए... केवट जी ! अब हमसे क्या चाहिए उतराई में ?

केवट ने कहा... बस यही उतराई चाहिए कि... हमें भी अपने साथ चित्रकूट ले चलिए... केवट भरत के चरणों में गिर गया... पर भरत ने तुरन्त उठाकर उसे अपने हृदय से लगा लिया था ।

हाँ... चलो ! चित्रकूट चलो... केवट से भरत बोले... मैं तो अधम हूँ... अपावन हूँ... आप लोग कितने सरल और सहज हैं... मेरे स्वामी श्री राम आप लोगों की सुनते हैं... तो आप लोग चलेंगे तो मेरा भी काम सध जाएगा... चलिए ।

केवट नाच उठा... और अपनी नाव में भरत शत्रुघ्न और निषाद को बैठाकर गंगा की धारा में चल दिया ।

पुत्र ! पादुका पहन ले !... 

गंगा को पार किया... और जब चलने लगे भरत... तब पीछे से फिर आवाज आई... 

अकेली कैकेयी पीछे है... जब उसने देखा कि... काँटों से बिद्ध हो गए हैं भरत के पाँव... तो रहा नहीं गया उससे... और बोल पड़ी ।

तेरे ही कारण ये कांटें चुभ रहे हैं... कैकेयी !

मेरे ही नहीं... सभी लोगों के हृदय में शूल पैदा कर दी है ..तेरी करनी ने ।

कैकेयी भरत से ऐसा सुनकर हिलकियों से फिर रो पड़ी... ।

ये कौन हैं ? ये कहाँ जा रहे हैं ?
इतने हाथी घोड़े !... क्या किसी राज्य पर आक्रमण करने ये लोग जा रहे हैं ?

रास्ते में नर नारी जो भी देखता वो सब यही पूछते ।

पर ये दोनों तो राम और लक्ष्मण की तरह लग रहे हैं ना ?
एक ने कहा ।

दूसरे ने उत्तर दिया... लग रहे हैं... पर हैं नहीं... 

इनका मुख मण्डल दुःखी है... इसलिए ये श्री राम नहीं हैं ।

पर ये हैं कौन ? मार्ग के पथिक पूछते हैं ।

भरत... श्री राम के भाई भरत ।

कहाँ जा रहे हैं ? कहीं अपने राज्य के कण्टक श्री राम को ही मारने तो नहीं जा रहे ?

तब दूसरा कहता... ऐसा बोलना भी पाप है... ये तो अपने भाई का राज्याभिषेक करने जा रहे हैं... चित्रकूट ।

ओह !... धन्य भरत !

जो जो ये सुनता... वो आनन्दित हो जाता... ।

ऐसा भ्रातृ प्रेम कहाँ देखने को मिलता है... अरे ! ऐसा भरत जैसा भाई !... जिसको राज्य मिला था अयोध्या का... पर स्वीकार नहीं किया... राज्य सत्ता मैं अपने बड़े भाई को ही दूंगा... ये कहकर भरत जा रहे हैं... चित्रकूट ।

मार्ग में चल रहे लोग भी भरत की सराहना करते हुए... भरत की जय बोलते हुए जा रहे हैं ।

पर भरत का कहाँ मन है इन सारी बातों में... कि लोग प्रशंसा कर रहे हैं या गाली दे रहे हैं... इनके मन में तो स्वामी श्री राम बसे हैं ।

"सीता राम" सीता राम" सीता राम"

बस यही नाम जप निरन्तर चल ही रहा है... मार्ग में चलते हुए लोग भरत को प्रणाम करते हैं... पर भरत का ध्यान... बस "सीता राम"... नाम जपने में ही लगा हुआ है... ।

नाम जपते हुए दोनों भाई... तेज़ चाल से चलते जा रहे हैं... एक तरह से दौड़ रहे हैं... भरत और शत्रुघ्न... पीछे पीछे... निषाद राज... और केवट... ।

बाकी लोगों को आगे भेज दिया है भरत ने ।

धूल से मुख मण्डल सन गया है... कुछ म्लान सा है मुख ।

पाँव में छाले पड़ गए हैं... छाले फूट जाते हैं तो रक्त निकल रहा है... पर इस राम प्रेमी को क्या चिन्ता ?

देहातीत हो गए हैं भरत... ।

धूप तेज़ हो जाती है... तो पसीने निकलने लग जाते हैं... 

पर प्रेमियों का साथ प्रकृति भी देती है... बादल छा जाते हैं... 

गर्मी न हो जाए इन राम भक्त को कहकर... बादल नन्ही नन्ही बूंदें बरसाने लग जाता है... ।

वृक्षों से, लताओं से फूल गिरकर मार्ग में आगये हैं... और मार्ग में फूल फैल गए हैं... मानो इस प्रेमी के लिए प्रकृति ने पाँवड़े बिछा दिए हों... ।

कोयल का स्वर गूंज रहा है... मोर नाचते हुए मिल रहे हैं मार्ग में ।

पपीहे का कोमल सम्बोधन... पीऊ ! पीऊ !... भ्रमरों का गान... सब चल रहा है... प्रकृति भी श्री राम के सेवक की सेवा में हाज़िर हो गयी है... ।

पर भरत की दृष्टि अपने लक्ष्य पर है... 

अपने स्वामी श्री राम पर... जल्दी से जल्दी पहुँचना चाहते हैं ये चित्रकूट ।

पर आज प्रयाग में ही पहुँचे हैं... 

और यहाँ आकर सबने विश्राम करने की सोची ।

साधकों ! साधना में इधर उधर अगर भटके... तो लक्ष्य कभी नहीं मिलेगा... 

इसलिए सबसे पहले लक्ष्य निर्धारित करो... कि तुम पाना क्या चाहते हो... और क्यों पाना चाहते हो ?

फिर उसे पाने के लिए प्राण प्रण से लग जाओ ।

हे मेरे स्वामी ! मैं केवल तुम्हें पाना चाहता हूँ... केवल तुम्हें ।

अब तो कह दो ना नाथ... एवमस्तु !

जिनके होंठों में हँसी, और पांवों में छाले होंगे 
हे प्रभु ! वही तुझे ढूंढने वाले होंगे... 

शेष कल.......

हर हर महादेव


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