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घर से पूरब दिशा में- ताल के किनारे भीट जैसी एक ऊँची खाईं पर एक बूढ़ा चिलबिल का पेड़ हुआ करता था। मुझसे उसका पहला परिचय मेरे बाबा ने करवाया था।
चिलबिल का नाम भी अलग-अलग भाषा और जगहों पर अलग-अलग - चिरमिल या बनचिल्ला, अंग्रेज़ी में इंडियन एल्म या मंकी बिस्किट ट्री तो संस्कृत में चिरबिल्व।
वैसे तो वह पेड़ साल भर गुमनामी में रहता, लेकिन चैत-बैसाख यानी अप्रैल मई के महीने में अपनी मौजूदगी की चिट्ठी भेजता। जब पुरवाई बयार चलती तो उसके पंख लगे हुए बीज हमारे दुआर तक उड़ कर आ जाते और बता देते कि लो हम भी आ गए हैं। सुनहले-भूरे पंख लगे हुए बीज जिनको कि कुदरत ने बनाया ही इसीलिए है कि हवा के साथ वो उड़ कर हमारे पास तक आ जाएँ।
ताल से घर तक उड़ कर आते-आते वो लगभग एक फ़र्लांग दूरी तय करते। आते-आते उनके थके-थके पंख सूख-सूख कर ख़ुश्क हो जाते। छूते ही टूट-टूट जाते, हथेलियों में बिखर-बिखर कर रह जाते। बीच में उनका बीज रह जाता। कुछ कुछ दिल के आकार के। हम उन्हें छील कर उनका सुवाद लेते। कुछ-कुछ मेवे जैसा। माँड़ से भरे और तैलीय पुट लिए। स्टार्च और ऑइल से भरे चिकने, चमकीले और चपटे बीज। लेकिन ये मशक़्क़त वाला उद्यम होता। सैकड़ों छिलका उतारने पर बमुश्किल कुछ ग्राम बीज ही प्रयोज्य मिलते।
फिर मौसम बदलता और धीरे-धीरे वर्षा ऋतु आ जाती। पंख लगे हुए कुछ बीज अपनी मंज़िल पा लेते। ऐसी जगह पहुँच जाते जहाँ वो नमी पाकर दुबारा उग सकें। उसके बाद चिलबिल का वो बूढा पेड़ जैसे बेमानी हो जाता। हमें उसकी साल भर याद न आती। लेकिन अगले बरस फिर चैत-बैसाख के महीने में, गेहूँ की दौंराही के बीच, कट चुके खेतों से होते हुए वे पंख लगे बीज उड़ते-सरकते हम तक आ धमकते और कहते कि हम कहीं गए नहीं हैं, अपितु यहीं हैं।
फिर एक बार की गर्मी में गाँव गया तो पता चला कि चिलबिल का वह बूढ़ा पेड़ कट गया।
मैं उदास हो गया।
इधर कुछ सालों से मुझे उन सभी पेड़ों की बहुत-बहुत याद आने लगी जिन्हें मैंने बचपन में देखा था। ख़त्म हो चुके सभी पेड़ों को दुबारा लगाने की उत्कट इच्छा सी होने लगी है।
अभी होली में घर गया तो देखा कि पुराने वाले चिलबिल की जगह ही एक नवयुवा पेड़ खड़ा था। उसने भी यथाशक्ति फल दिए थे लेकिन बसंत में वो पंख लगे बीज किसी नवयौवना सी धानी चादर ओढ़े डाली से लिपटे पड़े थे। तो उन्हें पाने की लालसा फलीभूत नहीं हो पाई। उन्हें प्रौढ़ होने में माह भर का समय था। ख़ैर, मायूस हुआ और मन मसोस कर रह गया।
लेकिन उनकी तलाश एक दिन यहाँ गोरखपुर में पूरी हुई। एक दिन जब भरी दुपहरी में गोलघर के सिटी मॉल से थोड़ी विकर्णीय दिशा में, कोटक महिंद्रा बैंक के ठीक सामने धरती पर चिपके कुछ पंख लगे बीजों को देखा तो हठात अवाक रह गया कि यहाँ कॉन्क्रीट और अलकतरे के बीच ये कहाँ से उड़ कर आ गए। ऊपर देखा तो एक विशाल वृक्ष का नख-शिख उन्हीं सुनहले-भूरे पंखों वाले बीजों से लदा था।
ऐसा लगा कि कोई पुराना परिचित किसी भीड़ भरी जगह पर पीछे से आकर कंधे पर हाथ रख दिया हो और मैं उसे देखकर चौंक गया, फिर जवाब में उसने कहा हो तुम मेरी नहीं बल्कि मैं तुम्हारी तलाश में भटक रहा था।
मैंने कुछ बीजों को हाथ में लिया। बिलकुल काग़ज़ी नीज़ ख़स्ता। छूते ही हाथों में भुस-भुस टूट गए। जैसे कि वे खुद अपने मेवे वाले बीजों को मुझ पर न्योछावर कर मेहमानवाज़ी कर रहे हैं।
मैंने महसूस किया कि वे नहीं, बल्कि मैं ही उनकी तलाश में भटक रहा था।
ये कुदरत भी अजीब है, बहुतों को इसने वो शय बख़्शी जिससे कि वे अपनी जड़ों से कहीं दूर जाकर जड़ें जमा सकें। ये चिलबिल भी वही रवायत अदा कर रहे हैं। हर बरस चैत-बैसाख में किसी से मिलने के बहाने वो बिखरते रहेंगे और उनकी संतति दूर-दूर तक फैलती रहेगी।
Prashant Dwivedi
24/04/2024
(Repost)
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