Sunday, 6 April 2025

ऐसा हुआ रामकृष्ण के जीवन में। रामकृष्ण तो काली के भक्त थे। अनूठे भक्त थे। और उस जगह पहुंच गए, जहां काली और वे ही बचे। लेकिन तब उनको एक बेचैनी होने लगी कि यह तो द्वैत है, और अद्वैत का अनुभव कैसे हो? अभी भी दो तो हैं ही, मैं हूं काली है। अभी दो की दुई नहीं खोती। अभी दो तो बने ही रहते हैं।

ऐसा हुआ रामकृष्ण के जीवन में। रामकृष्ण तो काली के भक्त थे। अनूठे भक्त थे। और उस जगह पहुंच गए, जहां काली और वे ही बचे। लेकिन तब उनको एक बेचैनी होने लगी कि यह तो द्वैत है, और अद्वैत का अनुभव कैसे हो? अभी भी दो तो हैं ही, मैं हूं काली है। अभी दो की दुई नहीं खोती। अभी दो तो बने ही रहते हैं।
तो वे एक अद्वैत गुरु की शरण में गए। उस अद्वैत गुरु को उन्होंने कहा कि अब मैं क्या करूं? ये दो अटक गए हैं, इसके आगे अब कोई गति नहीं होती। अब दिखाई भी नहीं पडता कि जाऊं कहां? शांत हो जाता हूं; काली खड़ी हो जाती है। मैं होता हूं काली होती है। बड़ा आनंद है। गहन अनुभव हो रहा है। लेकिन दो अभी बाकी हैं। एक आखिरी अभीप्सा मन में उठती है कि एक कैसे हो जाऊं? तो जिस गुरु से उन्होंने कहा था, उसने कहा, फिर थोड़ी हिम्मत जुटानी पड़ेगी। और हिम्मत कठिन है और मन को चोट करने वाली है। गुरु ने कहा कि भीतर जब काली खड़ी हो, तो एक तलवार उठाकर दो टुकड़े कर देना। रामकृष्ण ने कहा कि क्या कहते हैं, तलवार उठाकर दो टुकड़े! काली के! ऐसी बात ही मत कहें! ऐसा सुनकर ही मुझे बहुत दुख और पीड़ा होती है।

तो गुरु ने कहा, तो फिर तू अद्वैत की फिक्र छोड़ दे। क्योंकि अब काली ही बाधा है। अब तक काली ही साधक थी, साधन थी, सहयोगी थी; अब काली ही बाधा है। अब सीढ़ी छोड़नी पड़ेगी। अब तू सीढ़ी को मत पकड़। माना कि इसी सीढ़ी से तू इतनी दूर आया है, इसलिए मोह पैदा हो गया है, आसक्ति बन गई है।

हमारी आसक्ति संसार में ही नहीं बनती, हमारी आसक्ति हमारी साधना के उपाय से भी बन जाती है। अब किसी जैन को कहो कि महावीर के दो टुकड़े कर दो! किसी बौद्ध को कहो कि बुद्ध के दो टुकड़े कर दो! राम के भक्त को कहो कि हटाओ, फेंक दो इस मूर्ति को मन से! बेचैनी होगी कि क्या बातें कर रहे हैं! यह कोई बात हुई धर्म की? अध्यात्म हुआ? यह तो घोर नास्तिकता हो गई।

लेकिन रामकृष्ण जानते थे कि जो आदमी कह रहा है, वह ठीक तो कह रहा है। यह मेरी मजबूरी है कि मैं न तोड़ पाऊं।

लेकिन उस गुरु ने कहा, तू मेरे सामने बैठ और ध्यान कर। और जैसे ही काली भीतर आए, उठाना तलवार और तोड़ देना! रामकृष्ण ने कहा, लेकिन मैं तलवार कहां से लाऊंगा? उस गुरु ने बड़ी कीमती बात कही। उस गुरु ने कहा कि तू काली को ले आया भीतर, तलवार न ला सकेगा! काली कहां थी पहले? तू काली को ले आया, तो तलवार तो तेरे बाएं हाथ का खेल है। जैसे काली को तूने कल्पना से अपने भीतर विराजमान करके साकार कर लिया है, ऐसे ही उठा लेना तलवार को।

रामकृष्ण ने कहा, तलवार भी उठा लूंगा, तो तोड़ नहीं पाऊंगा। ‘ मैं भूल ही जाऊंगा। तुमको भी भूल जाऊंगा, तुम्हारी बात को भी भूल जाऊंगा। काली दिखी कि मैं तो मंत्रमुग्ध हो जाऊंगा। मैं तो नाचने लगूंगा। मैं फिर यह तलवार नहीं उठा सकूंगा।

तो उस गुरु ने कहा कि फिर मैं कुछ करूंगा बाहर से। एक कांच का टुकड़ा गुरु उठा लाया और उसने रामकृष्ण को कहा कि जब मैं देखूंगा कि तू मस्त होने लगा, डोलने लगा…। क्योंकि जब भीतर काली आती, तो रामकृष्ण डोलने लगते, हाथ—पैर कंपने लगते, रोएं खड़े हो जाते। और चेहरे पर एक अदभुत आनंद का भाव, मस्ती छा जाती। तो उस गुरु ने कहा कि मैं तेरे माथे पर इस कांच से काट दूंगा; जोर से लहूलुहान कर दूंगा; दो टुकड़े चमड़ी को काट दूंगा। और जब मैं यहां तेरी चमड़ी काटू, तब तुझे खयाल अगर आ जाए, तो चूकना मत। उठाकर तलवार तू भी दो टुकड़े भीतर कर देना।

और ऐसा ही किया गया। गुरु ने कांच से काट दी माथे की चमड़ी, ठीक जहां तृतीय नेत्र है। ऊपर से नीचे तक चमड़ी को दो टुकड़े कर दिया। खून की धार बह पड़ी। रामकृष्ण को भीतर होश आया। वे तो नाच रहे थे। मस्त हो रहे थे भीतर। होश आया। हिम्मत की और उठाकर तलवार से काली के दो टुकड़े कर दिए।

रामकृष्ण, और काली के दो टुकड़े! यह भक्त की आखिरी हिम्मत है। यह आखिरी हिम्मत है। इससे बड़ी हिम्मत नहीं है जगत में। और जो इतनी हिम्मत न जुटा पाए, वह अद्वैत में प्रवेश नहीं कर पाता। काली विसर्जित हो गई। रामकृ—ण अकेले रह गए। या कहें कि चैतन्य मात्र बचा। छह दिन बाद होश में आए। आंखें खोलीं, तो जो पहले शब्द थे, वे ये थे कि कृपा गुरु की, आखिरी बाधा भी गिर गई। दि लास्ट बैरियर हैज फालेन।

रामकृष्ण के मुंह से शब्द आखिरी बाधा, लास्ट बैरियर! सोचने में भी नहीं आता। रामकृ—ण के सामान्य भक्तों ने इस उल्लेख को अक्सर छोड़ दिया है, क्योंकि यह उल्लेख उनके पूरे जीवन की साधना के विपरीत पड़ता है। इसलिए बहुत थोड़े से भक्तों ने इसका उल्लेख किया है। बाकी भक्तों ने इसको छोड़ ही दिया है। क्योंकि यह तो मामला ऐसा हुआ कि जब उतरना ही था, तो फिर चढ़े क्यों? इतनी मेहनत की। काली के लिए रोए—गाए, नाचे—चिल्लाए, चीखे, प्यास से भरे, जीवन दांव पर लगाया। फिर काली को पा लिया। फिर दो टुकड़े किए।

तो वह लिखने वाले भक्तों को बड़ा कष्टपूर्ण मालूम पड़ा है। इसलिए अधिक भक्तों ने इस उल्लेख को छोड़ ही दिया है।

मगर यह उल्लेख बड़ा कीमती है। और जिनको भी भक्ति के मार्ग पर जाना है, उन्हें याद रखना है कि जिसे हम आज बना रहे हैं, उसे कल मिटा देना पड़ेगा। आखिरी छलांग, सीढी से भी उतर जाने की, नाव भी छोड़ देने की, रास्ता भी छोड़ देने का, विधि भी छोड़ देने की।

तो जो रामकृष्‍ण को हुआ है काली के दर्शन में, वह अंतिम नहीं है। अंतिम तो यह हुआ, जब काली भी खो गई। जब कोई प्रतिमा नहीं रह जाती मन में, कोई शब्द नहीं रह जाता, कोई आकार नहीं रह जाता, जब सब शब्द शून्य हो जाते हैं, सब प्रतिमाएं लीन हो जाती हैं असीम में, सब आकार निराकार में डूब जाते हैं, जब न मैं बचता हूं न तू बचता है……।

ओशो 
गीता दर्शन

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