विशिष्टाद्वैत सिद्धांत का सरल विवेचन
भाग-१०
श्री राम परत्व का निरुपण-३
पुराणों में श्री राम नाम की महिमा
*************************
सीतानाथ समारम्भां रामानन्दार्य मध्यमाम्।
अस्मदाचार्य पर्यन्तां वन्दे श्रीगुरू परम्पराम् ।।
वैसे तो प्रभु श्री सीताराम जी के नाम का महत्व में संपूर्ण शास्त्रों में भरा पड़ा है लेकिन उनमें से कुछ यह रहे:~
रमन्ते योगिनोऽनन्ते नित्यानन्दे चिदात्मनि ।
इति रामपदेनासौ परंब्रह्माभिधियते ॥ 1
(श्रीरामपूर्वतापनीय उपनिषद १।६)
जिस अनन्त, नित्यानन्द और चिन्मय परमब्रह्म में योगी लोग रमण करते हैं, उसी राम पद (शब्द) से परमब्रह्म प्रतिपादित होता है, अर्थात राम नाम हीं परमब्रह्म है
रामनामैव नामैव नामैव मम् जीवनम्।
कलौ नास्त्येव नास्त्येव नास्त्येव गतिरन्यथा ॥ 2
(स्कन्दपुराण, उत्तरखण्ड, नारद सनत्कुमार संवाद,५.५१)
"श्री राम का नाम, एकमात्र 'राम' नाम ही मेरा जीवन है। इस कलियुग में जीवों को मुक्ति पाने के लिए श्री राम नाम के अलावा कोई अन्य साधन नहीं है, कोई अन्य साधन नहीं है और कोई अन्य साधन नहीं है।"
पद्मपुराणे श्रीशिववाक्यं पार्वतीं प्रति:-
नामचिन्तामणी रामश्चैतन्यपरविग्रहः ।
पूर्णः शुद्धो नित्ययुक्तो न भेदो नामनामिनः ॥3
श्रीरामनाम महाराज चिन्तामणि हैं अर्थात् चिन्तनमात्र से समस्त अभीष्ट पदार्थों को प्रदान करने वाले हैं तथा श्रीरामजी साक्षात् सच्चिदानन्दस्वरूप हैं दोनों पूर्ण पवित्र एवं नित्ययुक्त हैं, नाम और नामी में भेद नहीं है।
अत: श्रीरामनामादि न भवेद् ग्राह्यमिन्द्रियै ।
स्फुरति स्वयमेवैति अह्लादौ श्रवणे मुखे ॥4
इसीलिए श्रीरामनाम रूपगुणादि मन और इन्द्रियों के विषय नहीं हैं ये तो स्वतः अहेतु की कृपा से रसना (जीभ), श्रवण (कान), मुख, हृदय, कण्ठादि स्थानों में प्रकट होते हैं।
रामरामेति रामेति रमे रामे मनोरमे ।
सहस्रनाम तत्तुल्यं रामनाम वरानने ॥5
हे वरानने! मैं राम राम और राम में ही रमण करता रहता हु, जो की विष्णु जी के सहस्त्र नाम के बराबर है।
जपतः सर्ववेदांश्च सर्वमन्त्रांश्च पार्वति ।
तस्मात्कोटिगुणं पुण्यं रामनाम्नैव लभ्यते ॥6
हे पार्वति ! समस्त वेद, पुराण और संहिता तथा मन्त्रों के करोड़ों बार पाठ करने से जो पुण्य प्राप्त होता है, उससे कोटिगुना पुण्य एक बार श्रीरामनाम के जप से होता है।
ये ये प्रयोगास्तन्त्रेषु तैस्तैर्यत्साध्यते फलम् ।
तत्सर्वं सिद्धयति क्षिप्रं रामनामेति कीर्तनात्॥7
तन्त्रों में जो-जो प्रयोग हैं, मारण, सम्मोहन, उच्चाटन और आकर्षणादि और उनके प्रयोग से जिन- जिन फलों की सिद्धि होती है, वे सारे फल शीघ्र ही श्रीरामनाम के संकीर्तन से सिद्ध हो जाते हैं। आवश्यकता है विश्वास और प्रेम की।
भूतप्रेतपिशाचाश्च वेतालाश्चेटकादयः ।
कूष्माण्डा राक्षसा घोरा भैरवा ब्रह्मराक्षसाः॥
श्रीरामनाम ग्रहणात् पलायन्ते दिशो दशः ॥8
महाभयानक स्वरूप वाले जो भूत, प्रेत, पिशाच, भैरव, बैताल, राक्षस और कुष्माण्डादि हैं ये सब श्रीरामनाम के उच्चारण को सुनकर शीघ्र ही दशोदिशाओं में भाग जाते हैं। यह श्रीरामनाम का महाप्रताप है अतः सब कुछ छोड़कर श्रीरामनाम में प्रेम करना ही उचित है श्रीरामनाम के रसिकों को श्रीनाम विमुखों का संग छोड़ देना चाहिए।
प्राणप्रयाणसमये रामनामसकृत्स्मरेत्।
स भित्त्वा मण्डलं भानोः परं धामभिगच्छति ॥9
चाहे जैसा भी पापी हो प्राण छूटते समय किसी भी प्रकार से यदि वह एक बार भी श्रीरामनाम का उच्चारण कर लेता है तो वह सूर्य मण्डल का भेदन करके अवश्य ही परम धाम को जाता है।
अर्द्धमात्रे स्थितौ श्रीमत्सीतारामौ परात्परौ ।
ह्याकारेषु त्रयो देवा बिन्दौ शक्तिरनुत्तमा ॥10॥
श्रीरामनाम के अर्द्धमात्रा में परात्पर ब्रह्म श्री सीतारामजी स्थित हैं आकार में तीनों देवता ( ब्रह्मा विष्णु महेश) और बिन्दु में महामाया आदिशक्ति स्थित हैं।
असंख्यमन्त्रनाम्नां तु बीजं शर्मास्पदं परम्।
अनादृत्य महामन्दा संशक्ताश्चान्यसाधने॥11॥
अनन्त मन्त्रों और अनन्त नामों का बीज भूत, परम कारण, समस्त सुखों का स्थान श्रीरामनाम ही हैं। श्रीनाम परत्व को बिना विचारे परात्परेश्वर श्रीरामनाम की उपेक्षा करके महामन्द मूढ़ अज्ञानी लोग दूसरे साधनों में लगे रहते हैं व्यर्थ आसक्त हो जाते हैं।
जपकाले सदा देवि नामार्थञ्च परात्परम् ।
चिन्तयेच्चेतसा साक्षाद् बुद्ध्या श्रीरामरूपकम्॥12॥
हे देवि ! हमेशा जप करते समय मन और बुद्धि से परात्पर ब्रह्मस्वरूप साक्षात् श्रीसीतारामजी के स्वरूपनामार्थ का चिन्तन करना चाहिए ।
अशनं सम्भाषणं शयनमेकान्तं खेदवर्जितम्।
भोजनादित्रयं स्वल्पं तुरीये संस्थितिस्तदा।।13
जप के समय भोजन कम करें, जिससे आलस्य, प्रमाद और इन्द्रियों की चञ्चलता नहीं होगी। धीरे-धीरे भोजन को घटावें। प्रतिदिन थोड़ा-थोड़ा कम करे शुद्ध भोजन करे। रजोगुणी एवं तमोगुणी लोगों का अन्न न खायें। स्वादिष्ट सरस पदार्थों को चित् से हटा दे इन्द्रियों को लम्पट न होने दे। हमेशा अवसर पाकर के ही थोड़ा सत्य, हितकारी एवं मधुर बोले । निद्रा को धीरे-धीरे कम करें जहाँ तक हो सके रात्रि में जागकर उच्चस्वर में नाम उच्चारण करे और धीरे-धीरे निद्रा पापिनी को जीत ले। सुन्दर एकान्त स्थान में निवास करे जहाँ किसी प्रकार का खेद विक्षेप आप को न हो, न दूसरे को हो इस प्रकार साधन सम्पन्न होकर यदि श्रीराम नाम का जप करेंगे तो उसका फल' अकथनीय होगा।
संयमं सर्वदा धार्यं नैव त्याज्यं कदाचन । संयमान्नामचिन्मात्रे प्रीतिस्संजायतेऽधिकाः ॥14॥
नाम जाप को संयमित होना चाहिए, संयम का त्याग नहीं करना चाहिए। संयमपूर्वक श्रीरामनाम का जप करने से सच्चिदानन्द स्वरूप श्रीरामनाम में उत्तरोत्तर प्रतिदिन प्रतिक्षण यथार्थ प्रीति बढ़ती है।
प्रथमाभ्यासकाले च ग्रन्थं नामात्मकं सुधी । द्वियाममेकयामं वा चिन्तयेद्धि प्रयत्नतः ॥15॥
श्रीरामनाम के नये साधक को चाहिए कि सर्वप्रथम अभ्यास के समय में श्रीरामनाम परत्व बोधक ग्रन्थों का अध्ययन चिन्तन करें। एक प्रहर अथवा दो प्रहर सावधान चित्त होकर और श्रीरामनाम के रसिक विरक्त सन्तों की संगति करें, उनकी संगति से श्रीरामनाम में आश्चर्यजनक प्रीति होगी।
यदा नाम्नि लयं याति चित्तंक्लेशविवर्जितम्।
तदा न चिन्तयेत् किंचिल्लब्ध्वा ह्यानन्दमन्दिरम् ।।16।।
निरन्तर कुछ समय तक श्रीरामनाम का जप करने पर बिना श्रम के सहज में जब श्रीरामनाम में चित्तविलीन हो जाय तब परमानन्दस्वरूप श्रीसीतारामजी को प्राप्त करके फिर कुछ भी चिन्तन न करें।
पद्मपुराण में ही श्रीब्रह्माजी का वाक्य नारदजी के प्रति
चिन्तामणिसमं कायं लब्ध्वा वै भारतेऽमलम् ।
संस्मरेन्न परंनाम मोहात् स पतति ध्रुवम् ॥17॥
इस भारत वर्ष में चिन्तामणि के समान निर्मल शरीर को प्राप्त करके जो मोहवश परात्पर श्रीरामनाम का जप नहीं करता है सम्यक् स्मरण नहीं करता है वह निश्चित ही पुनः चौरासी लाख योनि में करोड़ों वर्षों तक भटकता है, नरक कुण्ड में गिरता है। तब बाद में पश्चाताप करता है कि मनुष्य शरीर पाकर भी हम अपना उद्धार नहीं कर सके।
मानुषं दुर्लभं प्राप्य सुरैरपि समर्चितम्।
जप्तव्यं सावधानेन रामनामाखिलेष्टदम् ।।18।।
इसलिए देवदुर्लभ तथा देवपूजित मानव शरीर को प्राप्त करके सभी मनोरथों को पूर्ण करने वाले श्रीरामनाम का सावधानीपूर्वक जप करना चाहिए।
श्रुत्वा श्रीनाममाहात्म्यं यथार्थं श्रुतिपूजितम् ।
सर्वाशां संविहायाशु स्मर्तव्यं सर्वदा बुधैः ॥19॥
समस्त श्रुतियों से पूजित श्रीरामनाम के यथार्थ माहात्म्य को सुनकर शीघ्र ही सभी आशाओं को छोड़कर विद्वानों को सदा सर्वदा श्रीरामनाम का स्मरण करना चाहिए, यही परम पण्डिताई और सुबुद्धिमता है शेष सारी चतुरता उदरपूर्ति के निमित्त है।
विष्णुनारायणादीनि नामानि चामितान्यपि ।
तानि सर्वाणि देवर्षे जातानि रामनामतः॥20॥
हे नारद जी ! भगवान् के विष्णु, नारायण आदि जितने नाम हैं वे सब भी पतितपावन हैं किन्तु वे सारे नाम श्रीरामनाम से प्रकट हुए हैं और फिर महाप्रलय के समय श्रीरामनाम में ही विलीन हो जाते हैं।
श्रृणु नारद सत्यंत्वं गुह्याद् गुह्यतमं मतम् ।
रामनाम सकृज्जप्त्वा याति रामास्पदं परम् ।।21।।
हे नारदजी ! मैं तुमसे अत्यन्त सत्य एवं गुह्य सिद्धान्त को कहता हूँ, तुम सुनो- मनुष्य एक बार ही श्रीरामनाम का जप करके श्रीरामजी के दिव्यपद को प्राप्त कर सकता है इसमें आश्चर्य न करना, श्रीरामनाम की बड़ी महिमा हैं।
सर्वेषां हरिनाम्नां वै वैभवं रामनामतः ।
ज्ञातं मया विशेषेण तस्मात् श्रीनाम सप।। 22।।
हे नारदजी ! करोड़ों वर्षों तक साधना करके मैंने यह विशेष अनुभव किया है कि भगवान् के समस्त नामों का ऐश्वर्य और प्रताप श्रीरामनाम के अंशांश से है इसलिए स्नेहपूर्वक तत्पर होकर श्रीरामनाम का जप करो।
क्षणार्द्ध जानकीजानेर्नाम विस्मृत्य मानवः ।
महादोषालयं याति सत्यं वच्मि महामुने ॥ 23 ॥
महामुने ! जो मानव श्रीसीतापति श्रीरामजी के नाम को आधे क्षण के लिए भी भूलकर किसी अन्य कार्य में आसक्त होता है, वह महादोषों और तापों के आलय नरक में जाता है। यह मेरा वचन सत्य है तात्पर्य यह है कि श्रीरामनाम के विस्मरण के समान कोई पाप नहीं है।
रामनामप्रभावेण सीतारामं परेश्वरम् ।
सदात्मानं प्रपश्यन्ति रामनामार्थचिन्तकाः ॥24॥
श्रीरामनाम के अर्थानुसन्धान करने वाले साधकों को श्रीरामनाम के प्रभाव से परात्पर ब्रह्म श्रीसीतारामजी का साक्षात्कार होता है।
पद्मपुराण में ही श्रीसनत्कुमारजी का वाक्य नारदजी के प्रति:~
सर्वापराधकृदपि मुच्यते हरिसंश्रयः ।
हरेरप्यपराधान् यः कुर्य्याद् द्विपदपांशनः ॥25॥
नामाश्रयः कदाचित् स्यात्तरत्येव स नामतः ।
नाम्नो हि सर्वसुहृदो ह्यपराधात् पतन्त्यधः ॥ 26॥
किसी भी प्रकार का अपराध करने वाला व्यक्ति यदि श्रीरामजी की शरण में आ जाय तो वह समस्त पापों से मुक्त हो जाता है। जो नराधम श्रीरामजी का अपराध करते हैं श्रीरामजी के बत्तीस सेवापराध हैं एवं वेद प्रतिकूल आचरण भी महद् अपराध हैं। ऐसे अपराधी भी सन्त सद्गुरु के शरणागत होकर अकारण- करुणावरुणालय श्रीरामनाम की शरण होकर श्रीरामनाम के जप करने से अपराध से मुक्त हो सकते हैं परन्तु अकारणहितैषी सर्वसुखदायक श्रीरामनाम का जो अपराध करता है उसका तो अधःपतन एवं नरक गमन सुनिश्चित है।
श्रीनारद उवाच:~
के तेऽपराधा विप्रेन्द्र नाम्नो भगवतः कृताः ।
विनिघ्नन्ति नृणां कृत्यं प्राकृतं ह्यानयन्ति हि ॥27॥
श्रीनारदजी ने कहा हे विप्रवर ! श्रीरामनाम सम्बन्धी कितने अपराध हैं? उन अपराधों का स्वरूप क्या है ? जिनके करने से सारे सुकृत नष्ट हो जाते हैं और महामलीन संसारियों जैसी गति प्राप्त होती है।
श्री सनत्कुमार उवाच:~
सतांनिन्दानाम्नः प्रथममपराधं वितनुते ।
यतः ख्यातिं यातां कथमु सहते तद्विगर्हाम्।
शिवस्य श्रीविष्णोर्य्य इह गुणनामादि सकलं धिया भिन्नं पश्येत् स खलु हरिनामाहितकरः ॥ 28 ।।
जो श्रीरामनाम के रसिक सन्त हैं उनकी निन्दा करना प्रथम अपराध असाध्य रोग की तरह है, निन्दा का तात्पर्य श्रीरामनाम के रसिक सन्तों की वाणी का अनादर करना और अपने असत्पक्ष का स्थापन करना । यदि कोई कहे कि सन्तों की निन्दा नामापराध कैसे होगी तो कहते हैं कि जिन सन्तों के द्वारा श्रीरामनाम की प्रसिद्धि लोक में हुई उनकी बुराई को श्रीरामनाम महाराज कैसे सहन करेंगे ? सन्तों के बिना श्रीरामनाम को कौन जानता? दूसरा नामापराध श्रीगौरीशंकर भगवान् के गुणनामादि को भगवान् श्रीसीताराम जी के गुणनामादि से भिन्न मानते हैं, अभिप्राय यह है कि परात्पर ब्रह्म सर्वेश्वर श्रीसीतारामजी हैं और सब उनके अधीन हैं अत: श्रीगौरीशंकर जी की भिन्न ईशता का प्रतिपादन करना नामापराध है अथवा श्रीसीतारामजी और श्रीगौरीशंकर भगवान् में अभेद मानना भी अपराध है। सेवक स्वामि भाव मानना धर्म है।
गुरोरवज्ञा श्रुतिशास्त्रनिन्दनं तथार्थवादो हरिनाम्नि कल्पनम्।
नाम्नो बलाद्यस्य हि पापबुद्धिर्न विद्यते तस्य यमैर्हि शुद्धिः ।।29।।
अपने गुरुजनों की अवज्ञा करना अर्थात् उनकी आज्ञा का उल्लंघन करना तीसरा नामापराध है। वेद पुराण की निन्दा करना चौथा नामापराध है यहाँ निन्दा का तात्पर्य है सुनकर के कुतर्क करना । श्रीनाम महाराज की महिमा सुनकर उसे यथार्थ रूप में स्वीकार न करना, केवल प्रशंसा मात्र मानना जैसे पुराणों में तीर्थों और स्तोत्रपाठादि की महिमा लिखी है वैसे ही श्रीरामनाम की महिमा गायी गयी है। यह वास्तव नहीं है यह पाँचवां नामापराध है यह महापाप है ऐसे पापी की शुद्धता यमनियमादि साधनों से अथवा यमलोक में जाने से भी नहीं होती है।
धर्म व्रत त्याग हुतादिसर्वशुभक्रिया साम्यमपि प्रमादः ।अश्रद्दधानेऽप्यमुखेऽप्यश्रृण्वति यश्चोपदेशं स नामापराधः ॥30॥
धर्म, व्रत, दान, त्याग और तप आदि जितने शास्त्रविहित शुभकर्म है उनकी श्रीरामनाम से तुलना करना यह सातवां असाध्य नामापराध है जैसे सर्वेश्वर महाराजाधिराज से सामान्य प्रजा की तुलना करना यह महद् अपराध है वैसा ही यह श्रीनामापराध है। जो अश्रद्धालु हैं सुनना नहीं चाहते हैं ऐसे लोगों को लोभवश श्रीरामनाम की महिमा सुनाना आठवां नामापराध है यह महाअपराध है तात्पर्य यह है उत्तम अधिकारी को ही श्रीरामनाम परत्व और रहस्य की बात सुनानी चाहिए। श्रीरामनाम का जप करना और प्रमाद करना, असावधान रहना, सन्तों का संग न करना, समस्त विश्व को श्रीरामनाममय जानकर भी हिंसा का त्याग न करना, यह नवम अपराध है तात्पर्य यह है कि प्रमाद और आलस्य रहित होकर सावधानीपूर्वक अहिंसावृत्ति से सन्तों का संग करते हुए श्रीरामनाम का जप करना ही उत्तम जप है।
श्रुत्वापि नाममाहात्म्यं य: प्रीतिरहितोऽधमः ।
अहं ममादिपरमो नाम्नि सोऽप्यपराधकृत् ॥31॥
श्रीरामनाम की महिमा को सुनकर भी जो प्रीति से रहित है अहन्ता और ममता के मद में पागल है वह भी नामापराधी है, यह दशम अपराध है क्योंकि ऐसे सुखसागर श्रीरामनाम के स्वभाव और माहात्म्य को सुनकर भी संसार का त्याग नहीं किया, श्रीरामनाम के रस को नहीं पिया इसलिए वह नामापराधी हैं।
अपराधविनिर्मुक्तः पलं नाम्नि समाचर ।
नाम्नैव तव देवर्षे सर्व सेत्स्यति नान्यतः ॥32॥
हे नारद जी ! इसलिए यह उचित है कि सभी प्रकार के नामापराधों को छोड़कर हर पल श्रीरामनाम का जप करो, श्रीरामनाम जी की कृपा से ही सभी प्रकार के सुखों का लाभ तुम्हें मिल जायेगा। अन्य किसी भी साधन से अनन्त कल्प में भी परमानन्द दुर्लभ है।
जाते नामापराधे तु प्रमादेन कथञ्चन ।
सदा संकीर्तयन्नाम तदेकशरणो भवेत् ॥33॥
यदि प्राचीन मलीन संस्कार वश अथवा कुसंगवश नामापराध हो जाय तो घबराना नहीं चाहिए अपितु सदा सर्वदा श्रीरामनाम का संकीर्तन करे और श्रीरामनाम को ही अपना सर्वस्व एवं संरक्षक माने और श्रीरामनाम के अनुरागी सन्तों के नाम का कीर्तन करे तथा सन्त सेवा करे तो सब अपराध मिट जाता है।
नामापराधयुक्तानां नामान्येव हरन्त्यघम् ।अविश्रान्तप्रयुक्तानि तान्येवार्थकराणि यत् ॥34॥
श्रीरामनाम के अपराधी का अपराध श्रीरामनाम के जप से ही मिटेगा परन्तु श्रीरामनाम का निरन्तर जप करे किसी भी समय जप बन्द न हो।
नामैकं यस्य वाचि स्मरणपथि गतं श्रोत्रमूले गतं वा शुद्धं वाऽशुद्धवर्णं व्यवहितरहितं तारयत्येव सत्यम्। तद्वैदेहद्रविणजनता लोभपाखण्डमध्ये, निक्षिप्तं स्यान्न फलजनकं शीघ्रमेवात्र विप्र ।। 35 ॥
शुद्ध अथवा अशुद्ध जैसे जल्दी-जल्दी में रमरम कह देते हैं बिना दांत वाले लाम-लाम बोल देते हैं। सूकर को देखकर यवन लोग हराम कह देते हैं एवं व्यवधान सहित जैसे अभी, रा कह दिया और दो घण्टे बाद 'म' कहा यह व्यवधानयुक्त है ऐसा नहीं होना चाहिए तात्पर्य यह है कि जिस किसी भी प्रकार से जैसा कैसा दूर भी श्रीरामनाम जिसके वाणी, मन और श्रोत्र का विषय हो गया उसको श्रीरामनाम महाराज निश्चित ही तार देंगे ऐसे श्रीरामनाम महाराज का जप जो देह, गेह, धन, मान, प्रतिष्ठा, जनता, दम्भ, लोभ और पाखण्ड के लिए करते हैं, हे नारद जी ! उनका शीघ्रता से कल्याण नहीं होता है धीरे- होता है अतः निष्काम भाव से ही श्रीरामनाम का जप करना चाहिए। नाम के बल पर पापकर्म में प्रवृत्त होना नाम महाराज को नाराज करना है जैसे बार-बार शरीर में कीचड़ लगाकर श्रीसरयूजी में धोना अपराध है यद्यपि मलीनता तो हो ही जायेगी पर यह उचित नहीं है उसी प्रकार नाम जप से पाप तो निवृत्त हो जाते हैं पर ऐसा करना सर्वथा अनुचित है।
पद्मपुराण में ही श्रीवशिष्ठजी का वाक्य भारद्वाजजी के प्रति:~
अहो महामुने लोके रामनामाभयप्रदम् । निर्मलं निर्गुणं नित्यं निर्विकारं सुधास्पदम्।।36।।
प्रत्यक्षं परमं गुह्यं सौशील्यदि गुणार्णवम् । त्यक्ता मन्दात्मका जीवा नानामार्गानुयायिनः॥37॥
हे महामुने ! बड़े आश्चर्य की बात यह है कि अभय प्रदान करने वाले, स्वच्छ, गुणातीत, अविनाशी, सकलविकार रहित, अमृतस्वरूप, प्रकट, परमगुप्त, सुशीलतादि गुणों के सागर, अगम एवं अगाध श्रीरामनाम - महाराज का निरादर करके दूसरे अनेक मार्गों का अनुगमन करते हैं वे निश्चित ही मन्दगति हैं।
यत्र तत्र स्थितो वाऽपि संस्मरेन्नाममुक्तिदम्।सर्वपापविशुद्धात्मा स गच्छेत् परमां गतिम् ॥38॥
जहाँ कहीं भी शुद्ध अथवा अशुद्ध स्थान में रहते हुए जिस किसी भी स्थिति में पवित्र हो या अपवित्र हो, जो मुक्तिदाता श्रीरामनाम का स्मरण करता है वह मनुष्य समस्त पाप तापों का नाश करके परम धाम को प्राप्त करेगा। इसमें संशय नहीं है।
मोहानलोल्लसज्ज्वाला ज्वलल्लोकेषु सर्वदा ।श्रीनामाम्भोदच्छायायां प्रविष्टो नैव दह्यते । ॥39॥
मोहरूपी अग्नि में यह संसार सदा सर्वदा जल रहा है जो भाग्यवशात् श्रीरामनाम रूपी मेघ की छाया के नीचे आ जाता है वह शीतल हो जाता है, वह फिर मोहादि की अग्नि में नहीं जलता है। यहाँ श्रीरामनाम का उच्चारण करना ही छाया के नीचे आना है।
रामनामजपादेव रामरूपस्य साम्यताम् ।
याति शीघ्रं न संदेहो सत्यं सत्यं वचो मम ॥40॥
अति आसक्तिपूर्वक तन्मय होकर श्रीरामनाम के जप करने से श्रीरामजी की समता प्राप्त होती है इसमें सन्देह नहीं है मेरी वाणी को सत्य ही जानना ।
वहीं पर अम्बरीष जी के प्रति श्रीनारद जी का वचन ।
सकृदुच्चारयेद्यस्तु रामनाम परात्परम्।
शुद्धान्तःकरणो भूत्वा निर्वाणमधिगच्छति।।41 ॥
श्रीरामनाम को परात्पर तत्व समझकर जो एक बार श्रीरामनाम का उच्चारण करता है वह शुद्ध अन्तःकरण वाला होकर परम मोक्ष को प्राप्त करता है।
कीर्तयन् श्रद्धया युक्तो रामनामाखिलेष्टदम्।
परमानन्दमाप्नोति हित्वा संसारबन्धनम्॥42॥
श्रद्धा से युक्त होकर सम्पूर्णकामनाओं को पूर्ण करने वाले श्रीरामनाम का जो संकीर्तन करता है वह संसार के बन्धन का त्याग करके परमानन्द को प्राप्त करता है ।
अनन्यगतयो मर्त्या भोगिनोऽपि परन्तप । ज्ञानवैराग्यरहिता ब्रह्मचर्य्यादिवर्जिताः ॥43॥
सर्वोपायविनिर्मुक्ता नाममात्रैकजल्पकाः जानकीवल्लभस्यापि धाम्नि गच्छन्ति सादरम् ॥44॥
हे परन्तप ! जिनकी श्रीरामनाम के अलावा दूसरी कोई गति नहीं है जो भोगी है, ज्ञान वैराग्य से रहित है, ब्रह्मचर्यादि से शून्य हैं और भगवत्प्राप्ति के समस्त उपाय से जो शून्य हैं परन्तु श्रीरामनाम का उच्चारण करते हैं- वे लोग निश्चित ही आदरपूर्वक श्रीजानकीजीवन के परात्पर धाम साकेत लोक में जायेंगे।
दुर्लभं योगिनां नित्यं स्थानं साकेतसंज्ञकम् ।
सुखपूर्वं लभेत्तत्तुनामसंराधनात् प्रिये ॥ 45 ॥
हे पार्वति ! योग के जो आठ अंग हैं उन आठ अंगों से युक्त योगी जन्म भर जो अभ्यास करते हैं ऐसे योगियों को भी जो दुर्लभ है, नित्य साकेतधाम जिसका नाम है ऐसे दिव्य धाम को श्रीरामनाम की आराधना से भक्त सुखपूर्वक प्राप्त कर लेता है।
वही पद्म पुराण में श्रीकृष्ण अर्जुन संवाद~
अर्जुन उवाच~
भुक्तिमुक्तिप्रदातृणां सर्वकामफलप्रदं ।
सर्वसिद्धिकरानन्त नमस्तुभ्यं जनार्दन ॥46
अर्थ:~ सभी भोग और मुक्ति के फल दाता, सभी कर्मों का फल देने वाले, सभी कार्य को सिद्ध करने वाले जनार्दन मैं आपको नमन करता हूं।
यं कृत्वा श्री जगन्नाथ मानवा यान्ति सद्गतिम् ।
ममोपरि कृपां कृत्वा तत्त्वं ब्रहिमुखालयम्।।47
अर्थ:~हे श्रीजगन्नाथ! मनुष्य ऐसा क्या करें कि उसे अंत में सद्गति हो? वह तत्व क्या है? मेरे पर कृपा करके अपने ब्रह्ममुख से बताइए।
श्रीकृष्ण उवाच~
यदि पृच्छसि कौन्तेय सत्यं सत्यं वदाम्यहम् ।
लोकानान्तु हितातार्थाय इह लोके परत्र च ॥48
अर्थ:~ हे कुंती पुत्र! यदि तुम मुझसे पूछते हो तो मैं सत्य सत्य बताता हूं, इस लोक और परलोक में हित करने वाला क्या है।
रामनाम सदा पुण्यं नित्यं पठति यो नरः ।
अपुत्रो लभते पुत्रं सर्वकामफलप्रदम् ॥49
अर्थ:~श्रीराम का नाम सदा पुण्य करने वाला नाम है, जो मनुष्य इसका नित्य पाठ करता है उसे पुत्र लाभ मिलता है और सभी कामनाएं पूर्ण होती है।
मङ्गलानि गृहे तस्य सर्वसौख्यानि भारत।
अहोरात्रं च येनोक्तं राम इत्यक्षरद्वयम्।।50
अर्थ:~हे भारत! उसके घर में सभी प्रकार के सुख और मंगल विराजित हो जाते हैं, जिसने दिन-रात श्रीराम नाम के दो अक्षरों का उच्चारण कर लिया।
गङ्गा सरस्वती रेवा यमुना सिन्धु पुष्करे।
केदारेतूदकं पीतं राम इत्यक्षरद्वयम् ॥51
अर्थ~जिसने श्रीरामनाम के इन दो अक्षरों का उच्चारण कर लिया उसने श्रीगंगा, सरस्वती, रेवा, यमुना, सिंधु, पुष्कर, केदारनाथ आदि सभी तीर्थों का स्नान, जलपान कर लिया।
अतिथेः पोषणं चैव सर्व तीर्थावगाहनम् ।
सर्वपुण्यं समाप्नोति रामनाम प्रसादतः ।।52
अर्थ:~उसने अतिथियों का पोषण कर लिया, सभी तीर्थों में स्नान आदि कर लिया, उसने सभी पुण्य कर्म कर लिए जिसने श्रीराम नाम का उच्चारण कर लिया।
सूर्यपर्व कुरुक्षेत्रे कार्तिक्यां स्वामि दर्शने।
कृपापात्रेण वै लब्धं येनोक्तमक्षरद्वयम्।।53
अर्थ:~उसने सूर्य ग्रहण के समय कुरुक्षेत्र में स्नान कर लिया और कार्तिक पूर्णिमा में कार्तिक जी का दर्शन करके कृपा प्राप्त कर ली जिसने श्रीराम नाम का उच्चारण कर लिया।
न गंङ्गा न गया काशी नर्मदा चैव पुष्करम् ।
सदृशं रामनाम्नस्तु न भवन्ति कदाचन।।54
अर्थ:~ ना तो गंगा, गया, काशी, प्रयाग, पुष्कर, नर्मदादिक इन सब में कोई भी श्रीराम नाम की महिमा के समक्ष नहीं हो सकते।
येन दत्तं हुतं तप्तं सदा विष्णुः समर्चितः।
जिह्वाग्रे वर्तते यस्य राम इत्यक्षरद्वयम्।।55
अर्थ:~उसने भांति-भांति के हवन, दान, तप और विष्णु भगवान की आराधना कर ली, जिसकी जिह्वा के अग्रभाग पर श्रीराम नाम के दो अक्षर विराजित हो गए।
माघस्नानं कृतं येन गयायां पिण्डपातनम् ।
सर्वकृत्यं कृतं तेन येनोक्तं रामनामकम्।।56
अर्थ:~ उसने प्रयागजी में माघ का स्नान कर लिया, गयाजी में पिंडदान कर लिया उसने अपने सभी कार्यों को पूर्ण कर लिया जिसने श्रीराम नाम का उच्चारण कर लिया।
प्रायश्चित्तं कृतं तेन महापातकनाशनम् ।
तपस्तप्तं च येनोक्तं राम इत्यक्षरद्वयम् ।।57
अर्थ~उसने अपने सभी महापापों का नाश करके प्रायश्चित कर लिया और तपस्या पूर्ण कर ली जिसने श्रीराम नाम के दो अक्षर का उच्चारण कर लिया।
चत्वारः पठिता वेदास्सर्वे यज्ञाश्च याजिताः ।
त्रिलोकी मोचिता तेन राम इत्यक्षरद्वयम् ।।58
अर्थ~उसने चारों वेदों का सांगोपांग पाठ कर लिया सभी यज्ञ आदि कर्म कर लिए उसने तीनों लोगों को तार दिया जिसने श्रीराम नाम के दो अक्षर का पाठ कर लिया।
भूतले सर्व तीर्थानि आसमुद्रसरांसि च।
सेवितानि च येनोक्तं राम इत्यक्षरद्वयम् ।।59
अर्थ~उसने भूतल पर सभी तीर्थ, समुद्र, सरोवर आदि का सेवन कर लिया जिसने श्रीराम नाम के दो अक्षरों का जाप कर लिया।
अर्जुन उवाच~
यदा म्लेच्छमयी पृथ्वी भविष्यति कलौयुगे ।
किं करिष्यति लोकोऽयं पतितो रौरवालये ।।60
अर्थ~भविष्य में कलयुग आने पर पूरी पृथ्वी मलेच्छ मयी हो जाएगी इसका स्वरूप रौ-रौ नर्क की भांति हो जाएगा तब जीव कौन सा साधन करके परम पद पाएगा?
श्रीकृष्ण उवाच~
न सन्देहस्त्वया काय्र्यो न वक्तव्यं पुनः पुनः ।
पापी भवति धर्मात्मा रामनाम प्रभावतः ।।61
अर्थ~यह संदेह करने योग्य नहीं है, जैसे संदेह व्यर्थ है वैसे बार-बार वक्तव्य देना भी व्यर्थ है। कैसा भी पापी हो श्रीराम नाम के प्रभाव से वह धर्मात्मा हो जाता है
न म्लेच्छस्पर्शनात्तस्य पापं भवति देहिनः ।
तस्मात्प्रमुच्यते जन्तुर्यस्मरेद्रामद्वचत्तरम् ।।62
अर्थ~उसे मलेच्छ के स्पर्श का भी पाप नहीं होता, मलेच्छ संबंधित पाप भी छूट जाते हैं जो श्रीराम नाम के दो अक्षरों का जाप करते हैं।
रामस्तत्वमधीयानः श्रद्धाभक्तिसमन्वितः।
कुलायुतं समुद्धृत्य रामलोके महीयते ।।63
अर्थ~जो श्रीराम से संबंध रखने वाले स्त्रोत का पाठ करते हैं तथा जिनकी भक्ति, विश्वास और श्रद्धा श्रीराम में सुदृढ़ है। वह लोग अपने दस हज़ार पीढ़ियों का उद्धार करके श्रीराम के लोक में पूजित होते है।
रामनामामृतं स्तोत्रं सायं प्रातः पठेन्नरः ।
गोघ्नः स्त्रीबालघाती च सर्व पापैः प्रमुच्यते ।।64
अर्थ~जो सुबह शाम इस रामनामामृत स्त्रोत का पाठ करते हैं वे गौ हत्या, स्त्री और बच्चों को हानि पहुंचाने वाले पाप से भी बच कर मुक्त हो जाते हैं।
उसी पद्म पुराण में श्रीअगस्त्यजी का वाक्य श्रीराम के प्रति:~
विश्वरूपस्य ते राम विश्वशब्दा हि वाचकाः ।
तथापि रामनामेदं प्रभो मुख्यतमं स्मृतम्॥65
हे रामजी ! सर्वस्वरूप आप सभी शब्दों के वाच्य हैं और दुनिया के सारे शब्द आपके वाचक हैं तथापि हे प्रभो ! यह श्रीरामनाम सभी नामों में अत्यन्त मुख्य कहा गया है।
उसी पद्मपुराण में श्रीव्यासजी का वाक्य विप्रों के प्रति:~
रामनामांशतो जाता ब्रह्माण्डा: कोटिकोटिशः ।
रामनाम्नि परे धाम्नि संस्थिता स्वामिभिस्सह।66॥
अनन्तकोटिब्रह्माण्ड श्रीरामनाम के अंश से उत्पन्न होते हैं और सर्वोत्कृष्ट तेज: स्वरूप श्रीरामनाम में ही अपने स्वामियों के साथ स्थित हैं।
विश्वासः सुदृढो नाम्नि कर्त्तव्यः साधकोत्तमैः ।
निश्चयेन परां सिद्धिं शीघ्रं प्राप्नोत्यसंशयम्॥67॥
सर्वोत्तम साधकों को चाहिए कि अन्य सभी साधनों से मन को खींचकर श्रीरामनाम में सुदृढ़ विश्वास स्थापित करें। सुस्थिर विश्वासपूर्वक श्रीरामनाम का जप करने से अतिशीघ्र ही सर्वोत्कृष्ट सिद्धि प्राप्त कर लेते हैं।
चित्तस्यैकाग्रता विप्रा नाम्नि कार्या प्रयत्नतः ।
वृत्तिरोधं विना हार्दं दुर्लभं मुनीनामपि ।। 68 ॥
ब्राह्मणों ! चाहे जिस किसी प्रकार से हो श्रीरामनाम में चित्त की एकाग्रता करनी चाहिए। जब तक चित्त की वृत्तियों का निरोध नहीं होगा तब तक मुनियों को भी हृदयानन्द (परमानन्द) अत्यन्त दुर्लभ है।
अहोभाग्यमहोभाग्यमहोभाग्यं पुनः पुनः ।
येषां श्रीमद्रघूत्तंसनाम्नि संजायते रतिः ॥69
वे लोग बहुत ही सौभाग्यशाली है बार-बार उनके सौभाग्य की बलिहारी है जिनकी श्रीरामनाम में रति है। जो सप्रेम श्रीरामनाम का जप करते हैं उनके समान सौभाग्यशाली कोई नहीं है।
स्कन्दपुराणे:~
स्कन्दपुराण में भगवान् शिव का वाक्य श्रीपार्वतीजी के प्रति"
कामात्क्रोधाद्भयान्मोहान्मत्सरादपि यस्स्मरेत् । परंब्रह्मात्मकं नाम राम इत्यक्षरद्वयम् ॥70॥
परात्पर ब्रह्मस्वरूप श्रीरामनाम का जो काम सम्बन्ध से, क्रोध से, भय के कारण, मोह में आकर अथवा मात्सर्य से युक्त होकर भी स्मरण करता है वह निश्चय ही कृतार्थ हो जाता है।
येषां श्रीरामचिन्नाम्नि परा प्रीतिरचंचला ।
तेषां सर्वार्थलाभश्च सर्वदास्ति श्रृणु प्रिये ॥71॥
हे प्रिये ! सुनो जिन लोगों की सच्चिदानन्दस्वरूप श्रीरामनाम में सुस्थिर परा प्रीति है उनके सभी मनोरथों की सिद्धि सर्वदा समझनी चाहिए।
गिरिराजसुते धन्या नास्ति त्वत्सदृशी क्वचित्।
यस्मात्तव महाप्रीतिर्वर्तते रामनाम्नि वै ॥72॥
हे पर्वतराज पुत्रि पार्वति ! किसी भी लोक में तुम्हारे जैसा धन्य कोई नहीं है क्योंकि श्रीरामनाम में तुम्हारी निश्चय ही अत्यन्त प्रीति है।
सर्वेऽवताराः श्रीरामनामशक्तिसमुद्भवाः ।
सत्यं वदामि देवेशि नाममाहात्म्यमद्भुतम् ।।73॥
हे देवेशि ! जगत् उद्धार के लिए जितने अवतार पृथिवी पर होते हैं वे सारे अवतार श्रीरामनाम की अद्भूत शक्ति से प्रकट होते हैं श्रीरामनाम की अद्भुत महिमा है मैं सत्यकहता हूँ कि सभी अभिलाषाओं का त्याग करके कलियुग में श्रीरामनाम के उच्चारण से ही मोक्ष सम्भव है अन्य किसी उपाय से नहीं ।
ब्रह्माण्डपुराण:~
ब्रह्माण्डपुराण में श्रीधर्मराज का वाक्य श्रीरामचन्द्रजी के प्रति
जयस्व रघुनन्दन रामचन्द्र प्रपन्नदीनार्तिहराखिलेश ।
वाञ्छामहे नाम निरामयं सदा प्रदेहि भगवन् कृपया कृपालो ।।74॥
हे रघुनन्दन ! हे अखिलेश ! शरणागत दीनों के आर्तिको हरण करने वाले हे रामचन्द्रजी ! हे परमकृपालु भगवन् ! हम सब आपसे श्रीरामनाम को चाहते हैं अतः निरामय श्रीरामनाम को प्रदान कीजिए । तात्पर्य यह है बिना श्रीरामजी के दिये चित्त में श्रीरामनाम निवास नहीं करता है और न ही नाम जप में चित्त लगता है इसलिए श्रीरामजी से नाम महाराज को माँगना चाहिए।
त्वन्नामसंकीर्त्तनतो निशाचरा द्रवन्ति भूतान्यपयान्ति चारय:।
नाशं तथा सम्प्रति यान्ति राजन् ततः परं धाम प्रयाति साक्षात् ।।75॥
हे महाराज श्रीरामचन्द्रजी ! आपके श्रीरामनाम के संकीर्तन से सारे निशाचर दूर भाग जाते हैं सारे भूतप्रेत दूर चले जाते हैं और सारे शत्रु नष्ट हो जाते हैं। कीर्तन के पश्चात् साधक परमधाम को प्राप्त करता है।
सुखप्रदं रामपदं मनोहरं युगाक्षरं भीतिहरं शिवाकरम् । यशस्करं धर्मकरं गुणाकरं वचो वरं मे हृदयेऽस्तु सादरम्।।76।।
सुख प्रदान करने वाला, मन को हरने वाला, भय को हरण करने वाला, महामंगल करने वाला, महान् यश प्रदान करने वाला, धर्मप्रदाता, समस्त गुणों की खान, "राम" यह दो अक्षर आदरपूर्वक मेरे हृदय में निवास करे यह मुझे वर दीजिए ।
रामनामप्रभा दिव्या वेदवेदान्तपारगा ।
येषां स्वान्ते सदा भाति ते पूज्या भुवनत्रये ॥77॥
वेद और वेदान्त का परम तत्व स्वरूप श्रीरामनाम की दिव्य प्रभा जिनके हृदय में सदा निवास करती हैं,वे लोग त्रिलोकी में सदा सर्वदा पूज्य हैं।
विष्णुपुराण:~
श्रीविष्णुपुराण में श्रीव्यासजी का वाक्य श्रीशुकदेवजी के प्रति;
अवशेनापि यन्नाम्नि कीर्तिते सर्वपातकैः ।
पुमान्विमुच्यते सद्यः सिंहत्रस्ता मृगा इव।।78॥
विवश होकर भी जिस श्रीरामनाम के कीर्तन करने पर मनुष्य समस्त पापों से तत्काल मुक्त हो जाता है। उनके सम्पूर्ण पाप वैसे ही भाग जाते हैं जैसे सिंह के डर से मृग समूह भाग जाता है।
ध्यायन्कृते यजन्यज्ञैस्त्रेतायां द्वापरेऽर्चयन्।
यदाप्नोति तदाप्नोति कलौ श्रीरामकीर्त्तनात्॥79॥
सतयुग में ध्यान करने से, त्रेता में यज्ञ करने से, और द्वापर में भगवान् की पूजा करने से जो कुछ प्राप्त होता है कलियुग में श्रीरामनाम के संकीर्तन से वह सब कुछ सहज में प्राप्त हो जाता है।
श्रीविष्णुपुराण में ही श्रीसनत्कुमार का वाक्य श्रीवशिष्ठजी के प्रति:~
प्रसङ्गेनापि श्रीरामनाम नित्यं वदन्ति ये ।
ते कृतार्था मुनिश्रेष्ठ सर्वदोषोद्गतास्सदा ॥ 80।।
मुनिश्रेष्ठ ! किसी प्रसङ्ग विशेष में भी जो नित्य श्रीरामनाम का उच्चारण करते हैं वे निश्चय ही कृतार्थ हैं सदा सर्वदा सभी दोषों से मुक्त हैं।
दृष्टं श्रुतं मया सर्वं यत्किञ्चित्सारमुत्तमम्।
परन्तु रामनामैकवैभवं तु परात्परम्॥81॥
जो कुछ भी सारतत्व है उत्तम से उत्तम वस्तु है उन सबको मैंने देख लिया और सुन लिया, परन्तु सबसे श्रेष्ठ परात्पर तत्व श्रीरामनाम की अद्भुत महिमा है।
श्रीविष्णुपुराण में ही श्री ब्रह्माजी का वाक्य श्रीमरीचिजी के प्रति
केचिद्यज्ञादिकं कर्म केचिज्ज्ञाना दिसाधनम् ।
कुर्वन्ति नामविज्ञानविहीना मानवा भुवि ।।82 ॥
परात्पर श्रीरामनाम के विज्ञान (अनुभव) से शून्य कुछ लोग पृथिवी पर यज्ञादि का अनुष्ठान करते हैं और कुछ लोग ज्ञानादि की साधना करते हैं।
तत्र योगरताः केचित्केचिद्ध्यान विमोहिताः ।
जपे केचित्तु क्लिश्यन्ति नैव जानन्ति तारकम् ॥83॥
उनमें भी कुछ लोग योगाभ्यास में निरत हैं, कुछ लोग ध्यान में ही विमोहित हैं और कुछ लोग तान्त्रिक मन्त्रादि के जप में कष्ट भोग रहे हैं निश्चय ही वे लोग तारक मन्त्र श्रीरामनाम को नहीं जानते हैं। इसलिए वे अभागी हैं।
अहं च शङ्करो विष्णुस्तथा सर्वे दिवौकसः ।
रामनामप्रभावेण सम्प्राप्ता सिद्धिमुत्तमाम् ॥ 84 ॥
मैं (ब्रह्मा), शंकरजी, विष्णुजी तथा सभी देवगण श्रीरामनाम के प्रभाव से ही उत्तम सिद्धि को प्राप्त किये हैं।
निर्वर्णं रामनामेदं वर्णानां कारणं परम् ।
ये स्मरन्ति सदा भक्त्या ते पूज्या भुवनत्रये ॥ 85।।
यह श्रीरामनाम वर्णों से रहित है अर्द्धमात्रा रेफ बिन्दुरूप है और सभी वर्णों का परम कारण है ऐसे परमेश्वर स्वरूप श्रीरामनाम का जो भक्तिपूर्वक स्मरण करते हैं वे लोग त्रिभुवन में सभी से सदा सर्वदा पूज्य हैं।
भविष्य पुराण:~
भविष्योत्तरपुराण में श्रीनारायणजी का वाक्य श्रीलक्ष्मीजी के प्रति;
भजस्व कमले नित्यं नाम सर्वेशपूजितम् ।
रामेतिमधुरं साक्षान्मया संकीर्त्यते हृदि।।86।।
हे महालक्ष्मि ! भगवान् सदाशिव से नित्य पूजित 'राम' इस मधुर नाम का भजन करो मैं स्वयं ही हृदय में श्रीरामनाम का संकीर्तन करता रहता हूँ।
रामनामात्मकं ग्रन्थं श्रवणात्प्राणवल्लभे ।
शुद्धान्तःकरणो भूत्वा स गच्छेद्रामसन्निधिम्।।87॥
हे प्राणप्रिये ! श्रीरामनाम के प्रतिपादक ग्रन्थों के श्रवण और पाठ करने से थोड़े ही दिनों में अन्त:करण शुद्ध हो जाता है तत्पश्चात् श्रीरामजी का नित्य सामीप्य प्राप्त होता है।
जीवाः कलियुगे घोरा मत्पादविमुखास्सदा ।
भविष्यन्ति प्रिये सत्यं रामनामविनिन्दकाः ॥88॥
हे प्रिये ! मैं सत्य कहता हूँ कि कलियुग में मेरे चरणों से विमुख और अत्यन्त नीच जो लोग होंगे वे व्यर्थ में मेरे भक्त कहाकर श्रीरामनाम की निन्दा करेंगे।
गमिष्यन्ति दुराचारा निरये नात्र संशयः ।
कथं सुखं भवेद्देवि रामनामबहिर्मुखे। 89॥
ऐसे पापी दुराचारी अधम लोग अवश्य नरक कुण्ड में गिरेंगे इसमें संशय नहीं है। हे देवि ! श्रीरामनाम से विमुख जीवों को सुख कैसे हो सकता है।
सर्वेषां साधनानां वै श्रीनामोच्चारणं परम् ।
वदन्ति वेदमर्मज्ञा निमग्ना ज्ञानसागरे ।।90॥
जो सदा सर्वदा ज्ञानसागर में निमग्न रहते हैं और जो वेद के रहस्यों को जानते हैं वे सन्त महापुरुष कहते हैं कि सभी साधनों से श्रेष्ठ श्रीरामनाम का उच्चारण अर्थात् संकीर्तन है।
यत्प्रभावान्मया नित्यं परमानन्ददायकम्।
रूपं रसमयं दिव्यं दृष्टं श्रीजानकीपतेः ॥91॥
जिस श्रीरामनाम के अद्भुत प्रभाव से मैंने नित्य परमानन्द प्रदान करने वाले दिव्य रसस्वरूप श्रीजानकीनाथजी के स्वरूप का साक्षात्कार किया।
भविष्योत्तरपुराण में ही श्रीनारदजी का वाक्य महर्षि भारद्वाज के प्रति;
योगादिसाधने क्लेशं दुस्तरं सर्वथा मुने । अतस्सौलभ्यसन्मार्गं संगच्छेन्नाम संस्मरन् ॥92॥
हे मुने ! योगादि अन्य साधन महादुस्तर और दुर्गम हैं उनके अनुष्ठान में सर्वथा कष्ट एवं श्रमाधिक्य है अतः विवेकी पुरुष को श्रीरामनाम का स्मरण करते हुए सहज सुलभ सन्मार्ग पर चलना चाहिए।
अनायासेन सर्वस्वं दुर्लभं मुनिसत्तम ।
प्रभावाद्रामनाम्नस्तु लभते रूपमद्भुतम्।93॥
हे मुनिसत्तम ! श्रीरामनाम के प्रभाव से बिना परिश्रम के ही दुर्लभ से दुर्लभ अपने सर्वस्व को साधक सहज में ही प्राप्त कर लेता है और श्रीरामनाम के प्रभाव से श्रीजानकीनाथ के परात्पर अद्भुत स्वरूप का साक्षात्कार हो जाता है।
श्रीनारदीयपुराण:~
श्रीनारदीयपुराण में सूतजी का वाक्य शौनक के प्रति;
भयं भयानामपहारिणिस्थिते परात्परे नाम्नि प्रकाशसंप्रदे।
यस्मिन्स्मृते जन्मशतोद्भवान्यपि भयानि सर्वाण्यपयान्ति सर्वतः॥94॥
भयों के भय को भी दूर करने वाले, समस्त कल्याण प्रदान करने वाले परात्परस्वरूप श्रीरामनाम महाराज हैं जिनके स्मरण मात्र से सैंकड़ों जन्मों के सभी भय सब प्रकार से दूर हो जाते हैं अत श्रीरामनाम के उपासक को चाहिए कि किसी से भी भय न करे और किसी से भी कुछ चाहे नहीं क्योंकि श्रीरामनाम सर्वत्र व्याप्त हैं नाम के बिना दूसरी आशा यम त्रास का कारण है।
आयासः स्मरणे कोऽस्ति स्मृतो यच्छति शोभनम् । पापक्षयश्च भवति स्मरतां तदहर्निशम् ।।95॥
श्रीरामनाम के स्मरण करने में कुछ श्रम भी नहीं है और स्मरण करने पर अनन्त कल्याण को प्रदान करते हैं जो दिन रात श्रीरामनाम का स्मरण करता है उसके समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं।
प्रातर्निशि तथा सन्ध्यामध्याह्नादिषु संस्मरन्। श्रीमद्रामं समाप्नोति सद्यः पापक्षयो नरः ।। 96।।
प्रातः काल रात्रि में, सन्ध्या के समय एवं मध्याह्न काल में जो श्रीरामनाम का सम्यक् स्मरण करता है तत्काल उसके समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं और वह श्रीरामजी को प्राप्त करता है।
रामसंस्मरणाच्छीघ्रं समस्तक्लेशसंक्षयः ।
मुक्तिं प्रयाति विप्रेन्द्र तस्य विघ्नो न बाधते ॥ 97॥
हे विप्रश्रेष्ठ ! श्रीरामंनाम के सम्यक् स्मरण करने से समस्त क्लेशों का सम्यक् नाश हो जाता है उसको मुक्ति की प्राप्ति होती है उसे किसी भी प्रकार के विघ्न, बाधा उपस्थित नहीं होते।
तत्रैव श्रीनारदवाक्यं व्यासं प्रति श्रीनारदीयपुराण ही में नारदजी का वाक्य व्यासजी के प्रति;
सर्वेषां साधनानां च संदृष्टं वैभवं मया। परन्तु नाममाहात्म्यकलां नार्हति षोडशीम् ॥ 98।।
समस्त साधनों के ऐश्वर्य एवं महत्त्व को मैंने सम्यक् प्रकार से देख लिया है परन्तु वे सब श्रीरामनाम के माहात्म्य की सोलहवीं कला के बराबर भी नहीं है श्रीरामनाम सर्वोपरि है श्रीरामनाम की अनन्त कलाएँ हैं उनमें एक कला के तुल्य समस्त साधन, व्रत, तीर्थ, नेम, तप, यज्ञ, ज्ञान, वैराग्य और योगादि का सामर्थ्य है।
राम रसायन पान करु परिहरु अपर भरोस ।
युगलानन्य विकार बन बीच न करु परितोस ।
भवताऽपि परिज्ञातं सर्ववेदार्थसंग्रहम्।
नाम् परं क्वचित्तत्वं दृष्टं सत्यं वदस्व वै॥ 99 ॥
आपने भी समस्त वेदार्थ संग्रहों का परिज्ञान प्राप्त किया है श्रीरामनाम से श्रेष्ठ किसी भी तत्व को कहीं भी यदि आपने देखा है तो सत्य सत्य कहिए। तात्पर्य यह है कि कहीं भी श्रीरामनाम से श्रेष्ठ तत्व नहीं है।
बहुधाऽपि मया पूर्वं कृतं यत्नं महामुने।
नैव प्राप्तं परानन्दसागरं जन्मकोटिभिः ।।100॥
हे महामुने ! मैंने भी पहले अनेक प्रकार से प्रयत्न किया परन्तु परमानन्द सागर श्रीरामनाम के बिना करोड़ों जन्मों में भी कहीं भी परमानन्द की प्राप्ति नहीं हुई।
यावच्छ्रीरामनाम्नस्तु भावं वै परात्परम्।
नाभ्यस्तं हृदये ब्रह्मन् तावन्नानार्थनिश्चयम्।।101।।
हे ब्रह्मन् ! जब तक श्रीरामनाम के परात्पर प्रभाव का अपने हृदय में अभ्यास नहीं किया तब तक अनेक साधनों के चक्र में पड़ा रहा।
श्रीमद्रामस्य सन्नाम्नि यस्य स्यान्निश्चला रतिः ।
स्वप्नेऽपि न भवेदन्यसाधने रुचिर्निष्फला ।।102।।
श्रीमान् श्रीरामजी के सन्नाम में जिस साधक की निश्चल रति हो जाती है उस साधक की अन्य साधनों में स्वप्न में भी निष्फल रूचि नहीं होती है तात्पर्य यह है कि जिसका मन श्रीरामनाम में लग गया वह अन्य साधन में प्रवृत्त नहीं होता है।
शिव पुराण:~
शिवपुराण में श्रीशंकरजी का वाक्य नारदजी के प्रति;
सीतया सहितं रामनाम जाप्यं प्रयत्नतः ।
इदमेव परं प्रेमकारणं संशयं विना ।।103।।
श्रीसीताजी के दिव्य नाम से संयुक्त श्रीरामनाम का जप प्रयत्नपूर्वक करना चाहिए श्रीसीतारामनाम का जप ही बिना संशय के प्रेम का कारण है। जैसे राका बिना चन्द्रमा यथार्थ सुख शीतलता नहीं प्रदान करता है उसी प्रकार सीता नाम के बिना श्रीरामनाम वास्तव शान्ति नहीं प्रदान करता है अत: युगल नाम काही जप करना चाहिए।
सकृदुच्चारणादेव मुक्तिमायाति निश्चितम्।
न जानेऽहं शतादीनां फलं वेदैरगोचरम् ॥ 104 ॥
यह निश्चित है कि एक बार श्रीरामनाम के उच्चारण करने से ही मुक्ति की प्राप्ति हो सकती है तब सैकड़ों बार श्रीरामनाम के जप का क्या फल है? यह मैं नहीं जानता, यह वेदों का भी अविषय है।
यन्नाम सततं ध्यात्वाऽविनाशित्त्वं परं मुने ।
प्राप्तं नाम्नैव सत्यं च सुगोप्यं कथितं मया ।। 105।।
मुने ! जिस श्रीरामनाम का निरन्तर ध्यान करके उसी नाम महाराज की कृपा से मैंने अविनाशित्व को प्राप्त किया है यह कथन सर्वथा सत्य एवं सुगोप्य है मैंने आपको उत्तम अधिकारी जानकर श्रीरामनाम के प्रताप का रहस्य प्रकट किया है।
श्रीरामनाम सकलेश्वरमादिदेवं धन्या जना भुवितले सततं स्मरन्ति ।
तेषां भवेत्परममुक्तिमयत्नतस्तथा श्रीरामभक्तिरचला विमला प्रसाददा ।। 106।।
श्रीरामनाम सभी का, समस्त ईश्वरों का भी ईश्वर है आदिदेव है पृथिवी तल पर वे लोग धन्य हैं जो निरन्तर श्रीरामनाम का स्मरण करते हैं उन साधकों को बिना श्रम के ही मुक्ति हो जाती है और श्रीरामजी की अविचल विमल एवं परम प्रसन्नता प्रदान करने वाली भक्ति प्राप्त हो जाती है।
रामनाम सदा सेव्यं जपरूपेण नारद ।
क्षणार्द्ध नामसंहीनं कालं कालातिदुखदम् ।।107।
हे नारद जी ! श्रीरामनाम की जपरूपीसेवा सदा करनी चाहिए । श्रीरामनाम से रहित जो समय व्यतीत होता है वह आधा क्षण भी महाकाल से भी अधिक दुःखदायी है तात्पर्य यह है कि श्रीरामनाम का विस्मरण ही नामानुरागियों के लिए मौत तुल्य है।
श्रीमद् भागवत महापुराण:~
श्रीमद् भागवत में शुकदेव जी का वाक्य परीक्षितजी के प्रति'
आपन्नः संसृतिं घोरां यन्नाम विवशो गृणन् ।
ततः सद्यो विमुच्येत यद् बिभेति स्वयं भयम् ।।108॥
महाभयानक संसार दुःख से युक्त होने पर जिस श्रीरामनाम का विवश होकर उच्चारण करने पर भी जीव तत्काल ही उस क्लेश से मुक्त हो जाता है क्योंकि श्रीरामनाम के भय से भय भी डरता है ।
कलिं भाजयन्त्यार्या गुणज्ञाः सारभागिनः ।
यत्र संकीर्त्तनेनैव सर्वस्वार्थोऽभिलभ्यते ।।109 ।।
जो गुणी, सारग्राही एवं आर्यजन हैं वे लोग कलियुग की प्रशंसा करते हैं क्योंकि कलियुग में श्रीरामनाम के संकीर्तन से ही सभी स्वार्थ की सिद्धि हो जाती है।
अज्ञानादथवा ज्ञानादुत्तमश्लोकनाम यत् ।
संकीर्त्तितमघं पुंसां दहत्येधो यथाऽनलः ।।110।।
जानकर अथवा अनजान में चाहे जैसे भी उत्तम श्लोक भगवान् श्रीसीतारामजी के दिव्य नामों का संकीर्तन मनुष्यों के पाप को उसी प्रकार जला कर भस्म कर देता है जैसे अग्नि लकड़ी को जलाकर भस्म कर देती है।
ब्रह्महा पितॄहा गोघ्नो मातृहाऽऽचार्यहाघवान्।
श्वादः पुल्कसकोवाऽपि शुद्धेरन् यस्य कीर्त्तनात्।।111॥
ब्रह्मघाती, पितृघाती, गोहिंसक, मातृघाती, गुरुघाती, पापी, कुत्ते का मांस खाने वाला चण्डाल और पुल्कसादि भी जिस श्रीरामनाम के संकीर्तन से पवित्र हो जाते हैं उस रामनाम का जप करो अन्य साधनों को छोड़कर।
नातः परं कर्म निबन्धकृन्तनं मुमुक्षूणां तीर्थपदानुकीर्त्तनात्।
न यत्पुनः कर्म सुसज्जते मनो रजस्तमोभ्यां कलिलं यदन्यथा ।। 112॥
मोक्षाभिलाषी लोगों के कर्मों के बन्धन को काटने वाला तीर्थ पाद श्रीसीतारामजी के श्रीरामनाम के संकीर्तन के अतिरिक्त कोई साधन नहीं है। श्रीरामनाम के जप से जब मन निर्मल हो जाता है तो वह पुन: रजोगुण और तमोगुण से युक्त नहीं होता है और कर्म में आसक्त नहीं होता है। दूसरे साधनों से मन की निर्मलता स्थिर नहीं होती है कुछ समय तक शान्त रहेगा फिर रजोगुण और तमोगुण से युक्त हो जाता है।
एवं व्रत: स्वप्रियनामकीर्त्या जातानुरागो द्रुतचित्त उच्चैः।
हसत्यथो रोदिति रौति गायत्युन्मादवन्नृत्यति लोकबाह्यः।।113॥
इस प्रकार संकल्पपूर्वक प्राणप्रिय श्रीरामनाम का निरन्तर जप करने से प्रेमलक्षणा भक्ति प्रकट होती है तत्पश्चात् वह द्रवितचित्त साधक कभी-कभी जोर से हँसता है, कभी रोता है, कभी ऊँचे स्वर में गाता है, कभी उन्मादी की तरह नृत्य करता है उसकी सारी चेष्टाऍ लोक व्यवहार से बाहर हो जाती है।
यथागदं वीर्यतममुपयुक्तं यदृच्छया।
अजानतोऽप्यात्मगुणं कुर्य्यान्मन्त्रोऽप्युदाहृतः।।114॥
जैसे सुधा विषादि शक्तिमान् औषध दैववश बिना जाने भक्षण करने पर भी अपना प्रभाव अवश्य दिखाता है उसी प्रकार श्रीरामनाम बिना ज्ञान के भी जप करने पर संसार दुख मिटा देता है।
मार्कण्डेय पुराण:~
मार्कण्डेयपुराण में श्रीव्यासजी का वाक्य अपने शिष्यों के प्रति;
धर्मानशेषसंशुद्धान्सेवन्ते ये द्विजोत्तमाः ।
तेभ्योऽनन्तगुणं प्रोक्तं श्रेष्ठं श्रीनामकीर्त्तनम्।।115॥
जो श्रेष्ठ ब्राह्मण समस्त शुद्ध धर्मों के सेवन से जो फल प्राप्त करते हैं उनसे अनन्त गुना अधिक पुण्य श्रीरामनाम के संकीर्तन से प्राप्त होता है अतः श्रीरामनाम संकीर्तन सर्वश्रेष्ठ है।
यस्यानुग्रहतो नित्यं परमानन्दसागरम्।
रूपं श्रीरामचन्द्रस्य सुलभं भवति ध्रुवम्।।116॥
जिस श्रीरामनाम की कृपा से परमानन्द सागर श्रीसीतारामजी का स्वरूप साक्षात्कार निश्चित सुलभ हो जाता है और एक रस हृदय में बना रहता है।
वेदानां सारसिद्धान्तं सर्वसौख यैककारणम्।
रामनाम परं ब्रह्म सर्वेषां प्रेमदायकम्।।117॥
समस्त वेदों का सार सिद्धान्त: समस्त सुखों का एकमात्र कारण, परब्रह्म स्वरूप और सभी को प्रेम प्रदान करने वाला श्रीरामनाम है।
तस्मात्सर्वात्मना रामनाम माङ्गल्यकारकम् ।
भजध्वं सावधानेन त्यक्त्वा सर्वदुराग्रहान् ।। 118 ॥
इसलिए हे शिष्यों ! तुम लोग महामाङ्गल्य प्रदान करने वाले श्रीरामनाम को सभी दुराग्रहों को छोड़कर सावधान होकर सर्वात्मभाव से भजो। इसी में भलाई है श्रीरामनाम सम्बन्ध बिना जीव किसी रीति से भी कृतार्थ नहीं हो सकता है।
नित्यं नैमित्तिकं सर्वं कृतं तेन महात्मना ।
येन ध्यातं परं प्राप्यं नाम निर्वाणदायकम् ।।119॥
जिसने परम प्राप्य निर्वाणदायक श्रीरामनाम का चिन्तन कर लिया उस महात्मा ने नित्य, नैमित्तिक सभी प्रकार के कर्मों का अनुष्ठान कर लिया। उसके लिए कुछ भी करना शेष नहीं है।
जिह्वा सुधामयी तस्य यस्य नामामृते रुचिः ।
कृतकृत्यस्स एव स्यात् सर्वदोषैकदाहकः ।।120॥
जिस साधक की श्रीरामनामामृत जप में रूचि हो जाती है उसकी जिह्वा अमृतमयी हो जाती है और वह साधक कृतकृत्य हो जाता है उसके समस्त दोष जलकर भस्म हो जाते हैं।
उसी मार्कण्डेयपुराण में व्यासजी का वाक्य सूतजी के प्रति'
रामनाम परं गुह्यं सर्ववेदान्तवन्दितम्।
ये रसज्ञा महात्मानस्ते जानन्ति परेश्वरम् ।।121।।
श्रीरामनाम परम गुह्य है समस्त वेदान्तों से पूज्य है जो महात्मा श्रीरामनाम के रस को जानते हैं वे श्रीरामनाम के परेश्वर स्वरूप को जानते हैं।
नामस्मरणनिष्ठानां निर्विकल्पैकचेतसाम् ।
किं दुर्लभं त्रिलोकेषु तेषां सत्यं वदाम्यहम् ।।122।।
जिनकी श्रीरामनाम के स्मरण में अपार निष्ठा है जो नाना प्रकार के संकल्प विकल्पों से रहित हैं जो एकाग्रचित हैं उन महात्माओं के लिए त्रिलोकी में कुछ भी दुर्लभ नहीं है यह सत्य सत्य मैं कहता हूँ।
अज्ञानप्रभवं सर्वं जगत्स्थावरजंगमम् ।
रामनामप्रभावेण विनाशो जायते ध्रुवम् ।।123॥
जड़चेतनात्मक जो कुछ भी जगत् है वह सब अज्ञान से उत्पन्न हुआ है श्रीरामनाम का निरन्तर जप करने से अन्तःकरण शुद्ध हो जाता है उस समय उस महात्मा को सर्वत्र परिपूर्ण परब्रह्म श्रीरामजी का दर्शन हो लगता है सृष्टिगत नानात्व नष्ट हो जाता है।
भजस्व सततं नाम जिह्वया श्रद्धया सह ।
स्वल्पकेनैव कालेन महामोदः प्रजायते ।।124।।
इसलिए श्रद्धापूर्वक अपनी जिह्वा से निरन्तर श्रीरामनाम का भजन करो इससे थोड़े समय में ही महामोद की प्राप्ति होगी।
धन्यं कुलवरं तस्य यस्मिन् श्रीरामतत्परः।
जायते सत्यसंकल्पः पुत्रः श्रीशेशवल्लभः ।। 125।।
जिस कुल में श्रीरामनाम जप परायण, सत्यसंकल्प और श्रीविष्णु भगवान आदि के स्वामी श्रीसीतारामजी का प्रिय पुत्र उत्पन्न होता है। वह कुल धन्य एवं श्रेष्ठ है।
गरुडपुराण :~
गरुड़पुराण में श्रीविष्णुजी का वाक्य गरुड़जी के प्रति;
श्रीरामराम रामेति ये वदन्त्यपि पापिनः ।
पापकोटिसहस्रेभ्यस्तेषां संतरणं ध्रुवम् ।।126।।
जो पापी भी श्रीराम राम राम ऐसा उच्चारण करते हैं उन पापियों का भी करोड़ों पापों से उद्धार निश्चित है तात्पर्य है कि अनन्त जन्मों के अनन्त पापों से मनुष्य का उद्धार श्रीरामनाम महाराज की कृपा से हो सकता है लेकिन कुछ दिन तक निरन्तर सब आशा त्यागकर श्रीरामनाम का जप किया जाय तो ।
कलौ संकीर्त्तनादेव सर्वपापं व्यपोहति ।
तस्माच्छ्रीरामनाम्नस्तु कार्यं संकीर्त्तनं वरम् ॥ 127॥
कलियुग में श्रीरामनाम के संकीर्तन से ही समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं इसलिए श्रीरामनाम का संकीर्तन ही सर्वश्रेष्ठ साधन है श्रीरामनाम का संकीर्तन ही करना चाहिए।
अग्निपुराण
'अग्निपुराण में श्रीमहादेवजी का वाक्य दुर्वासा के प्रति
न भयं यमदूतानां न भयं रौरवादिकम्।
न भयं प्रेतराजस्य श्रीमन्नामानुकीर्त्तनात्॥ 128॥
श्रीरामनाम के संकीर्तन से यमदूतों का, रौरवादि नरकों का और यमराज का भय नहीं रहता है।
यच्चापराह्ने पूर्वाह्ने मध्याह्ने च तथा निशि ।
कायेन मनसा वाचा कृतं पापं दुरात्मना । 129॥
परं ब्रह्म परं धाम पवित्रं परमं च यत्।
रामनामजपाच्छीघ्रं विनष्टं भवति ध्रुवम् ॥ 130॥
दुरात्मा पापी के द्वारा पूर्वाह्न, मध्याह्न और रात्रि में शरीर, मन और वाणी से जो पाप किया जाता है वह सम्पूर्ण पाप निश्चित ही परम ब्रह्म परम तेजोमय और परमपवित्र स्वरूप श्रीरामनाम के जप से विनष्ट हो जाता है।
ब्राह्मणः क्षत्रियो वैश्यः स्त्रीशूद्राश्च तथान्त्यजा: ।
यत्र कुत्रानुकुवतु रामनामानुकीर्त्तनम्।।131 ॥
इसलिए ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, स्त्री शुद्र तथा अन्त्यजों को शुचि अथवा अशुचि किसी भी अवस्था में सर्वत्र श्रीरामनाम का संकीर्तन करना चाहिए।
उसी अग्रिपुराण में प्रह्लादजी का वाक्य बालकों के प्रति;
यत्प्रभावादहं साक्षात्तीर्णो घोरभयार्णवम्।
अनायासेन बाल्येऽपि तस्माच्छ्रीनामकीर्त्तनम्।।132।।
हे दैत्य बालकों ! जिस श्रीरामनाम के संकीर्तन के प्रभाव से बिना परिश्रम के ही बाल्यावस्था में ही मैंने अपने पिताजी के क्रोधरूपी अत्यन्त भयावह समुद्र को पार कर लिया है, अतः हम सभी को श्रीरामनाम का संकीर्तन करना चाहिए।
कर्त्तव्यं सावधानेन त्यक्त्वा सर्वदुराग्रहम्।
साधनान्यं विहायाशु बुद्ध्वा वैरस्यमात्मनि।।133 ।।
अतः समस्त दुराग्रह का त्याग करके एवं अन्य सभी साधनों को रस शून्य जानकर सावधान होकर श्रीरामनाम का संकीर्तन करना चाहिए।
यद्भुञ्जन्यस्वपंस्तिष्ठन् गच्छन्वै जाग्रति स्थितौ ।
कृतवान्पापमद्याहं कायेन मनसा गिरा।।134॥
यत्स्वल्पमपि यत्स्थूलं कुयोनिनरकावहम्।
तद्यातु प्रशमं सर्वं रामनामानुकीर्त्तनात्।।135।।
आज मैंने शरीर, मन और वाणी से भोजन करते समय, बैठते-उठते, चलते-जागते, सोते एवं सकल व्यवहार करते समय जो पाप किया है जो थोड़ा अथवा बहुत हो, एवं शूकरादि योनि एवं महाघोर नरक प्रदान करने वाले जो पाप हैं वे समस्त पाप श्रीरामनाम के संकीर्तन से नष्ट हो जावें ।
क्रियाकलापहीनो वा संयुतो वा विशेषतः ।
रामनामानिशं कुर्वन् कीर्त्तनं मुच्यते भयात् ॥ 136।।
वेदोक्त समस्त क्रियाकलापों से जो शून्य हो अथवा युक्त हो वह निरन्तर श्रीरामनाम के संकीर्तन से जन्ममरण रूप भय से मुक्त हो जाता है।
यदिच्छेत्परमां प्रीतिं परमानन्ददायिनीं ।
तदा श्रीरामभद्रस्य कार्यं नामानुकीर्तनम् ।।137।।
यदि श्रीसीतारामजी की परमानन्ददायिनी परात्पर प्रीति को प्राप्त करना चाहते हो तो सभी आशाओं का त्याग करके श्रीरामनाम का संकीर्तन करो पराप्रीति का उदय हो जायेगा।
ब्रह्म वैवर्त्तपुराण:~
बह्मवैवर्तपुराण में श्रीशिवजी का वाक्य श्रीनारदजी के प्रति;
हनन्ब्राह्मणमत्यन्तं कामतो वा सुरां पिबन् ।
रामनामेत्यहोरात्रं संकीर्त्य शुचितामियात् ।। 138॥
जो अत्यन्त पापी हजारों ब्राह्मणों की हत्या करने वाला है अथवा स्वच्छन्द मदिरापान करने वाला है। वह नीच भी एक दिन रात निरन्तर श्रीरामनाम के संकीर्तन से परम पवित्र हो जाता है।
अपि विश्वासघाती च तथा ब्राह्मण निन्दकः ।
कीर्त्तयेद् रामनामानि न पापैः परिभूयते।।139।।
किसी की सहायता का वचन देकर सामर्थ्य होने पर भी न करना विश्वासघात है यह महापाप एवं ब्राह्मण की निन्दा करना भी महापाप है इत्यादि अनेक पापों को करने वाला भी यदि श्रीरामनाम का संकीर्तन करे तो शीघ्र ही समस्त पापों से रहित हो जाता है।
उसी ब्रह्मवैवर्तपुराण में श्रीनारदजी का वाक्य अम्बरीष के प्रति;
व्रजॆस्तिष्ठन्स्वपन्नश्नन्स्वसन्वाक्यप्रपूर्णके।
रामनाम्नस्तु संकीर्त्य भक्तियुक्तः परंव्रजेत्॥140॥
जो चलते, बैठते, बोलते, खाते, पीते, सोते एवं वाक्य के अन्त में स्नेहपूर्वक श्रीरामनाम का उच्चारण करता है वह श्रीसीतारामजी के परम धाम को प्राप्त करता है।
कदाचिन्नाम संकीर्त्य भक्त्या वा भक्तिवर्जितः।
दहते पापानि युगान्ताग्निरिवोत्थितः ।। 141॥
जो श्रीरामनाम का उच्चारण किसी भी समय भक्तिपूर्वक अथवा भक्ति से रहित ही करता है उसके जन्म जन्मान्तर के समस्त पाप उसी तरह नष्ट हो जाते हैं जैसे महाप्रलय की अग्नि से समस्त सृष्टि का संहार हो जाता है।
जन्मान्तर सहस्रैस्तु कोटि जन्मान्तरेषु यत्।
रामनाम प्रभावेण पापं निर्याति तत्क्षणात् ।। 142॥ असंख्य जन्मों में असंख्य शरीरों के द्वारा किये जाने वाले जो असंख्य पाप हैं वे सारे पाप श्रीरामनाम के प्रभाव से क्षणभर में भस्म हो जाते हैं।
अभक्ष्यभक्षणात्पापमगम्यागमनाच्च यत्।
नश्यते नात्र संदेहो रामनाम जपान्नृप ।। 143॥
हे राजन् ! अभक्ष्य के भक्षण करने से एवं अगम्या स्त्री के साथ गमन करने का जो पाप लगता है वह पाप श्रीरामनाम के जप से नष्ट हो जाता है इसमें सन्देह नहीं है।
अम्बरीष महाभाग श्रृणुमद्ववचनं वरम् ।
सर्वोपद्रवनाशाय कुरु श्रीरामकीर्त्तनम् ।।144॥
हे महाभाग अम्बरीष ! मेरे श्रेष्ठ वचन को सुनो, सभी प्रकार के उपद्रवों के नाश के लिए श्रीरामनाम का संकीर्तन करो।
तावत्तिष्ठति देहेस्मिन्काल कल्मष संभवम्।
श्रीनामकीर्त्तनं यावत्कुरुते मानवो नहि ।।145॥
मनुष्य के शरीर में काल जन्य कल्मष तभी तक निवास करते हैं जब तक वह श्रीरामनाम का संकीर्तन नहीं करता है श्रीरामनाम के संकीर्तन से सभी पाप नष्ट हो जाते हैं।
यस्यस्मृत्या च नामोक्त्या तपो यज्ञक्रियादिषु ।
न्यूनं सम्पूर्णतां याति सद्यो वन्दे तमच्युतम्।। 146॥
जिनके स्मरण करने से और जिनके नाम का उच्चारण करने से तप, गत, क्रियादि में होने वाली न्यूनता तत्काल सम्पूर्णता को प्राप्त हो जाती है, उन अच्युत भगवान् की मैं वन्दना करता हूँ।
आधयो व्याधयो यस्य स्मरणान्नामकीर्त्तनात्।
शीघ्रं वैनाशमायान्ति तं वन्दे पुरुषोत्तमम्।। 147॥
जिनके स्मरण करने से और जिनके नाम का संकीर्तन करने से सभी प्रकार की मानसिक व्यथा एवं शारीरिक व्यथाऍ शीघ्र ही नष्ट हो जाती हैं उन पुरुषोत्तम भगवान् की मैं वन्दना करता हूँ।
श्रीरामेत्युक्तमात्रेण हेलया कुलवर्द्धन ।
पापौघं विलयं याति दत्तमश्रोत्रिये यथा ।। 148 ॥
हे कुलवर्द्धन ! अनादरपूर्वक श्रीरामनाम के संकीर्तन से भी पापों का समूह उसी प्रकार नष्ट हो जाता है जिस प्रकार अश्रोत्रिय को दिया गया दान नष्ट हो जाता है।
गवामयुतकोटीनां कन्यानामयुतायुतैः ।
तीर्थकोटि सहस्राणां फलं श्रीनामकीर्त्तनम् ।।149 ॥
अनन्त कोटि गोदान, अनन्तकोटि कन्यादान और अनन्तकोटि तीर्थों में स्नान करने का जो पुण्य प्राप्त होता है वह एक बार श्रीरामनाम के संकीर्तन से सहज में प्राप्त हो जाता है।
रामनामेति सद्भक्त्या येन गीतं महात्मना ।
तेनैव च कृतं सर्वं कृत्यं वै संशयं विना ।। 150 ।।
जिस महात्मा ने श्रद्धाभक्तिपूर्वक श्रीरामनाम का गान कर लिया, उसने ही समस्त कर्त्तव्य कर्मों का अनुष्ठान कर लिया, इसमें संशय नहीं है।
वसन्ति यानि तीर्थानि पावनानि महीतले ।
तानि सर्वाणि नाम्नस्तुकलां नार्हन्ति षोडशीम् ॥ 151॥
पृथ्वी पर पवित्र करने वाले जितने तीर्थ विद्यमान हैं वे सभी तीर्थ श्रीरामनाम की सोलहवीं कला के तुल्य भी नहीं है अतः श्रीरामनाम सर्वश्रेष्ठ एवं पावनों को भी पावन बनाने वाला है।
रामनाम समं चान्यत्साधनं प्रवदन्ति ये ।
ते चाण्डालसमास्सर्वे सदा रौरव वासिनः ।। 152।।
जो लोग दूसरे साधनों को श्रीरामनाम के समकक्ष कहते एवं समझते हैं वे लोग चाण्डाल के तुल्य हैं और सदा रौरव नरक में निवास करते हैं।
रामनामाशयं दिव्यं ये जानन्ति समादरात् ।
ते कृतार्थाः कलौ राजन्सत्यंसत्यं वदाम्यहम् ।।153॥
जो लोग श्रीरामनाम के दिव्य आशय को आदरपूर्वक जानते एवं स्वीकार करते हैं हे राजन् ! कलियुग में वे ही लोग कृतार्थ हैं यह मैं सत्य - सत्य कहता हूँ।
दृष्टं नामात्मकं विश्वं मया विज्ञानचक्षुषा ।
वाङ्मनोगोचरातीतं निर्विकल्पं प्रमोददम् ॥154।।
मैंने विज्ञानरूपी नेत्र से देख लिया है कि समस्त विश्व श्रीरामनामात्मक है श्रीरामनाम वाणी, मनबुद्धि आदि इन्द्रियों से सर्वथा परे हैं सभी कल्पनाओं से परे हैं और महाप्रमोद को प्रदान करने वाला है।
ब्रह्मपुराण:~
ब्रह्मपुराण में श्रीब्रह्माजी का वाक्य नारदजी के प्रति;
इदमेव हि माङ्गल्यमिदमेव धनागमः ।
जीवितस्य फलश्चैव रामनामानुकीर्त्तनम् ।।155।।
श्रीरामनाम का संकीर्तन ही परम मंगलस्वरूप है सर्वश्रेष्ठ धन का आगम है और मानव जीवन का परम फल है।
प्रमादादपि संस्पृष्टो यथाऽनलकणो दहेत् ।
तथैौष्ठपुट संस्पृष्टं रामनामदहेदघम्।।156।।
जैसे प्रमाद से भी स्पर्श करने पर अग्निकण स्पर्श करने वाले को जलाता है वैसे ही श्रीरामनाम ओष्ठपुट और रसना से उच्चरित होने पर पाप को दग्ध कर देता है।
हत्यायुतं पानसहस्रमुग्रं गुर्वङ्गनाकोटि निषेवनञ्च ।
स्तेनान्यसंख्यानि च पातकानि श्रीरामनाम्ना निहतानि सद्यः ॥ 157 ॥
दस हजार हत्या, हजारों प्रकार से भयंकर मद्यपान, गुरुपत्नी के साथ करोड़ों बार गमन और असंख्य बार सुवर्णादि की चोरी करने से होने वाले जो पाप हैं वे सब श्रीरामनाम के संकीर्तन से तत्काल नष्ट हो जाते हैं।
निर्विकारं निरालम्बं निर्वैरञ्च निरञ्जनम्।
भज श्री श्रीरामनामेदं सर्वेश्वर प्रकाशकम् ।। 158।।
हे नारद! श्रीरामनाम जन्मादि विकारों से रहित हैं, श्रीरामनाममहाराज जीव को कृतार्थ करने के लिए किसी अन्य साधन का अवलम्ब नहीं लेते हैं, श्रीरामनाम का किसी से वैर नहीं है, श्रीरामनाम मायादि अञ्जनों से रहित हैं, श्रीरामनाम सर्वेश्वर एवं श्रीसीतारामजी के परात्परेश्वरस्वरूप को साक्षात् नामानुरागी के भीतर बाहर प्रकाशित कर देते हैं अत: तुम इस श्रीरामनाम का भजन करो।
श्रुत्वा श्रीरामनाम्नस्तु प्रभावं वै परात्परम्।
सत्यं यो नाभिजानाति द्रष्टव्यं तन्मुखं नहि ।।159 ॥
श्रीरामनाम के परात्पर प्रभाव को सुनकर भी जो उसे सत्य नहीं समझता है उसके मुख को नहीं देखना चाहिए।
विज्ञानं परमं गुह्यमिदमेव महामुने ।
बाह्यं वाऽभ्यन्तरं नाम सततं चिन्तनं वरम् ॥ 160॥
हे महामुने ! नारदजी ! सर्वोत्कृष्ट विज्ञान एवं परम गोपनीय यही है कि भीतर बाहर से निरन्तर श्रीरामनाम का जप करना यही श्रेष्ठ चिन्तन है ।
कूर्म पुराण:~
कूर्मपुराण में श्रीशंकरजी का वाक्य पार्वतीजी के प्रति'
गोप्याद्गोप्यतमं भद्रे सर्वस्वं जीवनं मम।
श्रीरामनाम सर्वेशमद्भुतं भुक्ति मुक्तिदम् ।।161।।
हे कल्याणि ! गोप्य से भी अत्यन्त गोपनीय मेरे जीवन सर्वस्व श्रीरामनाम हैं श्रीरामनाम सर्वेश्वर एवं आश्चर्यमय भोग एवं मुक्ति प्रदान करने वाले हैं।
जपस्व सततं रामनाम सर्वेश्वर प्रियम् ।
नियामकानां सर्वेषां कारणं प्रेरकं परम् ॥ 162।।
हे प्रिये ! तुम निरन्तर श्रीरामनाम का जप करो क्योंकि श्रीरामनाम सभी ईश्वरों को भी प्रिय हैं समस्त नियामकों का परम कारण एवं सर्वश्रेष्ठ प्रेरक है।
रामनामैव सद्विद्ये सत्यं वच्मि वरानने ।
समाहितेन मनसा कीर्त्तनीयस्सदा बुधैः ।।163।।
हे सुमुखि ! हे ब्रह्म विद्यास्वरूपिणि पार्वति ! मैं सत्य सत्य कहता हूँ कि विद्वानों को सदा सावधानचित्त होकर श्रीरामनाम का संकीर्तन करना चाहिए।
रामनामात्मकं तत्त्वं सतां जीवनमुत्तमम्।
निन्दितस्सर्वलोकेषु रामनाम बहिर्मुखः ||164।।
श्रीरामनाम सभी सन्तों का जीवन है जो श्रीराम से बहिर्मुख है वह सभी लोकों में निन्दित है।
लौकिकी वैदिकी या या क्रिया सर्वार्थसाधिका ।
ताभ्यः कोट्यर्बुदगुणं श्रेष्ठं श्रीनामकीर्त्तनम्।।165॥
सभी अर्थों को सिद्ध करने वाली लौकिक या वैदिक जितनी क्रियाएँ हैं उन समस्त क्रियाओं से कई गुना श्रेष्ठ श्रीरामनाम संकीर्तन है।
धिक्कृतं तमहं मन्ये सततं प्राणवल्लभे ।
यज्जिह्वाग्रे न श्रीरामनाम संराजते सदा ।।166 ।।
हे प्राण वल्लभे ! मैं उसे सतत धिक्कार के योग्य मानता हूँ जिसकी जिह्वा पर सदा श्रीरामनाम विराजमान न हो अर्थात् जो सदा सर्वदा श्रीरामनाम का संकीर्तन नहीं करता है उसे धिक्कार है।
वामनपुराण:~
वामनपुराण में श्रीवामनजी का वाक्य मुनियों के प्रति;
अघौघा वज्रपाताद्या ह्यन्ये दुर्नीत संभवः ।
स्मरणाद्रामभद्रस्य सद्यो याति क्षयं क्षणात् ॥ 167 ॥
पापों का समूह, वज्रपातादि दोष तथा दूसरे दुष्मीतियों से समुत्पन्न दुर्भिक्षादि जितने दोष हैं वे सब श्रीरामनाम के स्मरण से तत्काल नष्ट हो जाते हैं।
सांदीपनि गुरुकुल स्वाध्याय केंद्र,
No comments:
Post a Comment