*भारतीय मदरसा तालीम प्रणाली में आधुनिक सोच की कमी*
मदरसा तालीम प्रणाली और उसके तालीम के पारंपरिक दृष्टिकोण पर बहस छिड़ी हुई है। कई ऐसा मानते हैं कि इस पूरी व्यवस्था का कायाकल्प होना चाहिए। जबकि अन्य का
यह मानना है कि यह पूरी व्यवस्था ही त्रुटिपूर्ण है और इसके पाठ्यक्रम में आधुनिक विज्ञान के विषयों को शामिल किया जाना चाहिए। 'मदरसा' शब्द, कई दफ़ा ढर्रे पर चलने वाली
और दोषपूर्ण 'तालीम व्यवस्था के लिए इस्तेमाल किया जाता है जिसके कारण इसके प्रति कट्टरवादी, रुढिवादी ओर यहाँ पढ़ने वालों के प्रति आधुनिकता- विरोधी सोच का आभास
होता है। भारत में मदरसों पर हमेशा से यह दाग लगता रहा है कि यहां कट्टरवादी इस्लाम की तालीम दी जाती है जो, कभी-कभी भारतीय बहुलवादी संस्कृति के लिए खतरा बन जाती है।
इसके अलावा इसका आर्थिक सशक्तिकरण में संभावना बहुत कम है क्योंकि इसके ज्यादातर छात्र व्यवसाय के बाजार के अनुकूल नहीं होते बल्कि इनका झुकाव, मजहब से संबंधित कार्यों जैसे मस्जिदों के इमाम और नौजवानों को कुरान की तालीम देने आदि तक ही सीमित होता है। इसके अतिरक्ति मदरसों पर आधुनिक तालीम के तरीकों को ना अपनाने और समकालीन तकनीक से दूर रहने के आरोप लगते रहे हैं। यहाँ पर जोर देने की जरूरत है कि मदरसों की तालीम प्रणाली को, अपने पाठ्यक्रमों में प्राकृतिक विज्ञान, सामाजिक विज्ञान तथा कला विषयों को, कम से कम स्नातक स्तर तक शामिल करने की जरूरत है, ताकि छात्र अपने भविष्य के कोर्सों को चुन सकें और साथ-साथ इस्लाम में भी महारत हासिल कर सकें।
मदरसा संस्थानों को मुस्लिम समुदाय के सामाजिक ताने-बाने और आर्थिक पिछड़ेपन को समझना चाहिए और इन छात्रों को जातीयता व मजहबी सिद्धांतों पर आधारित तालीम देकर, अलगाववाद के एजेन्ट न बनाएँ। जोर इस बात पर भी होना चाहिए कि ये छात्र सामाजिक सौहार्द व अमन के दूत बन सकें। मदरसा व्यवस्था को जरूरी ढांचागत बदलाव करना चाहिए और जातीय, वर्गीय तथा मजहबी सीमाओं से परे देखते हुए सामने पेश आने वाली समस्याओं को समझदारी से सुलझाना चाहिए और बदलते समाज के अनुसार इनका हल निकालना चाहिए। मदरसों के इस ढांचागत बदलाव के कारण छात्र एक तरफ मजहबी मामलों के जानकर बन सकेंगे तो दूसरी ओर वे व्यावसायिक कोर्सों से इल्म प्राप्त कर वैज्ञानिक, आर्थिक सलाहकार या दार्शनिक बन सकेंगे ताकि खुद का व पूरे मुल्क का फायदा हो सके।
फरहत अली खान
एम. ए. गोल्ड मेडलिस्ट
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