Sunday, 25 December 2022

दुश्मन का स्वार्थ लें डूबा*

*दुश्मन का स्वार्थ लें डूबा*
★★★★★★★★★★★★★★★

*🕉️🎇🌠🌠🎇🕉️*
एक पर्वत के समीप बिल में मंदविष नामक एक बूढा सांप रहता था। 
अपनी जवानी में वह बड़ा रौबीला सांप था। जब वह लहराकर चलता तो बिजली-सी कौंध जाती थी पर बुढापा तो बडे-बडों का तेज़ हर लेता हैं।

बुढापे की मार से मंदविष का शरीर कमज़ोर पड गया था। उसके विषदंत हिलने लगें थे और फुफकारते हुए दम फूल जाता था। जो चूहे उसके साए से भी दूर भागते थे, वे अब उसके शरीर को फांदकर उसे चिढाते हुए निकल जाते। पेट भरने के लिए चूहों के भी लाले पड़ गए थे।

मंदविष इसी उधेडबुन में लगा रहता कि किस प्रकार आराम से भोजन का स्थाई प्रबंध किया जाए। एक दिन उसे एक उपाय सूझा और उसे आजमाने के लिए वह दादुर सरोवर के किनारे जा पहुंचा। 

दादुर सरोवर में मेढकों की भरमार थी। वहां उन्हीं का राज था। मंदविष वहां इधर-उधर घूमने लगा। तभी उसे एक पत्थर पर मेढकों का राजा बैठा नज़र आया। मंदविष ने उसे नमस्कार किया “महाराज की जय हो।”

मेंढक राज चौंका “तुम! तुम तो हमारे बैरी हो। मेरी जय का नारा क्यों लगा रहे हो?”

मंदविष विनम्र स्वर में बोला “हे राजन, वे पुरानी बातें हैं। अब तो मैं आप मेढकों की सेवा करके पापों को धोना चाहता हूं। श्राप से मुक्ति चाहता हूं। ऐसा ही मेरे नागगुरु का आदेश हैं।”

मेंढक राज ने पूछा “उन्होंने ऐसा विचित्र आदेश क्यों दिया?”

मंदविष ने मनगढंत कहानी सुनाई-
“राजन्, एक दिन मैं एक उद्यान में घूम रहा था। वहां कुछ मानव बच्चे खेल रहे थे। गलती से एक बच्चे का पैर मुझ पर पड़ गया और बचाव स्वाभववश मैंने उसे काटा और वह बच्चा मर गया। मुझे सपने में भगवान् श्रीकॄष्ण नजर आए और श्राप दिया कि मैं वर्ष समाप्त होते ही पत्थर का हो जाऊंगा। मेरे गुरुदेव ने कहा कि बालक की मॄत्यु का कारण बन मैंने कॄष्णजी को रुष्ट कर दिया हैं, क्योंकि बालक कॄष्ण का ही रुप होते हैं।

बहुत गिड़गिड़ाने पर गुरुजी ने श्राप मुक्ति का उपाय बताया। उपाय यह हैं कि मैं वर्ष के अंत तक मेढकों को पीठ पर बैठाकर सैर कराऊं।”

मंदविष कि बात सुनकर मेंढक राज चकित रह गया। सांप की पीठ पर सवारी करने का आज तक किस मेढक को श्रैय प्राप्त हुआ? 
उसने सोचा कि यह तो एक अनोखा काम होगा। 

मेंढक राज सरोवर में कूद गया और सारे मेढकों को इकट्ठा कर मंदविष की बात सुनाई। सभी मेंढक भौंचक्के रह गए।

एक बूढा मेंढक बोला 
“मेंढक एक सर्प की संवारे करें। यह एक अदभुत बात होगी। हम लोग संसार में सबसे श्रेष्ठ मेढक माने जाएंगे।”

एक सांप की पीठ पर बैठकर सैर करने के लालच ने सभी मेंढकों की अक्ल पर पर्दा डाल दिया था। सभी ने ‘हां’ में ‘हां’ मिलाई। मेंढक राज ने बाहर आकर मंदविष से कहा “सर्प, हम तुम्हारी सहायता करने के लिए तैयार हैं।”

बस फिर क्या था। आठ-दस मेढक मंदविष की पीठ पर सवार हो गए और निकली सवारी। सबसे आगे राजा बैठा था। मंदविष ने इधर-उधर सैर कराकर उन्हे सरोवर तट पर उतार दिया।

मेढक मंदविष के कहने पर उसके सिर पर से होते हुए आगे उतरे। मंदविष सबसे पीछे वाले मेढक को गप्प खा गया। 
अब तो रोज यही क्रम चलने लगा। रोज मंदविष की पीठ पर मेढकों की सवारी निकलती और सबसे पीछे उतरने वाले को वह खा जाता।

एक दिन एक दूसरे सर्प ने मंदविष को मेढकों को ढोते देख लिया। बाद में उसने मंदविष को बहुत धिक्कारा “अरे! क्यों सर्प जाति की नाक कटवा रहा हैं?”

मंदविष ने उत्तर दिया “समय पड़ने पर नीति से काम लेना पडता हैं। 
*अच्छे-बुरे का मेरे सामने सवाल नहीं हैं। कहते हैं कि मुसीबत के समय गधे को भी बाप बनाना पडे तो बनाओ।”*

मंदविष के दिन मज़े से कटने लगें। वह पीछे वाले वाले मेंढक को इस सफाई से खा जाता, कि किसी को पता न लगता। मेंढक अपनी गिनती करना तो जानते नहीं थे, जो गिनती द्वारा माजरा समझ लेते।

एक दिन मेंढक राज बोला “मुझे ऐसा लग र्हा हैं कि सरोवर में मेढक पहले से कम हो गए हैं। पता नहीं क्या बात हैं?”

मंदविष ने कहा “हे राजन, सर्प की सवारी करने वाले महान मेढक राजा के रुप में आपकी ख्याति दूर-दूर तक पहुंच रही हैं। 
यहां के बहुत से मेढक आपका यश फैलाने दूसरे सरोवरों, तलों व झीलों में जा रहें हैं।”

मेंढक राज की गर्व से छाती फूल गई। अब उसे सरोवर में मेंढकों के कम होने का भी ग़म नहीं था। जितने मेढक कम होते जाते, वह यह सोचकर उतना ही प्रसन्न होता कि सारे संसार में उसका झंडा गड़ रहा हैं।

आख़िर वह दिन भी आया, जब सारे मेंढक समाप्त हो गए। केवल मेंढक राज अकेला रह गया। उसने स्वयं को अकेले मंदविष की पीठ पर बैठा पाया तो उसने मंदविष से पूछा “लगता हैं सरोवर में मैं अकेला रह गया हूं। मैं अकेला कैसे रहूंगा?”

No comments:

Post a Comment